आज एक विद्यार्थी ने मुझसे एक ऐसा सवाल पूछा, जिसका उत्तर उसे दे देने के बावजूद मैं अपने से संतुष्ट नहीं हूँ.
उसने मुझसे पूछा कि कुछ धन के लिए एक वृद्धा के पैर काट कर उसके चांदी के कड़े निकाल कर उसे जान से मार देने वाला एक शख्स अब जेल में है, यहाँ उसकी सुख-सुविधा, आज़ादी, चिकित्सा सुविधा, खाने-पहनने की सुविधा तथा मनोरंजन को लेकर उसके मानव अधिकार क्या-क्या हैं?
प्रश्न अपने आप में मानवता के माथे का कलंक सरीखा है. वृद्धा अब परलोक में है, उसे इस धरती के किसी न्याय-अन्याय से अब कोई सरोकार नहीं है.वृद्धा का परिवार और उसके वंशज अब भी इसी दुनिया में हैं, उनके मानस पर जो न मिटने वाले ज़ख्म हैं, उनपर वही 'क्रूरता' थोड़ा बहुत मरहम लगा सकती है, जो कातिल को न्याय के मंदिर में दी जाएगी.
क्या ऐसे में पीड़ित के परिवार को "बदले की भावना मत रखो", "जो हुआ उसे भूल जाओ, भगवान की यही मर्जी थी", "क्षमाशील बनो", आदि-आदि कह कर हम अब जेल में उस अपराधी को 'पर्याप्त भोजन, दवाइयां, वस्त्र, मनोरंजन' आदि का हक़ देकर उसके 'मानव अधिकारों' के प्रति सचेष्ट हो जाएँ?
मैंने उस किशोर विद्यार्थी से कहा- उस अपराधी ने उस वृद्धा के साथ जो कुछ किया, वह उन क्षणों में किया, जब परिस्थिति-वश वह "कुछ देर के लिए मानव न रहा". उसके मस्तिष्क का एक क्रूर पशु के रूप में रूपांतरण हो गया. ऐसे में उसके पशुत्व को पुनः मानवता में बदला जाना कानून की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि भविष्य में और मनुष्य उसकी पशुता के शिकार न बनें . इस प्रक्रिया में उसके इन्सान के रूप में सारे अधिकार उसे दिए जाने चाहिए.साथ ही उसके द्वारा हानि पहुंचाए गए परिवार के कष्टों को मुआवजा, सहानुभूति,न्याय, नौकरी, अन्य-सुविधाएँ आदि देकर सामाजिक व राष्ट्रीय क्षमा उस परिवार से मांगी जाय.
क्या मैंने उस बच्चे से ठीक कह दिया?
उसने मुझसे पूछा कि कुछ धन के लिए एक वृद्धा के पैर काट कर उसके चांदी के कड़े निकाल कर उसे जान से मार देने वाला एक शख्स अब जेल में है, यहाँ उसकी सुख-सुविधा, आज़ादी, चिकित्सा सुविधा, खाने-पहनने की सुविधा तथा मनोरंजन को लेकर उसके मानव अधिकार क्या-क्या हैं?
प्रश्न अपने आप में मानवता के माथे का कलंक सरीखा है. वृद्धा अब परलोक में है, उसे इस धरती के किसी न्याय-अन्याय से अब कोई सरोकार नहीं है.वृद्धा का परिवार और उसके वंशज अब भी इसी दुनिया में हैं, उनके मानस पर जो न मिटने वाले ज़ख्म हैं, उनपर वही 'क्रूरता' थोड़ा बहुत मरहम लगा सकती है, जो कातिल को न्याय के मंदिर में दी जाएगी.
क्या ऐसे में पीड़ित के परिवार को "बदले की भावना मत रखो", "जो हुआ उसे भूल जाओ, भगवान की यही मर्जी थी", "क्षमाशील बनो", आदि-आदि कह कर हम अब जेल में उस अपराधी को 'पर्याप्त भोजन, दवाइयां, वस्त्र, मनोरंजन' आदि का हक़ देकर उसके 'मानव अधिकारों' के प्रति सचेष्ट हो जाएँ?
मैंने उस किशोर विद्यार्थी से कहा- उस अपराधी ने उस वृद्धा के साथ जो कुछ किया, वह उन क्षणों में किया, जब परिस्थिति-वश वह "कुछ देर के लिए मानव न रहा". उसके मस्तिष्क का एक क्रूर पशु के रूप में रूपांतरण हो गया. ऐसे में उसके पशुत्व को पुनः मानवता में बदला जाना कानून की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि भविष्य में और मनुष्य उसकी पशुता के शिकार न बनें . इस प्रक्रिया में उसके इन्सान के रूप में सारे अधिकार उसे दिए जाने चाहिए.साथ ही उसके द्वारा हानि पहुंचाए गए परिवार के कष्टों को मुआवजा, सहानुभूति,न्याय, नौकरी, अन्य-सुविधाएँ आदि देकर सामाजिक व राष्ट्रीय क्षमा उस परिवार से मांगी जाय.
क्या मैंने उस बच्चे से ठीक कह दिया?
बहुत जटिल प्रश्न है मगर आपका सुझाव काफी सुलझाव लिये है।
ReplyDeleteDhanyawad
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