अभी ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी। उस समय सारे विश्व में अलग-अलग प्रतिक्रिया हुई थी।एक बड़ा तबका यह मानता था कि ओबामा को पुरस्कार देने में बहुत जल्दी की गयी है। इस तबके का सोचना था कि अभी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि उन्हें दुनिया के इस सर्वोच्च पुरस्कार से नवाज़ा जाये। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा भी था , जो सोचता था कि यह पुरस्कार अब अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं और इनके चयन में राजनीति हावी हो रही है।लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस खबर पर दुनिया भर में सबसे संजीदा राय शायद बहुसंख्य अमेरिकी अवाम की ही थी। वहां लोग सोचते और कहते थे कि इस सबसे बड़े पुरस्कार हेतु चयन के लिए केवल जीत जाना ही कसौटी नहीं होती बल्कि जीतने का हौसला लेकर अपनी विश्वसनीय तैयारी का प्रदर्शन भी मायने रखता है।क्योंकि जीत जाने में तो भवितव्य अर्थात भाग्य की भूमिका भी होती है, पर प्रत्यंचा चढ़ा कर निडरता से आगे बढ़ना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इस द्रष्टि से ओबामा के चयन को बहुत संतुलित और सटीक ठहराया गया था।
सोच का ऐसा बारीक विश्लेषण कम से कम दो बातों की ओर इंगित करता है। एक तो यह, कि आम तौर पर बेबाक दिखने वाले अमरीकी सोच के विश्लेषण की पूरी योग्यता रखते हैं और दूसरी यह कि वे अपनी अभिव्यक्ति में अपेक्षा कृत मौलिक हैं।
कुल मिलकर कहा जा सकता है कि आम अमरीकी की एक बड़ी खासियत उसका राष्ट्रीयता में अगाध विश्वास भी है।
सोच का ऐसा बारीक विश्लेषण कम से कम दो बातों की ओर इंगित करता है। एक तो यह, कि आम तौर पर बेबाक दिखने वाले अमरीकी सोच के विश्लेषण की पूरी योग्यता रखते हैं और दूसरी यह कि वे अपनी अभिव्यक्ति में अपेक्षा कृत मौलिक हैं।
कुल मिलकर कहा जा सकता है कि आम अमरीकी की एक बड़ी खासियत उसका राष्ट्रीयता में अगाध विश्वास भी है।
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