Saturday, May 14, 2011

परिंदे, ले ऊंची परवाज़

आसमान में धुआं क्यों है, कहाँ लगी है आग परिंदे? 
देर न हो जाये घटना को, ले ऊंची परवाज़ परिंदे. 
देख कहीं से रावणजी  तो, इस धरती पर लौट न आये? 
लक्षमण रेखा खींच दोबारा, जा बन जा तू राम परिंदे. 
मेरे तेरे सबके दिल में, किस दुश्मन ने नफरत भर दी? 
कौन खिलाडी इन लपटों का, किस का है ये काम परिंदे? 
जंगल-जंगल नहीं ढूंढना, बस्ती में ही चोर मिलेंगे. 
गैरों को ही नहीं ताकना, अपनों को भी जाँच परिंदे. 
बादल ने पानी भेजा था, खेतों में 'सूखा' क्यों पहुंचा?
दिन है क्यों काला, सूरज की,कहाँ गयी सब आंच परिंदे?
 कुर्सी पर संदेह न ला, ये,चार पैर के बोझ की मारी.
तू इस पर बैठाने वाले जादूगर को खोज परिंदे.
शेर-बाघ क्यों मर जाते हैं, रह जाती है खाल परिंदे. 
सत्ताधीशों के पत्तों की, पता लगा तू चाल परिंदे.    

5 comments:

  1. समसामयिक रचना ..परिंदे के माध्यम से जागरूक करती हुई रचना अच्छी लगी .

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  2. dhanywad.rachna ko koi padh le, isi me shram sarthak ho jata hai, koi padh kar use pasand kare, fir tareef bhi kare to agli rachna ke liye hathon ki zumbish aakar lene lagti hai.

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  3. adbhud atiuttam shabd kam hain tareef ke liye.aapki kavita pahli baar padh rahi hoon bahut achchi lagi.parinde ke maadhyam se sattadhaariyon par kataksh kya khoob kaha hai.Prabodh ji apeksha karti hoon ki aap mere blog par visit karen aur mera utsaah vardhan karen.

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  4. गैरों को ही नहीं ताकना, अपनों को भी जाँच परिंदे.
    शायद अपनी नाव में ही छेद है

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