एक मछली तेज़ी से तैरती हुई सागर के किनारे-किनारे जा रही थी. वह बिजली की सी गति से हांफती-दौड़ती भागी जा रही थी. सुबह से शाम तक चल कर उसने पूरा तट पार किया, तब जाकर सांस ली.
रुकते ही उसे चारों ओर से अन्य मछलियों ने घेर लिया और पूछा कि वह क्यों इस तरह सागर को चीरती दौड़ रही थी? मछली बोली- मैं सागर को इसकी सीमा याद दिला रही थी, ताकि यह अपना आपा न खोये और अपनी सीमा में ही रहे.
एक छोटी सी मछली बोली- हाय, ऐसे तो ये बेचारा जेल के कैदी की तरह सड़ जायेगा, इसे कहीं से तो थोड़ा बाहर निकलने की छूट दे.
बिलकुल नहीं, मछली सख्ती से बोली. छूट मिली तो यह तट को तोड़ कर नगर को बहा देगा. छोटी मछली सहम कर चुप हो गई. सभी मछलियाँ उस मछली के साहस पर हैरान रह गईं.
इतना स्वच्छ व मर्यादित वातावरण पहले कभी नहीं रहा.पहले तो हर समय कभी कोई राक्षस शिव को भस्म करने दौड़ता था, कभी प्रहलाद को जलाने की कोशिश होती थी, कभी वासुदेव और देवकी को जेल में डाला जाता था, कभी सीता का अपहरण हो जाता था तो कभी गांधी को गोली मार दी जाती थी. कभी राजा-प्रजा मिल कर जुआ खेलते थे.
आज किसी को भ्रष्टाचार या बेईमानी की बिलकुल छूट नहीं है. सब "लोकपाल" की कठोर निगाह के दायरे में हैं. बेचारी सरकार मिन्नतें कर रही है कि बस, केवल एक आदमी को तो बेईमानी करने की छूट देदो, पर अन्ना नहीं मान रहे. नहीं, रियायत किसी को नहीं मिलेगी. सबको लोकपाल से डरना होगा.
सवाल यह है कि यह 'एक' आदमी जांच से बचना क्यों चाहता है? इसके दामन पर कौन से धब्बे हैं, या भविष्य में धब्बे लगने की आशंका है जो यह कोतवाल के नाम से घबरा रहा है?पूरी सरकार तन-मन-धन से इसे इस तरह बचाने में जुटी है मानो किसी बालक से उसका खिलौना छीना जा रहा हो.
सरकार डर क्यों रही है? शायद इसलिए, कि हमारे देश में राजनीति को बेहद कुटिल और चक्रव्यूह भरा माना जाने पर भी कभी- कभी बेहद भोले और निरीह लोग प्रधानमन्त्री बन जाते हैं. ऐसे लोग भ्रष्टाचार करते नहीं हैं पर उनसे भ्रष्टाचार हो जाता है. वे कीचड़ में कूदते नहीं हैं पर कीचड़ उन पर उछल जाती है.ऐसा प्रधानमंत्री ही नहीं अन्य नेताओं के साथ भी हो जाता है.
कभी - कभी भोली- भाली कनिमोझी दफ्तर के दो सौ करोड़ रूपये पर्स में डाल कर 'गलती' से घर ले जाती हैं, तो कभी कोई कलमाड़ी क्रिकेट का किट समझ कर विभाग के पूरे बज़ट को बच्चों के लिए घर उठा ले जाता है.जैसे छुपन-छुपाई में गली के बच्चे किसी पेड़ पर छिप जाते हैं, वैसे ही हमारे नटखट नेता खेल-खेल में अपना पैसा विदेश में जाकर छिपा आते हैं.
अब ऐसी छोटी- मोटी बातों पर लोकपाल को बीच में लाने की भला क्या ज़रुरत है? चूहे पकड़ने के पिंजरे में भी आखिर हवा आने-जाने के लिए छेद तो रखे ही जाते हैं?