कुछ लोग नौकरी को गंभीरता से नहीं लेते. वे यह नहीं सोचते की उन्हें अपनी शिक्षा का उचित प्रतिफल मिले, अपनी मेहनत के एवज में सुनहरा भविष्य मिले और अपना मनपसंद ऐसा काम मिले जो उपयोगी भी हो. इसके उलट, वे तो यह सोचते हैं कि घर के आसपास काम मिल जाये, चाहे जैसा भी हो. कहीं दूर न जाना पड़े. कभी-कभी विद्यार्थी भी मुझसे यह सवाल करते हैं कि घर के पास ही छोटी-मोटी नौकरी करना अच्छा है,या दूर जाकर बड़ी? इस सवाल का कोई एक उत्तर नहीं है. आपको कई बातें देखनी होंगी. फिर भी मैं कहूँगा कि निर्णय लेने से पहले यह सोचिये कि हर प्राणी का एक पेट है, और इसमें भोजन डालना ज़रूरी है. भोजन तो सबको मिलता है और हर जगह मिलता है. अब सरकारें किसी को भूखा तो नहीं ही मरने देतीं, चाहे मुफ्त में ही अन्न बाँटना पड़े. लेकिन यह आपको तय करना होगा कि आपको कैसा खाना चाहिए. क्या आप जानते हैं कि यदि शेर की तरह खुद के मारे हुए शिकार का ताज़ा गोश्त खाना हो तो शेर की तरह ही जंगलों में दूर-दूर भटकना भी होगा. यदि आपका काम दूसरे की फेंकी हुयी बासी रोटी से चल जाता है तो गली के कुत्ते की तरह एक ही गली में भी जीवन काटा जा सकता है.यदि हमारा पेट कीट-पतंगों से भर जाये, तो घर से बाहर भी जाने की ज़रुरत नहीं है. छिपकली और कोक्रोच की तरह घर के भीतर नाली-गड्ढों में ही भोजन उपलब्ध है. परन्तु यदि आपको दुनिया देखने की ललक है, या आसमान की अनछुई ताज़ा हवा चाहिए तो परिंदे की तरह ऊंची उड़ान भी भरिये. अपने घोंसले का मोह छोडिये ,और यदि डर, आलस्य या नाकारापन आपको घर से दूर नहीं जाने देता तो दूसरों के टुकड़े पचाना सीखिए. यदि किसी का काम सूअर की भांति विष्ठा से ही चल जाता हो तब तो घर के भी केवल पिछवाड़े में ही पड़े रह कर जिंदगी कट सकती है, सामने आना भी ज़रूरी नहीं. फैसला आप को लेना है.
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
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