यह विज्ञापन किसी राजमार्ग प्राधिकरण या हाइवे आथोरिटी की ओर से नहीं है.यह तो उन शोधार्थियों की तलाश में दिया जा रहा है, जो एक गंभीर विषय पर शोध कर सकें. ऐसी जनोपयोगी शोध, जैसी कभी मनोज कुमार ने की थी और यह निष्कर्ष निकाला था कि- "कबीरदासजी कहते हैं कि ये दुनिया एक नम्बरी है, तो मैं दस नम्बरी हूँ " यह शोध काफी पापुलर रही.
हम इसी स्तर की शोध उन रास्तों के बारे में चाहते हैं, जिन पर कबीर चले.शोधार्थी को घाट-घाट का पानी पीकर,दर-दर की ठोकरें खाकर और नौ दिन में अढाई कोस चलकर यह पता लगाना होगा कि संत कबीर कहाँ-कहाँ गए? यह काम दिखने में जितना सरल है, करने में उतना ही कठिन. क्योंकि उन दिनों न तो ट्रेवल एजेंसियां होती थीं, जो कबीर के दौरों का कोई अभिलेख उपलब्ध करवातीं और न ही कबीर के पास कोई निजी- सचिव होता था जो यह बताता कि वे कब कहाँ थे. कबीर की यायावरी तो मनमर्जी की थी.
फिरभी यह पता लगाना बहुत ज़रूरी है कि वे कहाँ-कहाँ गए, किन रास्तों से गुज़रे? शोधार्थी को मूल-रूप से यह पता लगाना होगा कि-
[क] कबीर जिन रास्तों से गुज़रे वे सड़क थी, पगडण्डी थी या कच्ची रहगुज़र थी.
[ख] कबीर आबादी वाली बस्ती से गुज़रे या वीरान रेगिस्तानों में भटके.
[ग] यात्रा के दौरान जो लोग कबीर को मिले वे कौन थे, गाँव के थे या शहरी, किस जाति या धर्म के थे, आदि-आदि.
अनुसंधानकर्ता यह अवश्य जानना चाहेंगे कि उनकी खोज को किस काम में लिया जायेगा. क्या वह सदन के पटल पर चर्चा के लिए रखी जाएगी?
आपको बता दें, यह शोध परियोजना यह पता लगाने के लिए प्रायोजित की जा रही है कि आखिर कबीर ने कहाँ जाकर और क्या देख कर ये पंक्तियाँ लिखीं-
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय "
अपने देश के उस अतीत को हमारा नमन. उस युग को हमारा सलाम, उन रास्तों और बस्तियों की जय.
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