Monday, August 1, 2011

दक्षिण अमेरिका में दो-फाड़ है सुन्दरता भी

केवल दक्षिण अमेरिका में ही क्यों, हर कहीं ऐसा है. ब्राजील और अर्जेंटीना हों, चाहे उरुग्वे और पराग्वे, वहां आपको व्यक्तित्व की दो-रूपता ज्यादा मिलेगी. कोई यह सवाल उठा सकता है कि आखिर ऐसा किस आधार पर कहा जा सकता है?चिली और वेनेज़ुएला भी अपवाद नहीं हैं. 
अब आगे कुछ कहने से पहले मैं आपको यह बता दूं, मैंने ऐसा कहने के लिए किन बातों को आधार बनाया है. मैं केवल तीन बातों को देख कर निकाले गए निष्कर्ष आपके सामने रख रहा हूँ. 
१.विश्व-स्तरीय सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में आज जो भी मानदंड स्थापित हैं, वे इन देशों की स्थानीय स्पर्धाओं से सबसे ज्यादा मिलते-जुलते हैं.आज जिस तरह केवल शारीरिक या मांसल बातों को लेकर व्यक्तित्व नहीं आंके जा सकते,वह परिपाटी दशकों पहले दक्षिणी अमेरिका, जापान ,थाईलैंड जैसे देशों ने आत्मसात कर ली थी.ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं जब इन देशों ने सौन्दर्य की निर्णय-प्रणाली निर्धारित करवाने में पहल की. 
२. 'पुरुष सौदर्य' की अवधारणा भी इन देशों और यूनान की देन है.शक्ति और मेधा को व्यक्तित्व का अहम् हिस्सा बनाने में यूनानी संस्कृति, दक्षिण अमेरिकी मान्यताएं और फ़्रांस के नज़रिए का योगदान है. यहाँ मानवीय ग़ोश्त मात्र को मानसिकता की विलक्षणता के साथ ही स्वीकार किया गया है. 
३. यदि हम 'जिस्म की तिजारत' जैसे शब्द प्रयोग करें तो यह एक निहायत ही हल्कापन होगा, पर जिस्म का मोल इसी भूमि पर सबसे पहले पहचाना गया है. एक कलुष के रूप में नहीं, बल्कि एक संसाधन के रूप में व्यक्ति को स्वीकार करने में भी इन्ही देशों की पहल रही है.
 "चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल. एक तूही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल."
 जैसी पंक्तियाँ चाहे भारत में लिखी गई हैं, किन्तु इनकी उद्गम-प्रेरणा पेरू, चिली या वेनेज़ुएला की रूपसियों के वे आकर्षक पोस्टर्स ही हैं जो इन देशों से आने वाली विश्व-सुंदरियों ने अपार लोकप्रिय बनाए हैं.       

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...