क्या हमारे पास कोई ऐसा मानदंड है जो यह सिद्ध कर सके कि यह कैसा समय है.क्या किसी तरह यह पता चल सकता है कि हम अपने पहले गुज़र चुके इंसानों की तुलना में कैसे हैं?
मुझे लगता है कि यह समय पहले बीत चुके सारे 'समयों' से अच्छा होना चाहिए.क्योंकि यह है.बाकी सारे चले गए.यह भी चला जायेगा,लेकिन तब जो आएगा वह और भी बेहतर होगा.हम सब भाग्यशाली हैं,कि कोई न कोई समय हमेशा रहता है,बिना समय के दुनिया कभी नहीं रहती.
एक बार ऐसे ही बैठे-बैठे रात और दिन में बहस हो गई.रात दिन से बोली-जैसे ही मैं जाती हूँ,तू आ जाता है.दिन इस आक्षेप से बौखला गया.पलट कर बोला-जा जा,जैसे ही मैं आता हूं तू भाग जाती है.इस बहस-मुबाहिसे का कोई
अंत नहीं था.न ही वहां कोई ऐसा था जो माकूल फैसला दे सके.दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने की सोचने लगे.रात
सोचती,किसी दिन मैं चली जाऊं,और यह न आ पाए तो इसे सुनाऊं.उधर दिन को लगता,किसी दिन मैं आऊं और यह न मिले तो इसे आड़े-हाथों लूं.
इस बेकार की बहस से और तो कुछ न हुआ,इतना ज़रूर हुआ कि हमारे कोर्ट-कचहरियों ने फैसले करने का ढंग ज़रूर सीख लिया.
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