यदि दे सके, एक "सुबह" दे
चूल्हा जलाती माँ भी हो
अखबार पढ़ते पिता भी दे
मुझे खेलने को बुला रहे
मेरे दोस्त दरवाज़े पे हों
कुत्ता गली का या हवा
सब बेतकल्लुफ आ सकें
चिड़ियों से चहका सहन हो
बस्ता लगाती बहन हो
हों छत पे पापड़ सूखते
आँगन में रखे अचार हों
मेरी बाल उनको आ लगे
दादी की फिर फटकार दे
जरा धूप फिर आँगन में हो
बरसात फिर सावन में हो
लौटाले ये सारी उमर
मुझे वो ही दिन दो-चार दे
यदि दे सके एक सुबह दे
ओ कायनात की सल्तनत के अजीमोशां आलमपनाह
बहुत सुन्दर रचना , बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर कामना, लेकिन क्या यह खालीपन कभी भरा जा सकता है? टूटे मोती जुडते नहीं हैं, बीते हुए दिन मुडते नहीं हैं।
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