बोलने से कितना फर्क पड़ जाता है। शायद बोलने, न बोलने वाले के व्यक्तित्व में ज़मीन-आसमान का फर्क पड़ जाता है। चिड़िया,मक्खी,चींटी,छिपकली यह सब हमारे घर, यहाँ तक कि हमारे शयन-कक्ष या बाथरूम में भी बेरोक-टोक घूमते रहते हैं। कोई इनकी उपस्थिति को गंभीरता से नहीं लेता। ज़रा कल्पना कीजिये कि यदि यह सब बोलने में सक्षम होते तो क्या हम इन्हें अपने आस-पास यूँ ही बेख़ौफ़ घूमने देते?
इसी तरह इंसानों की नियति भी होती है। यदि इन्सान वाचाल या बात को परख कर उसपर टिप्पणी करने वाला है तो उसकी उपस्थिति को लोग हलके में नहीं लेते। उसकी मौजूदगी का पूरा ध्यान रखा जाता है। उसके समक्ष गोपनीय कार्य-व्यवहार नहीं किये जाते। किन्तु यह बात भी एक सीमा तक ही काम करती है। यदि आप हर बात पर अनावश्यक टोकाटाकी करने वाले हैं, तो भी लोग आपको गंभीरता से लेना बंद कर देते हैं।
अमेरिका, यूरोप या ऐसे ही विकसित क्षेत्रों के निवासियों को ध्यान से देखिये। उनमे यह जन्म-जात गुण होता है कि वे जितना परिश्रम टीका- टिप्पणी में करते हैं, उससे कहीं ज्यादा चीजों को ख़ामोशी से ' ओब्ज़र्व ' करने में करते हैं। शांत अवलोकन भी एक कला है जो आपको संजीदा और सभ्य बनाती है।हाँ, यहाँ एक बात ध्यान रखिये कि मैंने एक नहीं , बल्कि दो बातें कहीं हैं। हमें वाचाल या मुखर होना चाहिए, एक बात। और हमारी मुखरता मर्यादित व सोची-समझी हो, यह दूसरी बात।
अब एक बात और। आप सोच रहे होंगे कि यह बात मैं क्यों कह रहा हूँ।इसलिए, कि आगे मैं अमेरिका और भारत की भाषिक असमानता पर भी कुछ बात करना चाहता हूँ। कहते हैं कि जिसे बोलना आता है वो बाज़ार में खड़ा होकर मिट्टी भी बेच देता है, और जिसे बोलना नहीं आता उसकी दुकान पर सोना भी बिना बिका रखा रह जाता है।
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
Thursday, March 10, 2011
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