Wednesday, August 31, 2011

गणेश ने की मनोकामना पूरी

एक बार एक चूहे की दोस्ती हाथी से हो गई.दोनों पक्के दोस्त बन गए.
कुछ दिन बाद चूहे का जन्मदिन आया.हाथी को जैसे ही पता चला,वह बोला-मैं तुम्हारी बर्थडे पार्टी में ज़रूर आऊंगा.चूहे के पैरों तले ज़मीन खिसक गई.उसने सोचा,मैं अपने छोटे से बिल में इसे कैसे बुलाऊं.वह इनकार कर के दोस्त का दिल नहीं दुखाना चाहता था.फिरभी उसे मन मार कर चुप रह जाना पड़ा.
अगले दिन जब धूम-धाम से पार्टी शुरू हुई,चूहा केक काटने चला.उसने मोमबत्ती जलाने के लिए जैसे ही माचिस जलाई अचानक धुंए के साथ जोर से छींक की आवाज़ आई,और चूहा सब दोस्तों के साथ बिल से बाहर आया.वह ये देख कर ख़ुशी से झूम उठा कि उसके दोस्त हाथी ने आकर बिल पर सूंड रख दी थी.और धुंए से आई छींक ने दोस्तों को मिला दिया.
उसी दिन से चूहे ने हाथी को अपनी पीठ पर बैठा कर चलना शुरू कर दिया.

Tuesday, August 30, 2011

देखें कि गलत नंबर डायल न हो

सन २०२५ आपको यह ऑप्शन दे देगा.आप अपने घर की छत पर जाइए,पूरे शरीर पर हेलमेट की तरह बॉडी-कैप्सूल पहनिए,फिर एक मेज़ पर रखे डायल-बॉक्स में अपनी मनचाही छत का नंबर डायल कर दीजिये.और बैठ जाइये पास में लगी तोपनुमा कुर्सी पर.एक क्लिक के साथ आप "शूट"होकर अपने गंतव्य तक पहुँच जायेंगे.उतारिये हेलमेट और कीजिये अपना काम.
बड़े शहरों में दफ्तर आने-जाने का यह भरोसेमंद और सस्ता साधन होगा.

Monday, August 29, 2011

नजर,नक्षत्र,नसीब कौन से जहाँ की बातें हैं?

दर्ज़नों मवेशी हरे-भरे मैदान पर शांति से चर रहे थे.अचानक एक बाघ आ गया.भगदड़ मच गई.वह बाघ एक निरीह बेक़सूर बछड़े को उठा ले गया.सब देखते रह गए.बछड़े का नसीब.
दर्ज़नों लोग घर में सोये हुए थे.अचानक छत से एक पत्थर गिरा,और कोने में सोये एक बुज़ुर्ग पर आ लगा.उनके प्राण-पखेरू उड़ गए.उनके नक्षत्र ऐसे ही चल रहे थे.
बालक ने स्कूल के मंच पर इतना सुन्दर नृत्य किया, कि सब देखते रह गए.लेकिन घर आते ही वह बीमार हो गया.माँ कहती है कि उसे नज़र लग गई.
क्या आपके पास इन स्थितियों से बचने का कोई उपाय है? यदि है,तो उसे ज़ाहिर कीजिये.बताइये.

एक बार फिर कुदरत ने हमसे चाहा उसकी सर्वोच्चता का सम्मान

अमेरिका में आये तेज़ चक्रवात,वर्षा और अंधड़ ने पिछले दिनों स्तब्ध कर दिया. प्रकृति के तांडव को किंकर्तव्य विमूढ़ता से देखने का कहीं कोई विकल्प नहीं था.हमारा देश होता तो जो कुछ होना था,हो चुकता और तब हमें पता चलता.पर वह अमेरिका है,प्रकृति ने उसे नोटिस दिया.उस महान देश ने भी पूरे सामर्थ्य से विभीषिका से निपटने में अपनी तैयारी का साहसिक प्रदर्शन किया.लाचारी को न्यूनतम कर लेने के उस ज़ज़्बे को सलाम.सुरक्षा सावधानी और आपदा-प्रबंधन ही वह श्रीफल है जिसे हम कुदरत के कोप के समक्ष चढ़ा सकते हैं.

Wednesday, August 24, 2011

क्या आप बता सकते हैं कि गलती किस की है?

एक तरफ एक स्वीमिंग पूल है,दूसरी ओर छोटा सा मैदान. मैदान में दस बच्चे खड़े हैं.स्वीमिंग पूल पर एक चौकीदार है.उसे सख्त हिदायत है कि वह केवल उन्ही बच्चों को पूल में नहाने दे,जो तैरना जानते हों.मैदान पर एक प्रशिक्षित युवक है,जिसे निर्देश है कि वह बच्चों को तैरना सिखाये.बच्चे अभी तैरना नहीं जानते.कुछ दूरी पर एक कक्ष में एक अधिकारी है,जिसे हर प्रकार से स्थिति पर नियंत्रण के लिए वहां तैनात किया गया है.
कुछ देर में ही अधिकारी के कक्ष में शिकायतों का सिलसिला शुरू होता है.कुछ बच्चे आकर कह रहे हैं कि चौकीदार उन्हें नहाने नहीं दे रहा.चौकीदार कई बार आकर कह चुका है कि बच्चे नहीं मान रहे,शैतानी करते हैं.युवक आकर कह रहा है कि चौकीदार अड़ियल है,उसे पता ही नहीं है कि स्वीमिंग-पूल किस काम आता है?बच्चों को यह भी बात  समझ में नहीं आ रही कि उन्हें तैरना क्यों नहीं सिखाया जा रहा?अधिकारी की विवशता यह है कि किसी के निर्देश बदले नहीं जा सकते,क्योंकि अंतिम निर्णय करने वाले मालिक उपस्थित नहीं हैं.
सब अपने-अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं,फिर भी असंतोष है.क्या आप इस स्थिति में कोई ऐसा सुझाव दे सकते हैं कि असंतोष कम हो.

Saturday, August 20, 2011

ममतामय-बैंड की पहली थाप

शायद हमारी नई पीढ़ी यह नहीं जानती होगी कि लॉर्ड रामा का असली नाम 'राम' था. आज का लोकप्रिय वेस्टर्न योगा भी कभी 'योग' नाम से हमारे देश की जीवन-शैली का हिस्सा था.
हमारे देश के कुछ राज्य ऐसे हैं,जिनकी दिलचस्पी देश की मुख्य धारा में कभी नहीं रही.उन्हें हमेशा अपना अलग राग गाते देखा गया.जब सारा देश हिंदी की बात कर रहा था,वे 'अपनी भाषा' की बात कर रहे थे.जब देश समाजवाद  की सोच रहा था वे साम्यवाद का झूला झूल रहे थे.जब देश अहिंसा की बात कर रहा था,वे खंजर पैना कर रहे थे.कहने का मतलब यह है कि उन्हें इंडिया की शर्तों पर चलना मंज़ूर नहीं था,बल्कि वे चाहते थे कि इंडिया उनकी शर्तों पर चले.खैर,इंडिया के संविधान में यही लिखा भी था कि कोई सुर कितना भी बेसुरा हो,उसे दबाया नहीं जायेगा.
चंद दिनों बाद हमारा पश्चिम बंगाल 'पश्चिम बंग' हो जायेगा.निश्चित ही इस नए चोले का नाम आम रिवाज के अनुसार हिंदी में नहीं,अंग्रेजी में लिखा जायेगा,और फिर इसे बंग से बांग होते देर नहीं लगेगी.हमारे अशिक्षित,अल्प-शिक्षित,अर्ध-शिक्षित तो इसे हिंदी में बंग कह भी लेंगे,पर उच्च-शिक्षितों को बांग और बेंग कहने से कौन रोकेगा?
अतः देश के तमाम मुर्गों को बधाई,कि उनकी आवाज़ अब जल्दी ही घर-घर गूंजने वाली है.ममता-बैंड की पहली तान मुबारक.
वैसे मुर्गे भाषा से प्रभावित नहीं होते.वे उसी दूकान के सामने दिन-भर सीना फुला कर घूमते पाए जाते हैं,जिस पर लिखा होता है-"यहाँ मुर्गे का ताज़ा मीट हरसमय उपलब्ध है ".

Friday, August 19, 2011

अपने पिता को पैदा करने का ख्वाब

रोटी कपड़ा और मकान किसी ज़माने में इंसान के लिए मूलभूत ज़रुरत माने जाते थे. जिसे ये तीनों चीज़ें मिल जाएँ, उसका दर्ज़ा संतुष्ट आदमी का माना जाता था.
आपको लग रहा होगा कि यह तीनों चीज़ें तो अब भी मौलिक आवश्यकता हैं. नहीं,रोटी अब करोड़ों घरों की रसोई से निकल गई है.कई लोगों के नसीब से निकल गई है.मज़े की बात यह है कि ऐसे लोग रोटी के लिए नहीं तरस रहे,बल्कि रोटी ही उनके लिए तरस रही है.यह भुखमरी का मामला नहीं है,बल्कि सम्पन्नता की बात है.कपड़ा भी शौक की बात बन गया है.तन ढकने के लिए कोई नहीं पहनता,तन उभारने के लिए चाहिए. और मकान? वह अब सर छुपाने की जगह नहीं है,खरीदने-बेचने और मुनाफा कमाने का जरिया है.
तो फिर मूल ज़रूरतें क्या हैं?
एक राजा के चार पुत्र थे.राजा ने एक दिन बैठे-बैठे उनसे पूछ लिया- तुम मुझसे क्या चाहते हो?बारी-बारी से बताओ.सबसे बड़ा बेटा बोला-कोई ऐसा बंदोबस्त कर दीजिये, कि ज़िन्दगी भर रोटी मिलती रहे.राजा जवाब से काफी प्रसन्न हुआ.दूसरा बेटा बोला-कोई शानदार सी राजसी पोशाक दीजिये.राजा को अच्छा लगा. तीसरे पुत्र ने कहा-आपसे एक शानदार महल मिल जाये तो आनंद आ जाये.राजा आनंद से भर गया. 
अब सबसे छोटे पुत्र की बारी थी.वह बोला-मैं चाहता हूँ कि अगले जन्म में आप मेरे पुत्र के रूप में पैदा हों.राजा क्रोध से आग-बबूला हो गया.बोला-मूर्ख,मैं तुझसे कुछ मांगने को कह रहा हूँ,और तू मुझे जन्म 'देने' की बात करता है?
मूलभूत ज़रूरतें न रहें तो आदमी खुराफातें सोचता है.और अगर सोचने की शक्ति खो दे तो मूलभूत ज़रूरतें खो देता है,आज के इंसान की तरह.

Thursday, August 18, 2011

सरकार माने सरकार,चाहे देसी या फिरंगी

न  जाने हमारे देश की हवा में ही ऐसा क्या है कि विजय-दशमी नज़दीक आते ही कहीं-न-कहीं से राम-रावण आकर रामलीला मैदान में आमने-सामने हो ही जाते हैं.जब कोई मजदूर या कुली बोझा उठाता है तो वह बोझ को कंधे पर लेने के लिए "झुकता"है.पुराने ज़माने में जब दास प्रथा थी,शोषक-वर्ग दास पर तरह-तरह से ज़ुल्म करता था.ज़मीन पर लोटपोट हुए सेवक पर मालिक द्वारा हंटर बरसाए जाते थे,जिस से दास घबरा कर उठ खडा होने की कोशिश में घुटनों के बल खड़ा हो जाता था.इसे "घुटने टेकना"भी कहते थे.इसका अर्थ यह होता था कि मालिक जो भी कह रहा है,वह सेवक को स्वीकार है.
जब कोई तेज़ी से जाती गाड़ी एकाएक वापस उसी मार्ग पर लौट पड़ती है तो इसे देहाती भाषा में पलटी मारना और सभ्य भाषा में "यू टर्न"लेना कहते हैं.
झुकना,घुटने टेकना,पलटी मारना यह सब 'बॉडी लैंग्वेज़'की प्रक्रिया है.किसकी?
किसी ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे की नहीं,माननीय सरकार की.
वर्षों पहले जब किरण बेदी दिल्ली की तिहाड़ जेल को तरह-तरह से आदर्श रहवास बनाने की कवायद में जुटी थीं,तब शायद वे भी नहीं जानती थीं कि इस प्रख्यात कैद खाने में एक दिन वीवीआईपियों का तांता  लग जायेगा.इसी में मसीहा इसी में मक्कार एक साथ ठूंसे जायेंगे.
लगता है कि सरकारों को अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर दौड़ने का दैवीय वरदान प्राप्त है.
देश के लगभग हर शहर में कभी रामलीला मैदान यह सोच कर बनाए गए थे कि इस देश में लीला युग-युगों  तक होती रहेगी.

Wednesday, August 17, 2011

फैसले करने का आलीशान तरीका

क्या हमारे पास कोई ऐसा मानदंड है जो यह सिद्ध कर सके कि यह कैसा समय है.क्या किसी तरह यह पता चल सकता है कि हम अपने पहले गुज़र चुके इंसानों की तुलना में कैसे हैं?
मुझे लगता है कि यह समय पहले बीत चुके सारे 'समयों' से अच्छा होना चाहिए.क्योंकि यह है.बाकी सारे चले गए.यह भी चला जायेगा,लेकिन तब जो आएगा वह और भी बेहतर होगा.हम सब भाग्यशाली हैं,कि कोई न कोई समय हमेशा रहता है,बिना समय के दुनिया कभी नहीं रहती.
एक बार ऐसे ही बैठे-बैठे रात और दिन में बहस हो गई.रात दिन से बोली-जैसे ही मैं जाती हूँ,तू आ जाता है.दिन इस आक्षेप से बौखला गया.पलट कर बोला-जा जा,जैसे ही मैं आता हूं तू भाग जाती है.इस बहस-मुबाहिसे का कोई
अंत नहीं था.न ही वहां कोई ऐसा था जो माकूल फैसला दे सके.दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने की सोचने लगे.रात 
सोचती,किसी दिन मैं चली जाऊं,और यह न आ पाए तो इसे सुनाऊं.उधर दिन को लगता,किसी दिन मैं आऊं और यह न मिले तो इसे आड़े-हाथों लूं.
इस बेकार की बहस से और तो कुछ न हुआ,इतना ज़रूर हुआ कि हमारे कोर्ट-कचहरियों ने फैसले करने का ढंग ज़रूर सीख लिया. 

Tuesday, August 16, 2011

आज़ादी पर्व के अवसर पर मिला देश की युवा पीढ़ी को अनमोल तोहफा,

राजस्थान के कुछ दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों में बारह साल बाद जब बरसात हुई तो बारह साल से कम उम्र के बच्चों ने उसे हैरत और कोतुहल से देखा,ठीक इसी तरह १६ अगस्त को देश की युवा पीढ़ी ने इतिहास की वह फिल्म हकीकत में देखी जिसके बारे में वे किताबों में पढ़ते आये थे.जिसमे नायक सड़कों पे होते थे,खलनायक सरकारी किलों में , चरित्र अभिनेता  कैद में और हास्य अभिनेता सरकारी  "प्रेस कांफ्रेंस " में.

आज़ादी पर्व के अवसर पर मिला देश की युवा पीढ़ी को अनमोल तोहफा,

राजस्थान के कुछ दुर्गम रेगिस्तानी इलाकों में बारह साल बाद जब बरसात हुई तो बारह साल से कम उम्र के बच्चों ने उसे हैरत और कोतुहल से देखा,ठीक इसी तरह १६ अगस्त को देश की युवा पीढ़ी ने इतिहास की वह फिल्म हकीकत में देखी जिसके बारे में वे किताबों में पढ़ते आये थे.जिसमे नायक सड़कों पे होते थे,खलनायक सरकारी किलों में और मसीहा कैद में.

Monday, August 15, 2011

सब्जी-मंडी,मछली-बाज़ार,माननीय सरकार और गली के बच्चे

सब्जी-मंडी का एक नियम है,कोई विक्रेता जब बेचने के लिए टोकरे में सब्जी सजाता है,तो वह एक ओर ताज़ा और उम्दा सब्जी रखता है,दूसरी ओर बासी और ख़राब.ताज़ा सब्जी उस तरफ से दिखाई देती है,जिधर से ग्राहक आते हैं.बासी उस तरफ होती है,जिधर से वह तौलता है.आप कितनी भी सावधानी से छाँट कर दीजिये,वह तौलते समय कम-ज्यादा करने के बहाने थोड़ा-बहुत सड़ा-गला मिला ही देता है.महिलाएं इस चालाकी को भांप लेती हैं,और इससे बच जाती हैं,पर पुरुष अक्सर ठगे जाते हैं.बाद में वे अपनी झेंप मिटाने के लिए कहते हैं-तुम सब्जी लेने में बहुत देर लगाती हो.
मछली-बाज़ार का भी एक नियम है,साधारण-छोटी मछलियों वाली औरतें बाज़ार के नुक्कड़ पर बैठती हैं,और ज़ायकेदार बड़ी मछलियों वाली भीतर की ओर.नुक्कड़-वाली इतना शोर मचाती हैं,कि ग्राहक भीतर जा ही नहीं पाए.पारखी ही भीतर जाते हैं और महँगा माल खरीदते हैं.जल्दी-वाले सादा माल ले गुज़रते हैं.
गली के बच्चों के अपने नियम होते हैं.जब उनमे झगड़ा होता है तो वे इतिहास कुरेदने लगते हैं-मैंने परसों तुझे चाकलेट दी थी,ला,वापस लौटा दे मेरी.
सरकार भी कुछ नियम बना लेती है.जब कोई "अन्ना"सामने आता है,इन नियमों की गुलेल चला देती है.सरकार के 'अपनों' के मामले में ये नियम सुरक्षित रखे रहते हैं-ताक पे.सरकार के टोकरे में एक तरफ अलीबाबा होते हैं तो दूसरी तरफ चालीस...

Sunday, August 14, 2011

शम्मीकपूर के जाने की खबर भी वैसी ही झूठी है, जैसी अन्ना के भ्रष्टाचारी होने की खबर,क्योंकि अन्ना भ्रष्ट नहीं हो सकते,शम्मीकपूर रजतपट पर इस तरह लिखे हैं कि ओझल नहीं हो सकते.हाँ,आज़ादी ज़रूर सच्ची है,क्योंकि
इसी की बदौलत कोई भी,कुछ भी,कह रहा है.

Saturday, August 13, 2011

लाल किले पे सदा तिरंगा लहर-लहर लहराए

लाल,नीला,केसरिया,हरा,सफ़ेद,
रंग ही रंग, उमंग ही उमंग,देश की स्वाधीनता का यह पर्व सबको शुभ हो 
उन्हें भी जिनकी पहली पसंद काला रंग ही है 

सखी री मोहे श्याम रंग ही भावै
किये कारनामे सब काले,काला धन ही आवै 
पब्लिक स्याम-पताका लेके ,रोज़ द्वार पे आवै
कलमाड़ी से करम देखके,मन गदगद हो जावै
'महासुशीला' काले धन से,कालजयी हो जावै
कौन भला कड़के नेता के नाम पे मोहर लगावै
वोट नगर में उजली टोपी,काली छवि बनावै
सखी री मोहे श्याम रंग ही भावै

अन्ना आगे बढ़ो, पर सरकार को तंग मत करना

जंतर-मंतर पे? नहीं-नहीं
अनिश्चित काल के लिए ? नहीं-नहीं
हज़ारों लोगों को लेकर ? नहीं भाई इतने नहीं
अरे भाई, तुम गाँधी के अनुयाई हो या 'गाँधी'के दुश्मन ?
यहाँ तुम्हारी मनमर्जी नहीं चलेगी,हमारे 'मन' की मर्ज़ी चलेगी
तुम हमें "खाना"छोड़ने की सलाह देने आये हो,या अपना खाना छोड़ने?
अच्छा,एक बात बताओ, ये सौ करोड़ लोग खेतों में, कारखानों में काम कर-कर के
इतना कमा रहे हैं, यदि हम 'खायेंगे' नहीं तो सड़ कर ही जायेगा न ?क्या होगा इसका ?
फिर?कौन ज़िम्मेदार होगा इस बर्बादी का ?अच्छे अन्ना,प्यारे अन्ना,जिद नहीं करते मान जाओ 
अच्छा मत मानो ,पर अच्छा काम करने से पहले भगवान को तो याद करलो
राम का नाम लो, रामदेव को याद करो ,आये याद?















Thursday, August 11, 2011

थान बिछा कर सोया खरगोश और निक्कर में जिराफ

क्या आप ऐसी दुनिया की कल्पना कर सकते हैं जहाँ एक ओर कपडे का पूरा थान बिछा कर उस पर खरगोश बैठा हो तो दूसरी तरफ निक्कर पहने जिराफ घूम रहा हो. है न मज़ेदार कल्पना?
लेकिन इसके लिए आपको कोई कल्पना करने की ज़रुरत नहीं.ऐसी दुनिया है. बल्कि दुनिया ऐसी ही है.
क्या आप जानते हैं कि विश्व के सबसे ज्यादा क्षेत्र वाले नंबर एक बड़े देश रशिया  में इतने लोग रहते हैं की जनसँख्या में उसका संसार में ५३ वाँ स्थान है.इसी तरह जनसँख्या में संसार में सातवा स्थान रखने वाले जापान के पास ज़मीन इतनी कम है कि क्षेत्र में उसका ४७ वा स्थान है.










Wednesday, August 10, 2011

सीट शेयरिंग का प्यारा उदाहरण हैं बुल्गारिया और ग्वाटेमाला

दोस्ती इंसानों की तरह देशों में भी होती है. दोस्त भी कभी-कभी लड़ते हैं. दोस्त दूर-दूर भी हो सकते हैं,और पास-पास भी.दोस्त अमीर-गरीब भी हो सकते हैं. दोस्त छोटे-बड़े भी हो सकते हैं. दोस्त भावनाओं में भी बहते हैं.
दो किशोरों ,दो युवाओं की तरह दो राष्ट्रों का किसी मेले में साथ-साथ होना दिलचस्प है. ये मेला दुनिया का मेला हो
तो क्या कहने? दुनिया में सैंकड़ों देश हैं,इनमे साथ-साथ होना कितना मजेदार हो सकता है.स्कूल में एक ही सीट पर दो बच्चों के एक साथ बैठे होने जैसा.
कभी-कभी सफ़र में पास-पास की सीट ज़िन्दगी भर का दोस्त बना देती है. पडौस तो रिश्तेदारी तक में बदल जाता है.दोस्ती बनने बिगड़ने के न कोई नियम हैं, न व्याकरण. 
विश्व के सौ सबसे बड़े देशों की सूची देखिये,ग्वाटेमाला और बुल्गारिया एक साथ हैं, एक ही पायदान पर. नंबर ६५ इन्ही के नाम है. 

Tuesday, August 9, 2011

प्रकृति हमारी जीवन शैली में आत्मा की तरह घुस आई है

प्रकृति जो भी बनाती है बहुत सारा बनाती है, उसमे से "उचित" या उपयुक्त को रखती है, बाक़ी सारा मिटा देती है, यही डार्विन ने भी कहा था. 
पर आज लगता है कि प्रकृति संदेह के घेरे में है.जो बच रहा है, वही उपयुक्त नहीं है.जो जा रहा है वह सारा अनुचित नहीं है.हो सकता है कि कहीं कोई डार्विन इस पर काम कर रहा हो, और जल्दी ही हमें बताये कि ऐसा क्यों हो रहा है?

Sunday, August 7, 2011

कैटरीना, शीलाजी और चींटियाँ

बॉलीवुड का रिवाज़ है कि जो टॉप पर हो, उसका नाम सबसे बाद में लिया जाये, "अबव आल" वाले अंदाज़ में. लिहाज़ा कैटरीना की बात बाद में. 
राजनीति का रिवाज़ है कि जो बड़ा नेता हो, उसका नाम सबसे पहले. लिहाज़ा शीलाजी की बात सबसे पहले. शीलाजी दिल्ली की चीफ, और दिल्ली सबकी चीफ. लेकिन राजनीति का ये भी रिवाज़ है कि जो संकट में हो उसे सबकी नज़र से छिपा लिया जाये, और परदे के पीछे कर दिया जाये. अतः शीलाजी की बात भी बाद में. संकट टल जाने के बाद.
अब बचीं चींटियाँ. इनकी बात तो कभी भी कर लेंगे, पहले एक किस्सा सुनिए. गुजरात के एक कारखाने की बात है, कारखाने का मालिक दोपहर का खाना खाने गया था. अब यह परम्परा ही है कि जब कोई कारोबारी रोटी खाने लंच में जाता है तो कारोबार खुला ही छोड़ जाता है. लेकिन जब मालिक रोटी खाकर वापस आया, तो उसने देखा- मेज़ पर से माल गायब. संयोग देखिये कि कारखाना हीरे का था. यानि मेज़ पर से हीरे गायब, और वह भी एक,दो,तीन नहीं बल्कि पूरे पांच. मालिक ने रपट लिखाने में वक्त जाया नहीं किया बल्कि वह सीधे तफ्तीश में जुट गया.उसने कोना-कोना छान मारा, लेकिन उसे वहां चंद चींटियों के अलावा कोई नहीं मिला. पुलिस का कायदा है कि मौका-ए-वारदात पर जो मिले उस पर शक ज़रूर किया जाये. मालिक के पास पुलिस की नज़र और कारोबारी की अक्ल थी.अतः उसने चींटियों पर गहरा शक करते हुए वहां थोड़ी चीनी बिखेर दी. वह यह देख कर हैरान रह गया कि चींटियाँ चीनी को उठा कर दीवार की एक दरार में भर रहीं हैं.मालिक ने दरार को तोड़ डाला और यह देख कर दंग रह गया कि पाँचों हीरे वहीँ फंसे हैं. 
अब कैटरीना की बात. कैटरीना ने साल भर तक यह शोर मचा-मचा कर प्रचार किया कि शीला की जवानी हाथ न आनी. कैटरीना को यह थोड़े ही पता था कि खेल-खेल में "खेलों" की रिपोर्ट आ जाएगी, और फिर सारे हाथ शीलाजी की ओर ही बढ़ेंगे.अब सारे "कारोबारी" चाहे शीला जी को बचाना भी चाहें, पर चींटियों का क्या होगा? कहीं वे कतार बना कर शीलाजी की ओर बढ़ गईं तो ?          

Saturday, August 6, 2011

दादी का "रिमोट"

आज रविवार है. मेरा मन आज बच्चों और परिवार से बात करने का है- पढ़िये ये कविता

बिल्ली दूध पी गयी सारा 
दादी ने माँ को फटकारा 

बर्तन वाली देर से आई 
लेट हुआ मुन्ना बेचारा 
चाय मिली पापा को ठंडी 
दादी ने माँ को फटकारा.
चादर-पर्दा धोया गन्दा 
अबके धोबी ने दोबारा 
पैसे थोड़े ज्यादा मांगे 
दादी ने माँ को फटकारा. 
फेंक गया पेपर पानी में 
जल्दी में था वो बेचारा 
पापाजी अब कैसे पढ़ते 
दादी ने माँ को फटकारा.
कल दफ्तरमें काम बहुत था
छुट्टी पर स्टाफ था सारा 
दीदी शाम देर से लौटी 
दादी ने माँ को फटकारा. 
नया सीरियल शुरू हुआ था 
टीवी पर - "बुढ़िया सठियाई"
सारा काम छोड़ कर मम्मी 
उसे देखने दौड़ी आई 
'बहू, बंद कर दो टीवी को'
नहीं खोलना अब दोबारा 
देखो बच्चे बिगड़ रहे हैं 
दादी ने माँ को फटकारा. 

   
   

ओ कायनात की सल्तनत के अजीमोशां आलमपनाह

यदि दे सके, एक "सुबह" दे 
चूल्हा जलाती माँ भी हो 
अखबार पढ़ते पिता भी दे 
मुझे खेलने को बुला रहे 
मेरे दोस्त दरवाज़े पे हों 
कुत्ता गली का या हवा 
सब बेतकल्लुफ आ सकें 
चिड़ियों से चहका सहन हो 
बस्ता लगाती बहन हो 
हों छत पे पापड़ सूखते 
आँगन में रखे अचार हों 
मेरी बाल उनको आ लगे 
दादी की फिर फटकार दे 
जरा धूप फिर आँगन में हो
बरसात फिर सावन में हो 
लौटाले ये सारी उमर
मुझे वो ही दिन दो-चार दे 
यदि दे सके एक सुबह दे
ओ कायनात की सल्तनत के अजीमोशां आलमपनाह  

Friday, August 5, 2011

बेचारी भोली मासूम सरकार और दुर्दांत बर्बर खूंखार अन्ना

एक मछली तेज़ी से तैरती हुई सागर के किनारे-किनारे जा रही थी. वह बिजली की सी गति से हांफती-दौड़ती भागी जा रही थी. सुबह से शाम तक चल कर उसने पूरा तट पार किया, तब जाकर सांस ली. 
रुकते ही उसे चारों ओर से अन्य मछलियों ने घेर लिया और पूछा कि वह क्यों इस तरह सागर को चीरती दौड़ रही थी? मछली बोली- मैं सागर को इसकी सीमा याद दिला रही थी, ताकि यह अपना आपा न खोये और अपनी सीमा में ही रहे. 
एक छोटी सी मछली बोली- हाय, ऐसे तो ये बेचारा जेल के कैदी की तरह सड़ जायेगा, इसे कहीं से तो थोड़ा बाहर निकलने की छूट दे.
बिलकुल नहीं, मछली सख्ती से बोली. छूट मिली तो यह तट को तोड़ कर नगर को बहा देगा. छोटी मछली सहम कर चुप हो गई. सभी मछलियाँ उस मछली के साहस पर हैरान रह गईं. 

इतना स्वच्छ व मर्यादित वातावरण पहले कभी नहीं रहा.पहले तो हर समय कभी कोई राक्षस शिव को भस्म करने दौड़ता था, कभी प्रहलाद को जलाने की कोशिश होती थी, कभी वासुदेव और देवकी को जेल में डाला जाता था, कभी सीता का अपहरण हो जाता था तो कभी गांधी को गोली मार दी जाती थी. कभी राजा-प्रजा मिल कर जुआ खेलते थे.
आज किसी को भ्रष्टाचार या बेईमानी की बिलकुल छूट नहीं है. सब "लोकपाल" की कठोर निगाह के दायरे में हैं. बेचारी सरकार मिन्नतें कर रही है कि बस, केवल एक आदमी को तो बेईमानी करने की छूट देदो, पर अन्ना नहीं मान रहे. नहीं, रियायत किसी को नहीं मिलेगी. सबको लोकपाल से डरना होगा. 
सवाल यह है कि यह 'एक' आदमी जांच से बचना क्यों चाहता है? इसके दामन पर कौन से धब्बे हैं, या भविष्य में धब्बे लगने की आशंका है जो यह कोतवाल के नाम से घबरा रहा है?पूरी सरकार तन-मन-धन से इसे इस तरह बचाने में जुटी है मानो किसी बालक से उसका खिलौना छीना जा रहा हो.
सरकार डर क्यों रही है? शायद इसलिए, कि हमारे देश में राजनीति को बेहद कुटिल और चक्रव्यूह भरा माना जाने पर भी कभी- कभी बेहद भोले और निरीह लोग प्रधानमन्त्री बन जाते हैं. ऐसे लोग भ्रष्टाचार करते नहीं हैं पर उनसे भ्रष्टाचार हो जाता है. वे कीचड़ में कूदते नहीं हैं पर कीचड़ उन पर उछल जाती है.ऐसा प्रधानमंत्री ही नहीं अन्य नेताओं के साथ भी हो जाता है. 
कभी - कभी भोली- भाली कनिमोझी दफ्तर के दो सौ करोड़ रूपये पर्स में डाल कर 'गलती' से घर ले जाती हैं, तो कभी कोई कलमाड़ी क्रिकेट का किट समझ कर विभाग के पूरे बज़ट को बच्चों के लिए घर उठा ले जाता है.जैसे छुपन-छुपाई में गली के बच्चे किसी पेड़ पर छिप जाते हैं, वैसे ही हमारे नटखट नेता खेल-खेल में अपना पैसा विदेश में जाकर छिपा आते हैं. 
अब ऐसी छोटी- मोटी बातों पर लोकपाल को बीच में लाने की भला क्या ज़रुरत है? चूहे पकड़ने के पिंजरे में भी आखिर हवा आने-जाने के लिए छेद तो रखे ही जाते हैं?              

Thursday, August 4, 2011

आवश्यकता है कुछ शोधार्थियों की, जो उन रास्तों की खोज कर सकें,जिन पर

यह विज्ञापन किसी राजमार्ग प्राधिकरण या हाइवे आथोरिटी की ओर से नहीं है.यह तो उन शोधार्थियों की तलाश में दिया जा रहा है, जो एक गंभीर विषय पर शोध कर सकें. ऐसी जनोपयोगी शोध, जैसी कभी मनोज कुमार ने की थी और यह निष्कर्ष निकाला था कि- "कबीरदासजी कहते हैं कि ये दुनिया एक नम्बरी है, तो मैं दस नम्बरी हूँ " यह शोध काफी पापुलर रही. 
हम इसी स्तर की शोध उन रास्तों के बारे में चाहते हैं, जिन पर कबीर चले.शोधार्थी को घाट-घाट का पानी पीकर,दर-दर की ठोकरें खाकर और नौ दिन में अढाई कोस चलकर यह पता लगाना होगा कि संत कबीर कहाँ-कहाँ गए? यह काम दिखने में जितना सरल है, करने में उतना ही कठिन. क्योंकि उन दिनों न तो ट्रेवल एजेंसियां होती थीं, जो कबीर के दौरों का कोई अभिलेख उपलब्ध करवातीं और न ही कबीर के पास कोई निजी- सचिव होता था जो यह बताता कि वे कब कहाँ थे. कबीर की यायावरी तो मनमर्जी की थी. 
फिरभी यह पता लगाना बहुत ज़रूरी है कि वे कहाँ-कहाँ गए, किन रास्तों से गुज़रे? शोधार्थी को मूल-रूप से यह पता लगाना होगा कि-
[क] कबीर जिन रास्तों से गुज़रे वे सड़क थी, पगडण्डी थी या कच्ची रहगुज़र थी. 
[ख] कबीर आबादी वाली बस्ती से गुज़रे या वीरान रेगिस्तानों में भटके. 
[ग] यात्रा के दौरान जो लोग कबीर को मिले वे कौन थे, गाँव के थे या शहरी, किस जाति  या धर्म के थे, आदि-आदि. 
अनुसंधानकर्ता यह अवश्य जानना चाहेंगे कि उनकी खोज को किस काम में लिया जायेगा. क्या वह सदन के पटल पर चर्चा के लिए रखी जाएगी?
आपको बता दें, यह शोध परियोजना यह पता लगाने के लिए प्रायोजित की जा रही है कि आखिर कबीर ने कहाँ जाकर और क्या देख कर ये पंक्तियाँ लिखीं- 
"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय "
अपने देश के उस अतीत को हमारा नमन. उस युग को हमारा सलाम, उन रास्तों और बस्तियों की जय.      

Wednesday, August 3, 2011

बच गए मंत्रीजी

राजमहल के बगीचे में सुबह-सुबह जब राजकन्या सैर को निकली तो यह देख कर उसकी चीख निकल गई कि उसकी प्रिय लाल पंखों वाली सुनहरी चिड़िया घास में मूर्छित पड़ी है. उसने दौड़ कर उसे उठा लिया. चिड़िया को किसी शिकारी का तीर लगा था. 
राजाज्ञा से शिकारी को गिरफ्तार करके ले आया गया. राजा ने जब उससे इतने सुन्दर पक्षी पर तीर चलाने का कारण पूछा तो शिकारी बोला- इसके लिए आपके मंत्रीजी ज़िम्मेदार हैं. मंत्रीजी पर जैसे बिजली गिरी. वह सकपका कर खड़े हो गए. बोले-मैं कैसे ज़िम्मेदार हो सकता हूँ?सब हैरान थे. 
शिकारी ने कहा- कल यही मुझसे कह रहे थे कि मनुष्य को चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद दोबारा मानव-जीवन मिलता है. इस पक्षी को देख कर मेरे मन में आया कि इतना सुन्दर पक्षी जल्दी मानव बने और मैंने इसका ये जन्म जल्दी ख़त्म करने के लिए इसे निशाना बनाया. 
राजा असमंजस में पड़ गया.मंत्रीजी भी समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी साधारण सी बात का इतना असर होगा. शिकारी सचमुच निर्दोष था. 
राजा न्याय-प्रिय था. बोला- ठीक है, मंत्रीजी को ही इसकी सजा मिलेगी. उन्हें कल शाम तक बताना होगा कि इस पक्षी की कितनी योनियाँ बीत चुकी हैं और कितनी बाकी हैं, जिनके बाद यह 'मानव' बनेगा. यदि वे सही गणना करके बता पाए तो उन्हें क्षमा कर दिया जायेगा. अन्यथा कड़ी सजा दी जाएगी. मंत्रीजी को काटो तो खून नहीं. बैठे-बैठे ये किस मुसीबत में फंस गए?
मंत्रीजी मुंह लटका कर घर आये और सर पकड़ कर लेट गए. पत्नी ने कारण पूछा तो एक सांस में सारी घटना सुना डाली.पत्नी विदुषी थी, सब समझ गई. पति से बोली- आप घबराइये नहीं, कल राजा से कहिये कि आपने पक्षी के पिछले जन्म गिन लिए हैं, वे जितने होंगे, उतने ही फूल कल रात को आसमान से राजमहल की छत पर बरसेंगे, बस, राजा उन्हें गिनवालें. हाँ, इसके लिए राजा को एक शर्त माननी होगी. राजा को रात को महल की छत पर खड़े होकर तारों को छूने की कोशिश करनी होगी. 
मंत्रीजी को पत्नी की बुद्धिमत्ता पर पूरा विश्वास था. वे समाधान पाकर आराम से सो गए. उधर अगली सुबह मंत्रीजी की पत्नी ने शहर-भर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि आज रात को राजाजी महल की छत पर ख़ुशी से नाचेंगे, जो भी उनकी ख़ुशी में शामिल होना चाहे वह रात को महल की छत पर फूल फेंके. 
बस फिर क्या था. अगली रात के आते ही राजाजी छत पर खड़े होकर उछल-उछल कर आसमान में हाथ लहराने लगे. चारों ओर से उमड़ी प्रजा ने राजा को खुश देख कर पुष्प-वर्षा की. महल पर इतने फूल गिरे, इतने फूल गिरे...
शिक्षा : इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि राजा चाहे तो अपने मंत्रियों से कुछ भी गिनवा सकता है, विदेशों में जमा काला-धन भी.     

Tuesday, August 2, 2011

कुटिलता हर युग में नाकाम , धूर्त को मिला न कोई मुकाम

एक तालाब के किनारे घने आम के पेड़ पर रहने वाले बन्दर की दोस्ती तालाब में रहने वाले मगर से हो गई. मगर रोज़ दोपहर में धूप खाने किनारे की बालू में आकर लेटता था.उसी समय बन्दर उछल-कूद से थक कर पेड़ पर विश्राम कर रहा होता था. बस, दोनों में परिचय हुआ और दोस्ती हो गई. अब वे रोज़ मिलते. बन्दर पेड़ से मीठे रसीले आम मगर के लिए नीचे गिराता, बदले में मगर भी तालाब की तलहटी से नई-नई चीज़ें बन्दर के लिए लाता. उसे भीतर की हलचल और मछलियों के किस्से सुनाता. बन्दर भी जंगल का अखबार बन कर मगर की जानकारी में रोज़ इजाफा करता. 
दिन कट रहे थे. एक दिन बैठे-बैठे बन्दर ने सोचा- इस मगर की खाल कितनी मोटी और चिकनी है, यदि मैं किसी तरह इसका वध करके इसकी खाल पा लूं, तो सर्दियों के लिए इस से एक शानदार कोट बन सकता है. अब बन्दर इस ताक में रहने लगा ,  उसे इसका मौका मिले. 
आखिर एक दिन बन्दर लम्बी और उबाऊ दोपहर में मगर से बोला- तुम सारा दिन पानी में रहते हो, बदन पर इतनी काई और सीलन रहती है, धूप खाने भी आते हो तो ज़मीन पर रेंगते रहते हो, इस से तुम्हें ऊपर की स्वच्छ और ताज़ा हवा तो कभी मिल ही नहीं पाती.
मगर बोला- बात तो सही है पर मैं कर ही क्या सकता हूँ? 
बन्दर ने कहा- करना क्या है? मैं जो हूँ तुम्हारा दोस्त. मेरी पत्नी बंदरिया और मैं मिल कर तुम्हें खींच लेंगे, कोशिश करोगे तो तुम आराम से ऊपर पेड़ पर आ सकोगे. 
मगर को सुझाव बेहद पसंद आया. वह अगले दिन अपनी पत्नी को भी हवा खाने साथ लाने  की बात कह कर चला गया.
बात बनती देख कर बन्दर का मन बल्लियों उछलने लगा. उसने प्लान बना लिया कि  आम का पेड़ चिकना होने का बहाना करके वह मगर को बबूल के पेड़ पर बुला लेगा. वहां काँटों से बदन छलनी हो जायेगा और मगर ढेर हो जायेगा. 
उधर मगर ने अपनी पत्नी को सारी बात बताई तो वह तुरंत बोली- तुम्हारी तो मति मारी गई है जी, भूल गए, पंचतंत्र के युग में उसने तुम्हें कैसा उल्लू बनाया था? तुम फिर उसकी बातों में आ गए? तुम्हे कुछ पता भी है,बन्दर इंसानों के पूर्वज हैं.खबरदार, जो फिर कभी पानी के किनारे भी गए. 
मगर ने पानी से निकलना छोड़ दिया. निकलता भी तो धूप में आँखें बंद किये पड़ा रहता, ताकि कहीं भूल से भी बन्दर दिख न जाये. 
उधर कई इंसान इसी बात पर शोध कर-कर के डाक्टर बन गए कि कैसा अनोखा जीव है जो पानी में तो आँखें खुली रखता है, बाहर आ कर  बंद कर लेता है.          

Monday, August 1, 2011

दक्षिण अमेरिका में दो-फाड़ है सुन्दरता भी

केवल दक्षिण अमेरिका में ही क्यों, हर कहीं ऐसा है. ब्राजील और अर्जेंटीना हों, चाहे उरुग्वे और पराग्वे, वहां आपको व्यक्तित्व की दो-रूपता ज्यादा मिलेगी. कोई यह सवाल उठा सकता है कि आखिर ऐसा किस आधार पर कहा जा सकता है?चिली और वेनेज़ुएला भी अपवाद नहीं हैं. 
अब आगे कुछ कहने से पहले मैं आपको यह बता दूं, मैंने ऐसा कहने के लिए किन बातों को आधार बनाया है. मैं केवल तीन बातों को देख कर निकाले गए निष्कर्ष आपके सामने रख रहा हूँ. 
१.विश्व-स्तरीय सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में आज जो भी मानदंड स्थापित हैं, वे इन देशों की स्थानीय स्पर्धाओं से सबसे ज्यादा मिलते-जुलते हैं.आज जिस तरह केवल शारीरिक या मांसल बातों को लेकर व्यक्तित्व नहीं आंके जा सकते,वह परिपाटी दशकों पहले दक्षिणी अमेरिका, जापान ,थाईलैंड जैसे देशों ने आत्मसात कर ली थी.ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं जब इन देशों ने सौन्दर्य की निर्णय-प्रणाली निर्धारित करवाने में पहल की. 
२. 'पुरुष सौदर्य' की अवधारणा भी इन देशों और यूनान की देन है.शक्ति और मेधा को व्यक्तित्व का अहम् हिस्सा बनाने में यूनानी संस्कृति, दक्षिण अमेरिकी मान्यताएं और फ़्रांस के नज़रिए का योगदान है. यहाँ मानवीय ग़ोश्त मात्र को मानसिकता की विलक्षणता के साथ ही स्वीकार किया गया है. 
३. यदि हम 'जिस्म की तिजारत' जैसे शब्द प्रयोग करें तो यह एक निहायत ही हल्कापन होगा, पर जिस्म का मोल इसी भूमि पर सबसे पहले पहचाना गया है. एक कलुष के रूप में नहीं, बल्कि एक संसाधन के रूप में व्यक्ति को स्वीकार करने में भी इन्ही देशों की पहल रही है.
 "चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसे बाल. एक तूही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल."
 जैसी पंक्तियाँ चाहे भारत में लिखी गई हैं, किन्तु इनकी उद्गम-प्रेरणा पेरू, चिली या वेनेज़ुएला की रूपसियों के वे आकर्षक पोस्टर्स ही हैं जो इन देशों से आने वाली विश्व-सुंदरियों ने अपार लोकप्रिय बनाए हैं.       

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...