Tuesday, January 31, 2012

ऑस्कर वाइल्ड के दैत्य यानी हम और बच्चों की अनदेखी से सूखता बाग़

ऑस्कर वाइल्ड के दैत्य ने अपने बगीचे में बच्चों को खेलने से मना किया तो बाग़ में सदा के लिए बर्फीला पतझड़ डेरा जमा कर बैठ गया. फिर वहां न पंछी आये, न धूप. न संगीत गूंजा और न बच्चों की किलकारियां. 
बेचारा दैत्य!
उसने तो केवल अपने बगीचे से बच्चों को निकाला, पर हमारा गुनाह तो उस से भी बड़ा है. हमारे बाग़ में बच्चे हैं, पर फिर भी हम उनकी अनदेखी करके अपने खेल खेलने में लगे हुए हैं. हमें पैसा कमाना है, नाम कमाना है और अपने आने वाले कल के लिए इस शर्त पर धन जोड़ कर रखना है की यदि बच्चे हमारी देखभाल ठीक से करें तो धन उन्हें मिले वरना नहीं.हम रोज़ सुबह बच्चे के बस्ते में अपना सपना रख कर उसे घर से निकाल देते हैं. साथ में ऐसा मंत्र पढ़ते हैं की यदि बच्चा हमारे सपने से इंच-भर भी इधर-उधर हिले तो लंच-बॉक्स में रखी रोटी उसके गले में अटक जाये.जब दैत्य के बाग़ में बहार नहीं लौटी तो हमारे बाग़ में क्यों लौटे? 
दैत्य को तो एक दिन ईश्वर ने अवतार लेकर सद्बुद्धि देदी, पर हमारा क्या हो? ईश्वर आये भी तो कौन सा? हमारे मंदिर-मेले [मन-मेले नहीं] में तेतीस करोड़ देवताओं की कतार है.    

Monday, January 30, 2012

कुदरत बोलती है-यह विज्ञानं है, अंधविश्वास है या संयोग है ?

कहते हैं कि कुदरत आने वाले समय का संकेत किसी न किसी रूप में देने की कोशिश करती है. कुछ लोग इन संकेतों को समझ लेते हैं, तो कुछ इनकी अनदेखी कर देते हैं. कुछ इन्हें महज़ इत्तफाक कहते हैं.
एक लड़की कह रही है- नैना बरसे रिम-झिम रिम-झिम...
उस लड़की से एक लड़का कहता है- छलके तेरी आँखों से शराब और ज्यादा
लड़की कहती है- चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है, आँखों में सुरूर आ जाता है,जब तुम मुझे अपना कहते हो...
लड़का कहता है- नैनों वाली ने, हाय मेरा दिल लूटा
लड़की  कहती है- नैनों में बदरा छाये, बिजली सी चमके हाय...
लड़का कहता है-याद है मुझको मेरी उम्र की पहली वो घड़ी, जब तेरी आँखों से कोई जाम पिया था मैंने 
लड़की कहती है- मदिरा में डूबी अँखियाँ, चंचल हैं दोनों सखियाँ...
....और फिर एक दिन अचानक दो सुपरस्टारों की शूटिंग रुक जाती है. बताया जाता है कि लड़की आँखों के इलाज के लिए विदेश चली गई है. लौट के आती है तो फिल्मों को अलविदा कह देती है. घर से बाहर आना-जाना बंद हो जाता है, क्योंकि आँखों पर हर समय लगा रहने वाला काला चश्मा उसे बाहर जाने से रोकता है. 
किसी समय की शिखर अभिनेत्री "साधना" की यह कहानी, कहानी नहीं हकीकत है.  

Saturday, January 28, 2012

आपको मालूम हो तो बताएं

पिछले कुछ समय से एक छोटे से सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है. यदि आपने हिंदी फिल्मों के अवार्ड फंक्शन देखे हों तो आपके भी मन में यह सवाल आया ज़रूर होगा. और फंक्शन भी कोई न कोई तो ज़रूर देखा होगा, क्योंकि यह अच्छी खासी तादाद में आ रहे हैं. मैं हाल ही में आये स्क्रीन कलर्स अवार्ड की बात कर रहा हूँ. वैसे सवाल केवल इन्हीं पुरस्कारों से सम्बंधित नहीं है, लगभग ऐसे सभी पुरस्कारों में ये आपको दिखेगा. 
आजकल हास्य कलाकार का लिंग-निर्धारण नहीं होता. यह पुरस्कार केवल एक ही व्यक्ति को दिया जाता है, चाहे वह महिला हो या पुरुष. जबकि बेस्ट हीरो, बेस्ट हीरोइन,बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर मेल या फीमेल आदि पुरस्कार अलग-अलग दिए जाते हैं. इसके पीछे क्या तर्क हो सकता है? 
वैसे सवाल तो और भी हैं, पर फ़िलहाल इसी का उत्तर देदें. सवाल तो यह भी है कि आजकल ज्यादा पुरस्कार उन नायकों या नायिकाओं को ही क्यों मिलते हैं जो अपने मम्मी-डैडी के साथ फंक्शन में आते हैं? ऐसे पुरस्कारों का सिलसिला अभिषेक बच्चन से शुरू हुआ था जो तुषार,रणबीर,सोनाक्षी आदि के साथ अबतक जारी है.इस सवाल के संभावित उत्तर कई हैं- [क]इस से एक सितारे को इनाम देकर समारोह में तीन सितारे बुलाये जा सकते हैं [ख] मम्मी-डैडी भी फ़िल्मी कलाकार होने से चेहरे से आसानी से यह पता नहीं चलने देते कि पुरस्कार प्रायोजित था [ग]पुरस्कार बांटने के लिए भी कई दावेदार मिल जाते हैं[घ] लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए जिन्हें चुना जाता है उन्हें पकड़ कर लाने वाले भी उनके घर वाले ही मिल जाते हैं,आयोजकों को अलग से जुटाने नहीं पड़ते.     

Friday, January 27, 2012

संजय दत्त और ऋषि कपूर "मैले" हो गए

पिछले कई साल से अमिताभ बच्चन ने आसमान पर जैसे ढक्कन ही लगा दिया है. अब आसानी से कोई नया महानायक चमकने के लिए आकाश में जा ही नहीं सकता. जो थोड़ी बहुत संभावनाएं बची दिखाई देती हैं उनपर शाहरुख़ खान,आमिर खान, सलमान खान और ऋतिक रोशन का कब्ज़ा है. ऐसे में ऋषि कपूर और संजय दत्त करें भी तो क्या करें? वे राज कपूर और सुनील दत्त के बेटे हैं, इसलिए फ़िल्मी कैरियर पर फुल स्टॉप लगाना उन्हें आता ही नहीं. 
बरसों पहले फ़िल्मी खलनायकों की ज़मात से विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा निकल कर जो नायक बने तो ऐसे बने कि दोनों ने फिर मुड़ कर नहीं देखा.ऐसा लगता है कि सालों बाद खलनायकों की टीम ने नायकों की जमात से अपने हीरे वापस छीन लिए. संजय दत्त और ऋषि कपूर ने 'अग्निपथ' में जो कारनामे किये हैं, उन्हें देख कर लगता है कि खलनायक की भूमिका के लिए अब निर्माताओं की पहली पसंद यही दोनों होंगे. संजय दत्त तो खैर कई फिल्मों और निजी जिंदगी में नकारात्मक भूमिकाएं करने के बावजूद हीरो बने हुए हैं, पर ऋषि कपूर ने अब अपने को खलनायक सिद्ध कर ही लिया. 
वैसे भी अम्बरीश पुरी और अमज़द खान की विरासत ख़ाली ही जा रही थी.रणबीर कपूर के लिए भी यह खबर ज्यादा बुरी नहीं है, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें वैसे भी समा नहीं पा रही थीं. रणबीर के आने के बाद से ऋषि जब-तब सुनहरे परदे के लिए छटपटा ही रहे थे. संजय दत्त को अग्निपथ में देख कर ऐसा लगा मानो शोले के गब्बर की भूमिका खलनायकों के लिए आखिरी ही नहीं थी. सुनील दत्त ने संजय को ड्रग एडिक्ट हो जाने  या आतंकवादियों का सहयोग कर देने के लिए चाहे कुछ न कहा हो,काँचा की भूमिका के लिए एक तमाचा ज़रूर मारते, यदि वे आज जीवित होते.     

Wednesday, January 25, 2012

म्यूजिकल चेयर की तरह न खेला जाये "भारत रत्न"

मकर संक्रांति पर आकाश में बहुत पतंगें उड़ती हैं. २६ जनवरी को एक बच्चे से किसी ने पूछा- बेटा आज स्कूल नहीं गए? बच्चे ने कहा- अंकल, आज नेताओं की संक्रांति है न, इसलिए छुट्टी है. अंकल बच्चे की बात का मतलब समझ कर भी हंस न सके.
आज गणतंत्र दिवस है. नेता गण जगह-जगह झंडा फहरा रहे हैं. अखबारों ने 'पद्म पुरस्कारों' की घोषणा की है. खबर है कि 'भारत रत्न' जैसा सर्वोच्च पुरस्कार पिछले कई सालों की तरह इस बार भी किसी को नहीं दिया गया. साथ ही यह भी बताया गया है कि खेल मंत्रालय ने भारत रत्न पुरस्कार के लिए ध्यानचंद, अभिनव बिंद्रा और तेनसिंग के नामों की अनुशंसा की है.
किसके लिए पुरस्कार माँगा जा रहा है, किसके लिए सिफारिश की जा रही है, किस पर विचार नहीं हो रहा, यह सब बातें यदि पारदर्शिता की सीमा में रहेंगी तो इन पुरस्कारों की गरिमा को ध्वस्त होते देर नहीं लगेगी. देश का सर्वोच्च सम्मान कोई फुटबाल का मैच नहीं है जिसमें खिलाडी बॉल लेकर भागते दिखाई दें.इसके लिए तो एक निष्पक्ष उच्च स्तरीय समिति स्वतः विचार करके शालीनता से नाम घोषित करे तभी इसकी सार्थकता है. पिछले दिनों सचिन व ध्यानचंद का नाम लेकर जिस तरह अभियान चले उन्हें गरिमामय नहीं कहा जा सकता. ये दोनों ही नाम अपने आप में चमकते हुए नक्षत्रों की तरह हैं, इन्हें किसी की सिफारिश की ज़रुरत नहीं हो सकती. बिना प्रमाण-पत्र के भी ये भारत रत्न ही हैं.     

इतिहास का जो बीज उग जाता है वही तो वर्तमान की फसल है

हिंदी के विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किसी गाकर भीख मांगने वाले से कोई दोहा सुना.उसने कुछ और दोहे भी सुना डाले. संयोग से उसे लोक-परंपरा वश यह भी याद था कि यह दोहा किसी मलिक मोहम्मद का लिखा हुआ है. शुक्लजी ने मलिक मोहम्मद  के नाम-गाँव की पड़ताल करते हुए जायसी का पता लगा लिया और आज जायसी की गिनती इतिहासके श्रेष्ठ कवियों में होती है. अर्थात बीते हुए दिन किसी न किसी रूप में अपनी झलक दिखा ही देते हैं.
हमारे इतिहास के ज़्यादातर कवियों में वे लोग हैं जो किसी न किसी राजा या सुल्तान के महलों में उसकी वंदना करते हुए रहे. इतिहास के गर्भ में इनकी सनद इसलिए महफूज़ रही कि इनका लिखा महलों और मज़बूत किलों में था. उसे समय की गर्द ढांप नहीं पाई.बहुत से बेहतरीन शायर और कवि इसलिए इतिहास तले दब कर रह गए होंगे किउनके उड़ते पन्नों को किसी महल या दुर्ग की मज़बूत दीवार नसीब नहीं हुई. बेहतर यह होगा कि आज किसी भी कलमकार को पढ़ते हुए पहले दो मिनट की ख़ामोशी उन अभागे कलम-नवीसों के लिए रखी जाये जिन्हें किसी शाह की छत्र-छाया हासिल नहीं थी.
कल ऐसा ही श्रद्धा भरा मौन अवाम सलमान रुश्दी जैसे उन अदीबों के लिए रखेगा जिनके लिखे लफ़्ज़ों को महज़ इसलिए मंच नसीब नहीं हुआ कि उस दौरान संसदों और विधान-सभाओं के लिए राजनीतिबाज़ चुने जा रहे थे, और कलमकार के बोलने भर से उनके वोटों की बरसात में खलल पड़ने का अंदेशा था.         

Tuesday, January 24, 2012

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आंच साहित्यकारों और कलाकारों के मामले में ही क्यों आती है?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में लगातार धमकी की ख़बरों के बाद सलमान रुश्दी नहीं आये. अब कार्यक्रम के अंतिम दिन वीडियो कोंफ्रेंसिंग के ज़रिये उनसे बात करने की घोषणा की गई. खबर है कि स्थानीय पुलिस-प्रशासन की उनके बारे में की जा रही पूछताछ से कयास लगाये जा रहे हैं कि शायद एन-वक्त पर यह कार्यक्रम भी खटाई में पड़ जायेगा.आश्चर्य है कि कोई व्यक्ति ऐसा क्या बोलता या लिखता है जिससे बलवा होने का अंदेशा हो जाता है? कोई राजनेता ऐसा कुछ क्यों नहीं बोल पाता जिस पर यकीन करके लोग उसे गंभीरता से लें. यदि किसी की बात को लोग इस पार या उस पार गंभीरता से लेते हैं तो उसके वजूद को सत्ता आसानी से क्यों नहीं पचा पाती? दुनिया भर से इतने लोग आकर अपनी बात कह रहे हैं, तो रुश्दी की बात सुन कर ही जनता क्यों कुपित हो जाएगी?और यदि हो जाएगी तो वह सबसे बड़ा वक्ता साबित होगा या नहीं? यदि ऐसा कोई है तो आयोजक उसे सम्मान क्यों न दें? क्या आयोजकों का अभीष्ट ऐसे लोगों का मजमा या जमघट लगाना है जिनकी बातों से कहीं कुछ न हो?    

Saturday, January 21, 2012

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में नौ-दो-ग्यारह हुई साहित्य की ग़ुरबत


कभी कहा जाता था कि साहित्य के पर्याय हैं- भूख,गरीबी,उपेक्षा,लाचारी और पिछड़ापन.साहित्य का महाकुम्भ जयपुर में चल रहा है.इस आयोजन में शिरकत करने वाले और न करने वाले यह कतई मानने को तैयार नहीं हैं कि साहित्य के ऐसे फ़िज़ूल पर्याय हो सकते हैं. मीडिया बाकायदा रोज़ बता रहा है कि सहभागियों को देश-दुनिया के कौन से लज़ीज़ व्यंजन परोसे जा रहे हैं. आयोजन स्थल डिग्गी हाउस के रंगीन परदे मेहमानों के लिए चाहे पारदर्शक हो पर गरीबी के लिए लोहे की दीवार सद्रश्य हैं. यह सब किसी व्यंग्य या नकारात्मक भाव से नहीं लिखा जा रहा, बल्कि इस संतोष के साथ लिखा जा रहा है, कि आयोजकों ने साहित्य की भुखमरी का राग आलापने की जगह साहित्य को संपन्न गरिमा देने की कोशिश की है जो काबिले तारीफ है. हाँ, यदि लेश मात्र भी उपेक्षा या लाचारी कहीं दिखी तो वह कपिल सिब्बल की अगवानी को लेकर दिखी है. वैसे मंत्री जी की इस किरकिरी को भी एक बड़े वर्ग ने गरिमा पूर्ण ही करार दिया है, क्योंकि पिछले दिनों नेट पर स्वतंत्रता को लेकर जो विचार मंत्री जी ने व्यक्त किये थे उसकी खट्टी डकारें अब तक अवाम को आ रही हैं.
सचमुच आज यदि महाकवि केशव होते तो फेस्टिवल के रजिस्ट्रेशन  काउंटर पर "आयोजक -सिब्बल" संवाद कुछ इसी तरह बयां करते-
रे कपि कौन तू? 'नेट' को घातक, हिम्मत कैसे पड़ी, यहाँ आयो 
लाइन कैसे तरयो? जैसे दर्शक, कौन बुलायो कोऊ  न बुलायो    

Friday, January 20, 2012

हाथ और हाथी में भेदभाव कैसे और क्यों करेगा निर्वाचन आयोग

इन दिनों चुनाव आयोग अपने होने को सिद्ध करने में लगा है. मायावतीजी के 'हाथी' निशाने पर हैं. एक संजीदा और ज़िम्मेदार विभाग की तरह चुनाव आयोग  ने घोषणा करदी कि सार्वजानिक स्थान पर हाथियों की भव्य और विशाल मूर्तियों को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक तो चुनाव सर पर हैं और दूसरे हाथी मायावतीजी की पार्टी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिन्ह है. माजरा यह है कि इस घोषणा से चुनाव आयोग अपनी बुद्धिमत्ता को सिद्ध नहीं कर पा रहा क्योंकि मायावतीजी के हाथी के इर्द-गिर्द मुलायम की सायकिल तो शहरों और गाँवों में घूम ही रही है, कांग्रेस का "हाथ" भी जन-जन की कलाई पर चस्पां है. और फिलहाल चुनाव आयोग के पास इतने दस्ताने नहीं दीखते कि आयोग मुल्क के इस सबसे आबाद प्रदेश के सारे रहवासियों के हाथ ढांप सके. फिरभी आयोग मुंहकी खाने को तैयार नहीं है. वह हाथियों को चादर ओढ़ाने की जुगत में लगा है. वह चाहता है कि भीषण सर्दी में लोग उसके इस कदम को उसके 'पशुप्रेम' के रूप में देखें. लेकिन लोग हैं कि उसे नक्कार-खाने में तूती से ज्यादा अहमियत देने को तैयार ही नहीं हैं. बसपा तो उसकी ऐसी अनदेखी कर रही है कि मायावतीजी कहीं चुनाव वाले दिन वोट देने हाथी पर बैठ कर ही न चली आयें. तर्क-शास्त्र के सारे पोथे तो उनके साथ हैं ही. सोनियाजी 'हाथ' शॉल में ढक कर थोड़े ही आएँगी.तो आखिर आयोग क्या कहकर [कुछ लोग खाकर भी कह रहे हैं] मायावतीजी को रोकेगा?   

Wednesday, January 18, 2012

यह "प्रथा" किसका भला करती है ?

जबसे दुनिया बनी है, इन्सान के साथ जो दुःख जुड़े हैं उनमें सबसे बड़ा दुःख है जीवन की समाप्ति- यानी कि मौत. यह दुःख चाहे जाने वाले को न होता हो, पर बाद में रह जाने वाले परिजनों को ज़रूर होता है. शायद इसीलिए मृत्यु के बाद सभी सम्बन्धियों के तुरंत इकठ्ठा हो जाने का रिवाज़ है. न जाने इस रिवाज़ के मूल में क्या कारण रहा होगा? शायद ऐसे ही कुछ कारण रहे हों- सब परिचित देख लें कि जीवन का अंत क्या है. सब परिचितों को देख कर मृतक के निकट रिश्तेदारों को ढाढस मिले. मौत के बाद शव के निस्तारण में सभी का सहयोग मिले. रिश्तों के पुनरीक्षण का अवसर मिले. जाने वाले की चल-अचल संपत्ति को विरासत मिले. संतान को सामाजिक वरिष्ठता मिले. दुःख और दुखियों को प्रत्यक्ष देखने का अवसर मिले. मृत्यु प्रमाणपत्र को सनद और सामूहिक साक्ष्य मिले.
इसके साथ-साथ इस प्रथा को निरंतर निभाए चले जाने पर कुछ सामूहिक प्रभाव भी देखने को मिलते हैं. जैसे- आकस्मिक, अनियोजित, हड़बड़ी व रिस्क में की गई यात्रायें.कई निजी, कार्यालयीन व व्यापारिक कार्यों का अकस्मात् ठप्प हो जाना. शोक-संतप्त परिवार पर अतिथियों के रहने-खाने की व्यवस्थाओं का दायित्व आ जाना. ढेरों लोगों का हर काम के लिए अवांछित जमघट हो जाना. धार्मिक विधियों के नाम पर परिजनों का भावनात्मक शोषण.
यदि हम इन प्रभावों पर भी स्वस्थ और संतुलित विचार कर लें तो शायद जीवन के इस "अनिवार्य"अंत को थोडा संतुलित दृष्टिकोण से स्वीकार और सह सकें.  

Tuesday, January 17, 2012

"आधार"अर्थात यूनिक पहचान पत्र पर अब तक हुई कार्यवाही संदेह के घेरे में

कुछ समय पहले जब सरकार ने यह घोषणा की थी कि भारत में सभी को प्रामाणिक पहचान पत्र दिए जायेंगे, तो सबका खुश होना स्वाभाविक था. क्योंकि राशन कार्डों की प्रामाणिकता जगजाहिर है. जब यह पत्र बनने शुरू हुए तब भी अच्छा लगा कि इनके लिए कोई ज्यादा पेचीदा प्रणाली नहीं है और यह आसानी से बन रहे हैं. लेकिन शायद पेचीदा प्रणाली न होना ही इन की विश्वसनीयता के लिए चुनौती बन गया. देखते-देखते ख़बरें आने लगीं कि कई अवांछित तत्व भी धडाधड यह कार्ड बनवाए ले रहे हैं. यहाँ तक कि तथाकथित 'बांग्लादेशी' घुसपैठिये भी इनके ज़रिये खुलेआम देश की नागरिकता लेते देखे गए. इनके लिए लगी लम्बी कतारों ने इनके लिए नौकरी पेशा वर्ग को दफ्तरों से छुट्टी लेने को मजबूर कर दिया. अपनी पढाई के लिए शहर छोड़ कर गए बच्चों के लिए यह पहचान पत्र बनवाना ना-मुमकिन हो गया.दूसरी ओर कहीं कुछ न करने वाले निठल्ले लोगों के लिए इन्हें लेना सुगम हो गया. देखते-देखते व्यस्त भारत तो इनके लिए चक्कर काटता  देखा जाने लगा, और निठल्ले भारत के लिए यह बाएं  हाथ का खेल हो गए.
लेकिन खुश किस्मती  से यह हकीकत समय रहते सामने आ गई. देखें, अब इसके लिए क्या हल निकालती है सरकार, ताकि इनकी विश्वसनीयता बनी रहे, और वास्तविक नागरिक इनके लिए अकारण धक्के न खाएं.   

Saturday, January 14, 2012

कलेंडरों के भगवान का डिस्पोजल

नया साल आते ही और नयी चीज़ों के साथ-साथ दीवारों के कलेंडरों को भी बदला जाता है. कुछ लोग श्रद्धा के अतिरेक में इन कलेंडरों पर भगवान माने जाने वाले देवी-देवताओं के चित्र छाप देते हैं. फिर अनन्य श्रद्धा के साथ ही इन्हें लगाया जाता है. वर्ष भर ये धार्मिक भावना का पोषण भी करते रहते हैं. मुझे याद है, मेरा एक मित्र कमरे में जब कपडे बदलता था, तब भी वह भगवान का चित्र उलट देता था. यह एक प्रकार से उसके अमूर्त विश्वास की मूर्त परिणिति ही थी.
ऐसे में जब साल बीत जाता है, तब यह समस्या आती है कि अब इस तथाकथित भगवान का क्या किया जाय ?यदि चित्र नया सा या सुरक्षित है तो उसे पूजा-स्थल पर रख दिया जाता है. पर हर चित्र के लिए ऐसा नहीं किया जा पाता.ऐसे में अपने भगवान का निस्तारण एक उलझन बन जाता है. क्या आपके पास इस उलझन का कोई समाधान है? या फिर कोई ऐसा तर्क, जो इन "भक्तों"को आसानी से समझाया जा सके, और ये अपने भगवान के बेवजह कसूरवार न बनें. 

चीन की महत्वाकांक्षा के भारतीय साइड इफेक्ट्स

वैसे अब भारत में विचारधाराओं की उलट-पलट कोई अजूबा नहीं है. लगभग सभी पार्टियाँ राजनीति की थाली में बिना पैंदे के लोटों के समान रखी हुई हैं. हल्का सा भी ढलान जिधर हो, वही उनकी मंजिल है. कुछ चेहरे तो ऐसे हैं, कि नित-नए पैंतरे ही उनकी कुल ताकत हैं. मीडिया भी ऐसे चेहरों का मेक-अप मैन है.सरकार अल्पमत की है, यह उसकी मजबूरी है कि सांपनाथ या नागनाथ, जो मिलें उन्हें बगल में बैठाना है.
ताज़ा घटनाक्रम कम्युनिस्टों को लेकर है. रशिया की धूल बैठने पर ये लगभग अनाथ हो गए थे. पर अब चीन की मंद-मंद बयार इनके मुर्दों में जान फूंकने लगी है. उधर भारत में पांच राज्यों के आम-चुनाव को मिनी लोकसभा चुनाव कहा जा रहा है. ऐसे में कांग्रेस की बंसी की धुन इनके कानों को रसीली लगने लगी है. ये उसके आगे फिर नाचने लगे हैं, और इनकी थिरकन देख कर कांग्रेस भी पुरानी मोह-ममता भूलने लगी है.   

जड़ता तोड़ने,जुआ खेलने,अम्बर मथने और रिश्ते टटोलने का पर्व

सूरज रास्ता बदल रहा है. क्या यह कोई छोटी बात है? सूरज का तो सातवाँ घोडा तक धरती पर खासी अहमियत रखता है. पिछले कई दिनों से बर्फीले मौसम से जिंदगी में आई जड़ता आज की धूप में  कसमसा कर टूटने वाली होती है. जिंदगी से उदासीन लोग नए दांव-पेंचों के लिए फिर से पांसे फेंकने को आतुर हो उठते हैं. आसमान में पतंगें उडती हैं. युवा पीढी जैसे अन्तरिक्ष को नयी उमंगों के लिए जगाती है. महकते व्यंजनों से होती अतिथियों की अगवानी रिश्तों की रेत बुहार कर नजदीकियों की राह बनाती है.ऐसे मनता है मकर संक्रांति का पर्व.
  

Friday, January 13, 2012

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सलमान रुश्दी

एक पुरानी फिल्म का गीत है-आने से उसके आये बहार, जाने से उसके जाये बहार...आजकल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक सलमानरुश्दी को लेकर लगभग इसी तरह की कशमकश में हैं. ताज्जुब इस बात का है, कि लिटरेचर फेस्टिवल क्या कोई राजनैतिक सम्मलेन है जिसमें पांच राज्यों में होने वाले चुनावों की वोट-गणित देख कर मेहमान बुलाये जायेंगे?
एक ओर तो यह फेस्टिवल पिछले कुछ वर्षों में "साहित्य" को युनिवर्सल समझने की प्रेरणा देने का काम करता रहा है, दूसरी ओर खुद ही संकीर्णता की दलदल में फंसने की कगार पर है. इसे ऐसे विवादों से बचाए रखने की पूरी कोशिश होनी चाहिए.  

Thursday, January 12, 2012

यह इन बातों का युग नहीं है फिर भी

अभी पूरे सात महीने बाकी हैं जब भारत को अपना नया राष्ट्रपति चुनना है. राष्ट्रपति का पद अभी ख़ाली भी नहीं है.बाकायदा ससम्मान चुनी गई महामहिम प्रतिभा पाटिल इस पद को सुशोभित कर रही हैं. ऐसी भी दूर-दूर तक कहीं कोई संभावना नहीं है कि वे किसी भी कारण से अपने पद पर बने रहने में असमर्थ होंगी.
लेकिन मीडिया को उतावली है. ठीक वैसी ही उतावली, जैसी किसी भूखे इंतजार करते हुए व्यक्ति को होटल में मेज़ पर खाना खाते दूसरे व्यक्ति को  देख कर हो सकती है, कि कब यह उठे और मैं बैठूं.
मीडिया ने अपने बेसिरपैर के कयास लगाने शुरू कर दिए हैं. मीडिया को 'प्रणव मुखर्जी' इस दौड़ में सबसे आगे भागते दिखाई दे रहे हैं. सभी को याद होगा, कि मीडिया ने ऐसी ही उतावली एक बार तब भी दिखाई थी, जब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देश की बागडोर संभाल सकने वाले शख्स की अटकलें लगाईं जा रही थीं. तब भी प्रणव  जी का नाम बेवज़ह उछाला गया था.इसका नतीजा यह हुआ कि "वुड बी" हाईकमान की भ्रकुटियाँ अकारण प्रणव जी के लिए तन गईं, और उनका ग्राफ कांग्रेस में इस तेज़ी से गिरा कि बेचारे प्रणव जी को दोबारा अपनी साख बनाने के लिए लगभग दूसरा जन्म ही लेना पड़ा. एक बार तो वे दरकिनार कर ही दिए गए थे.
मीडिया के ऐसे कयास प्रणव जी को नुक्सान पहुँचाने वाले तो  हैं ही, ये वर्तमान राष्ट्रपति को भी अपमानित करने वाले हैं. ऐसे मीडिया कर्मी 'लूज़ शंटिंग' के लिए खुले नहीं छोड़े जाने चाहिए. ये कभी हामिद अंसारी को राष्ट्रपति बना रहे हैं तो कभी डॉ कर्ण सिंह को. इनसे श्रीमती पाटिल इस पद पर बैठी देखी नहीं जा रहीं.
   

Wednesday, January 11, 2012

सीख

टीचर ने बच्चों को बताया-मित्रता की सबसे बड़ी मिसाल दूध और पानी की मित्रता है. जब पानी दूध में मिलता है तो दोनों इस तरह एकसार हो जाते हैं कि उन्हें अलग-अलग पहचान पाना भी मुश्किल है. पानी भी इस सच्ची मित्रता का मोल चुकाता है.जब इस मिश्रण को आग पर रखा जाता है, तो पहले पानी जल कर भाप बनता है, फिर दूध जलता है. जानते हो बच्चो, दूध और पानी की दोस्ती की यह मिसाल सैंकड़ों साल पहले महाकवि रहीम ने भी दी थी.बताओ, इस मिसाल से हमें क्या सीख मिलती है ?
एक बच्चे ने उत्तर दिया- 'कि सैंकड़ों साल पहले भी ग्वाले दूध में पानी मिलाते थे'.
यह ज़रूरी नहीं कि हम बच्चों को जो सिखा रहे हैं, वे वही सीख रहे हैं.   

Monday, January 9, 2012

ये षड़यंत्र है या सहयोग?

दुनिया दिनोंदिन  यांत्रिक होती जा रही है. अब आदमी जितना पुराना हो उतना ही नौसिखिया.जितना नया हो उतना ही सक्षम. वे दिन गए, जब बुजुर्ग लोग बैठ कर नए लोगों को ज्ञान की बात बताते थे.
कभी-कभी लगता है, यह तो अच्छा है, नई पीढी अपने आप बिना पुरानी पीढी की मदद लिए ही आगे बढ़ रही है. पर दूसरी तरफ कभी-कभी यह भी लगता है कि आज जो कुछ ज्ञान उपलब्ध है वह उसी पीढी की मेहनत का ही  तो परिणाम है जो अब 'देकर' ओझल हो गई. ऐसे में इस उपलब्धि का श्रेय केवल नई पीढी को कैसे दिया जाय?
किसी बगीचे में डालियों पर कूद-कूद कर फल खाने वाले बन्दर को भला यह कहाँ मालूम होता है कि पेड़ किसने लगाया, इसमें पानी किसने दिया, इसकी रखवाली किसने की?
लेकिन बन्दर फल न खाए तो फिर गुज़रे ज़माने के लोगों की मेहनत भी किस काम की?   

Sunday, January 8, 2012

विचारों का भी तापमान होता है, टेम्प्रेचर के भी विचार हो सकते हैं

परसों मैं एक छोटे से गाँव में था, जो उत्तर भारत के एक पिछड़े जिले में है. गज़ब की ठण्ड पड़ रही थी,दोपहर के बारह बजे भी घना कोहरा था. ओस रातभर गिरी थी और उसके बाद हलकी वर्षा भी.
छोटे से गाँव में किसी कार्यक्रम के लिए लम्बा चौड़ा शामियाना और भव्य मंच देख कर मुझे अचम्भा हो रहा था कि हजारों की क्षमता वाले इस पंडाल में गीले रास्तों और कंपकंपाने वाली ठण्ड के मौसम में कौन आकर बैठेगा?बैठने के लिए बिछी दरियां तक कहीं से गीली और कहीं से सीली थीं. मंच से थोड़ी दूर पिछवाड़े में लगे एक छोटे से टेंट में बैठ कर चाय पीते हुए मुझे यह देख कर हैरानी हुई कि थोड़ी ही देर में झुण्ड-जत्थों और हुजूम की शक्ल में शामियाने में लोग भरने लगे. मुझे क्षमा करें, मुझे लोगों की उत्कंठा और जिजीविषा का सम्मान करते हुए कहना चाहिए कि लोगों का "आगमन" होने लगा. जब गाँव की जनसँख्या से भी ज्यादा लोग आते दिखाई दिए, तो पूछने पर मुझे बताया गया कि आस-पास के गाँव-कस्बों से भी लोग आ रहे हैं. टोपियों,दुशालों में अपने को ढांपते-छिपाते लोग आये चले जा रहे थे.
सुसज्जित मंच पर चढ़े हम चंद लोगों के पास इन लगभग दस-हज़ार लोगों को देने के लिए कुछ नहीं था. हमारी जेब में कुछ सपने थे, जिन्हें हमें केवल इस शर्त पर बाहर निकालना था कि भीड़ की जेबों में इन सपनों की कीमत हो.
कार्यक्रम शुरू हो गया. अपने पैंतीस मिनट के भाषण के दौरान लगातार मुझे लगता रहा कि लोग हकीकतों के लिए फ़कीर हैं, सपनों के लिए तो उनकी अंटी में बहुत माल है.लगातार तालियाँ बजाना, न जाने उन्हें ठण्ड में राहत दे रहा था या फिर वह विचारों का तापमान था.
उस भीड़ के कई चेहरे,कई आँखें और कई साए मेरे साथ चले आये हैं. कहीं मेरी नींद में अब खलल न पड़े. कहते हैं कि सपनों के सौदागरों के लिए बिना सपनों की गाढ़ी नींद बहुत ज़रूरी है. 

Wednesday, January 4, 2012

प्रवासी भारतीय केवल वह नहीं देखेंगे जो हम उन्हें दिखाएँ,उनकी नज़र अपने देश पर हरपल रहती है

आज शाम जयपुर विमानतल से शहर  आने वाली सड़क पर बेहद आकर्षक साज-सज्जा दिखाई दी. गाँधी सर्कल पर रौशनी गाँधी जयंती से भी ज्यादा नयनाभिराम थी. सड़क का रंग-रोगन व हरियाली भी.
जयपुर शहर में प्रवासी भारतीय सम्मलेन में भाग  लेने के लिए दुनिया भर से मेहमानों  का आना शुरू हो चुका है.
उधर कुछ प्रवक्ता और अख़बारों के नुमाइंदे ऐसे भी हैं जिन्हें सत्ताधारी दल 'विपक्ष'कहता है. उन्होंने मीडिया के माध्यम से लोगों को बताना शुरू कर दिया है कि प्रवासी भारतीयों से पहले किये गए वादे अभी तक पूरे नहीं किये गए हैं. कुछ व्यक्तिगत मामले भी सुर्ख़ियों में लाये गए हैं, जहाँ निवेश करने वाले प्रवासी भारतीयों को परेशानी का सामना करना पड़ा.
देखना यह है कि दोनों में से कौन सा पक्ष "परदेसियों से अँखियाँ मिलाने " में कामयाब रहता है. हर हाल में इतना तो तय है कि मेहमान लोग दो दिन की बरसात में भीगने वाले नहीं हैं. वे देश में सावन का पूरा सीजन देखेंगे. उन्हें सूखे पेड़ सब्ज़ पत्ते लुभाने वाले नहीं हैं.
देखें उन्हें क्या पसंद आता है? हरियाली या रास्ता.   

Monday, January 2, 2012

इस देश ने देखे हैं प्रजा वत्सल शासक

बरसों पहले एक राजा था, जिसकी रानी सुन्दर न थी. राजा ने एक दूर देश की राजकन्या के रूप के चर्चे सुने और वह वेश बदल कर उसकी तलाश में निकल गया. रानी महल में अकेली रह गई.
रानी विरह वेदना में जलती, और महल की छत पर बैठी जिस-तिस को अपना दुखड़ा सुनाती. एक दिन उसने एक कौवे और भंवरे को रोक कर उनसे निवेदन किया कि वे राजा  के पास जाएँ,और उनसे कहें कि महल में एक स्त्री के जलते रहने से धुआं उठता है, जिससे उनका बदन काला पड़ गया है,राजा अपनी प्रजा का बहुत ख्याल रखने वाले हैं, वे ज़रूर कुछ करेंगे.
ऐसे कथानक आज एक बार फिर प्रासंगिक हो गए हैं, क्योंकि अब राजा न तो प्रजा के भूखे रहने की चिंता करते हैं, और न उसके इकट्ठे होकर 'न्याय-न्याय' चिल्लाने की.
एक नया साल हमें और मिल गया है. हमें कुछ आशाएं और मिल गई हैं. हमें कुछ सपने और मिल गए हैं. आइये, अपने भीतर बैठे चितेरे का आह्वान करें कि वह इन सपनों में रंग भरने के लिए अपनी तूलिका उठाये. अपने मन के भीतर बैठे सुर-साज़ को जगाएं, कि वह कोई नया राग गाये.  

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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