भारत के गांवों और शहरों में कई प्रथाएं पूरी तरह सड़ी-गली होने के बावजूद भी केवल इसलिए ढोई जा रही हैं, क्योंकि इन्हें बनाये रखने के पीछे चंद सौदागरों का हाथ है.आजभी कई गाँवों में मृत्युभोज बड़े पैमाने पर आयोजित हो रहे हैं. यदि कोई समझदार व्यक्ति इसे टालने की सोचता भी है तो उसे गाँव के वे व्यापारी यह कह कर रोकते हैं कि सारे गाँव को खिलाने की ये रीत मत छोड़ो, यदि तुम्हारे पास नहीं है तो उधार हम देंगे.दहेज़ सारे समाज का नासूर होने पर भी लिया और दिया जा रहा है.शादियों के मौसम में यह व्यापारियों की दुधारू गाय है.
किसी के दिवंगत हो जाने के बाद उसकी मिट्टी चाहे क्षण-भर में पञ्चतत्व में विलीन हो जाये, व्यापारी उसका उठावना, तिया, पांचा, दसवां, बारवां, तेरहवां, मासी, छटमासी, बरसी और पुण्यतिथि मना कर ही छोड़ते हैं, और सब क्रियाओं में दनादन माल बेच कर ही मानते हैं.देशभर के छोटे बड़े मंदिरों की पद-यात्रायें इन्हीं व्यापारियों की बदौलत सम्पन्न होती हैं.
इन्हीं व्यापारियों को शायद खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर एतराज है.यदि वे ऐसा सोचते भी हैं, तो यह गलत नहीं है. सभी को अपना हित सोचने का अधिकार है.
लेकिन इस से जितना उनका नुक्सान वे सोच रहे हैं, उतना होगा नहीं.
किसी के दिवंगत हो जाने के बाद उसकी मिट्टी चाहे क्षण-भर में पञ्चतत्व में विलीन हो जाये, व्यापारी उसका उठावना, तिया, पांचा, दसवां, बारवां, तेरहवां, मासी, छटमासी, बरसी और पुण्यतिथि मना कर ही छोड़ते हैं, और सब क्रियाओं में दनादन माल बेच कर ही मानते हैं.देशभर के छोटे बड़े मंदिरों की पद-यात्रायें इन्हीं व्यापारियों की बदौलत सम्पन्न होती हैं.
इन्हीं व्यापारियों को शायद खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर एतराज है.यदि वे ऐसा सोचते भी हैं, तो यह गलत नहीं है. सभी को अपना हित सोचने का अधिकार है.
लेकिन इस से जितना उनका नुक्सान वे सोच रहे हैं, उतना होगा नहीं.
aapki rachnatmak sakriyta aur sakriy rachnatmakta, dono ka samanjasy prabhavi hai, dhanywad.
ReplyDeleteबिलकुल सही कह रहे हैं सर!
ReplyDeleteसादर
बहुत सच कहा है...
ReplyDeletedhanywad, dua keejiye ki duniya 'sach' ko achchha samajhti rahe.
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