रोटी कपड़ा और मकान किसी ज़माने में इंसान के लिए मूलभूत ज़रुरत माने जाते थे. जिसे ये तीनों चीज़ें मिल जाएँ, उसका दर्ज़ा संतुष्ट आदमी का माना जाता था.
आपको लग रहा होगा कि यह तीनों चीज़ें तो अब भी मौलिक आवश्यकता हैं. नहीं,रोटी अब करोड़ों घरों की रसोई से निकल गई है.कई लोगों के नसीब से निकल गई है.मज़े की बात यह है कि ऐसे लोग रोटी के लिए नहीं तरस रहे,बल्कि रोटी ही उनके लिए तरस रही है.यह भुखमरी का मामला नहीं है,बल्कि सम्पन्नता की बात है.कपड़ा भी शौक की बात बन गया है.तन ढकने के लिए कोई नहीं पहनता,तन उभारने के लिए चाहिए. और मकान? वह अब सर छुपाने की जगह नहीं है,खरीदने-बेचने और मुनाफा कमाने का जरिया है.
तो फिर मूल ज़रूरतें क्या हैं?
एक राजा के चार पुत्र थे.राजा ने एक दिन बैठे-बैठे उनसे पूछ लिया- तुम मुझसे क्या चाहते हो?बारी-बारी से बताओ.सबसे बड़ा बेटा बोला-कोई ऐसा बंदोबस्त कर दीजिये, कि ज़िन्दगी भर रोटी मिलती रहे.राजा जवाब से काफी प्रसन्न हुआ.दूसरा बेटा बोला-कोई शानदार सी राजसी पोशाक दीजिये.राजा को अच्छा लगा. तीसरे पुत्र ने कहा-आपसे एक शानदार महल मिल जाये तो आनंद आ जाये.राजा आनंद से भर गया.
अब सबसे छोटे पुत्र की बारी थी.वह बोला-मैं चाहता हूँ कि अगले जन्म में आप मेरे पुत्र के रूप में पैदा हों.राजा क्रोध से आग-बबूला हो गया.बोला-मूर्ख,मैं तुझसे कुछ मांगने को कह रहा हूँ,और तू मुझे जन्म 'देने' की बात करता है?
मूलभूत ज़रूरतें न रहें तो आदमी खुराफातें सोचता है.और अगर सोचने की शक्ति खो दे तो मूलभूत ज़रूरतें खो देता है,आज के इंसान की तरह.
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