Tuesday, March 22, 2011

इस राह से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते

एक बार एक मुशायरे में गुलज़ार ने लोगों के बीच अपनी एक नज़्म के माध्यम से यह सवाल उठाया था, कि मौत तो न्यायप्रिय है, सभी पर बारी-बारी से आती है, ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती? उस समय तो शेर पर दाद देने वाली तालियों की गडगडाहट में यह मार्मिक सा सवाल दब कर रह गया, पर बाद में एक दिन बैठे-बैठे मैंने सोचा- शायद कुछ लोगों को दूसरों की ज़िन्दगी से जीवन अमृत खींचने का शौक होता है, इसी से कुछ लोगों पर ज़िन्दगी नहीं आ पाती। यदि सबका पेट अपने हिस्से की ज़िन्दगी से भर जाये, तो ज़िन्दगी भी सभी पे आ जाये।
खैर, हर समय ऐसी बातें करने से साम्यवाद का पक्षधर होने का आक्षेप लग सकता है। एक दिलचस्प बात यह है कि मुझे आक्षेप से भय नहीं लगता, बल्कि साम्यवाद ही अच्छा नहीं लगता।साम्यवाद कूटनीति को बहुत आसानी से छिपा लेता है। इस से आम आदमी को पता नहीं चल पाता कि कौन उसका वास्तविक हितैषी है और कौन उसकी दुर्दशा पर मगरमच्छी आंसू बहाने वाला।
भारत के साम्यवादी गढ़ बंगाल में जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं। कुछ लोगों को लग रहा है कि शायद इस चुनाव के बाद बंगाल को एक बार फिर ज्योति बासु की भांति कुर्सी पर लम्बी पारी खेलने वाले मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी मिलने वाली हैं। ममता ने देश भर के रेल संसाधनों का मुंह यथाशक्ति बंगाल की ओर मोड़ तो दिया है, देखना यह है कि इन रेलों में बैठकर कितने वोट बंगाल जा पाते हैं।
वोट, कुर्सी, सत्ता के समीकरण जो भी रहें देश को फासीवाद के रैपर में लिपटा हुआ एक तोहफा ज़रूर मिलने वाला है। सारे देश के लोग अपने घर को जीतकर दिल्ली की ओर देखते हैं। ममता दिल्ली से ऊब कर बंगाल की ओर देखने लगें तो यह क्षेत्रीयता की मानसिकता का पोषण ही तो है।

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