जब ईश्वर दुनियाभर के लोगों की किस्मत बारह राशियों में बाँट सकता है, तो मौलिक क्या और कितना लिखा या सोचा जा सकता है.
मेरे बड़े भाई की उम्र मुझसे चार साल अधिक है. ये चार साल उन्हें जिंदगीभर मुझ पर वरिष्ठता देते हैं, सम्मान देते हैं और अधिकार देते हैं. इसके बावजूद मैं यह सब आपसे कह रहा हूँ.
बचपन से ही उन्हें किसी प्राकृतिक अड़चन के कारण उन्हें साफ बोलने में दिक्कत रही. वे बोलने में थोडा अटकते थे. विद्यालय में या अन्य सभी जगह होता यह था ,परिचित लोग उनकी उपस्थिति में, उनकी तुलना में मुझसे पूछना या बात करना ज्यादा किया करते थे. निश्चित ही, ऐसा लोग उन्हीं की सुविधा के लिए करते थे. मगर इस बात ने धीरे-धीरे उनका मनोबल व आत्मविश्वास मेरे सामने कम करना शुरू कर दिया.
प्राथमिक पढ़ाई पूरी करके हम जिस स्कूल में आये वह घर से सात किलोमीटर दूर था. हम साईकिल से जाते थे. वे बड़े थे, इस से वही साईकिल चलाते थे. मैं सुविधा मिलते रहने के कारण देर तक साईकिल चलाना सीख न सका. परीक्षा होती तो मेरे अंक हमेशा उनसे बहुत अच्छे आते. लोग तुलना करते, मेरी तारीफ़ होती, पर इस बात पर किसी का ध्यान न जाता की वे चौदह किलोमीटर रोज़ साईकिल चलाने के कारण मेरे जितने आराम से पढाई नहीं कर पाते थे. कभी-कभी उनके मन में आई यह बात जब उनके चेहरे पर भी आती, तो मुझे अजीब सी अनुभूति होती.
जब हम कालेज में आये तो वे होस्टल में गए, मैंने घर रह कर पढ़ाई की. होस्टल के छात्रों की तरह मैंने उन्हें हमेशा अपनी तुलना में तंगी और तनाव में देखा. लगभग साथ ही हमारी नौकरियां लगीं. दो साल के अंतर से हमारी शादियाँ हुईं. उनकी पत्नी[मेरी भाभी] एक विद्यालय में शिक्षिका थीं, और मेरी पत्नी सरकार में उच्च -पदस्थ अधिकारी थीं. मैं नहीं जानता, इस बात ने हमारे मनोबलों में क्या भूमिका अदा की होगी. वे जयपुर में और मैं मुंबई में, रहने लगे.
थोड़े दिनों में हमने महसूस किया, हम दोनों में ही लेखन के प्रति रूचि है. उनके कुछ लेख स्थानीय पत्रों में छपे, तब तक मेरी कई रचनाएँ धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, सारिका, माधुरी, इण्डिया टुडे, नवनीत, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में छपने लगीं. उनका पत्रिकाओं से मोह-भंग हो गया और और उन्होंने स्वयं के प्रयास से एक-दो स्थानीय प्रेसों में अपने एकाध उपन्यास मुद्रित करवाए. इस बीच मेरी सात-आठ किताबें दिल्ली और मुंबई के प्रकाशकों से छपकर कर बाज़ार में आ गईं.
उनका रुझान टीवी सीरियल बनाने की ओर बढ़ा.वे इसके लिए स्थानीय दूरदर्शन में छोटे-बड़े प्रयास कर ही रहे थे की मुझे मुंबई में राजेंद्र कुमार और हरमेश मल्होत्रा जैसे फिल्मकारों से लिखने के प्रस्ताव मिले. [यद्यपि बाद में मुंबई छूट जाने के कारण मैं यह कार्य कर नहीं सका] इधर उनका एक सीरियल पूरा तो हुआ पर उसने उन्हें काफी आर्थिक हानि दी.वे इस से काफी क़र्ज़ में डूब गए.
वे नौकरी से रिटायर हो गए. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा की वे अब कंप्यूटर टाइपिंग सीख कर अपने पुराने लेखों को फिर से व्यवस्थित करेंगे. उन्हें यह जानकारी मिलने पर, की मैं अपने ब्लॉग पर सौ पोस्ट पूरी कर चुका हूँ,उनकी रूचि इस ओर कम हो गई और वे फिर से फिल्म-निर्माण की दिशा में सोचने लगे. मुझे यह अच्छा लगा की उनका आत्म-विश्वास जबरदस्त तरीके से फिर लौट रहा है.
aapke is lekh ne bahut kuch sochne par majboor kar diya hai.yeh swabhaavik hai jab ek bhaai ya bahan doosre se adhik tarakki karte hain to jaane anjaane me use heen bhaavna apna shikaar bana leti hai.achcha hai vo apne bal pal aatmvishvas vapas paa rahe hain.aapka sahyog bhi usme madadgaar hoga koshish kijiye.
ReplyDeleteaapka sujhav bahut achchha hai, main yahi kar raha hoon, par shayad unka samay meri madad ke bina chalne ka abhi nahin aaya hai. aage ki baat bhi suna raha hoon, zaroor padhiyega.
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