Thursday, December 15, 2011

सेवक महान या पालक

हम १९४७ से पहले सेवक थे. १९४७ में आम आदमी को राजा और शासकों को लोक-सेवक कहने वाला लोकतंत्र आया. धीरे-धीरे लोक-सेवकों की 'सेवा' से देश त्रस्त होने लगा.आखिर सेवक शब्द से हमारा मोह-भंग हो गया. हमें लगने लगा कि यह शब्द हमारा कुछ नहीं बना सकता, हमें कुछ नया चाहिए.
कुछ समय बाद हमें नया शब्द 'पाल' मिल गया. यह काफी निरापद था. इस से किसी का कुछ बिगड़ने की कोई आशंका नहीं थी. यह शब्द गौमाता जैसा सीधा-सादा था.राज्यपाल से कहीं, कभी, किसी को कोई खतरा नहीं हुआ, यह सेवा-निवृत्ति के बाद भी सम्मान-स्वरुप  सरकारी वेतन पाने वाला पद था. द्वारपाल तो बेचारा दरवाज़े के बाहर ही रहता है, वह किसी का क्या बिगाड़ सकता है.
कुछ गहराई से अन्वेषण करने वालों ने पाया कि यदि लोक-सेवक का लोक, और राज्यपाल का पाल लेकर एक नया 'गाइड' पहरे पर बैठाया जाय तो शायद कोई बात बने.
लेकिन तभी सरकार को महसूस हुआ कि सबको 'बनाने' का कार्य तो सरकार का है, कोई और किसी को कैसे बना सकता है? बस, सरकार ने आव देखा न ताव, यह ठान लिया कि चाहे कुछ हो जाय, लोकपाल जैसा कुछ नहीं बनाना. बनाना भी पड़ा, तो ऐसा ढीला-ढाला, कि वह भी सबका मौसेरा भाई ही हो.
कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि ग्वाला भैंस के आगे बीन बजाने में इतना तल्लीन हो जाता है, कि चोर कब भैंस खोल ले गए, यह उसे पता ही नहीं चल पाता.
कहीं ऐसा न हो कि सरकार अन्ना के चारों ओर चक्कर काटने में ही रमी रहे और उधर 'विकीलीक्स' सरकार के अंकल-लोगों की पासबुक जनता को दिखाने लग जाये? ये वाली नहीं, "वो" वाली.        

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