lekin kuchh din baad kai baar mumbai jakar lautne ke baad भाईसाहब ने मुझे बताया कि उनकी फिल्म सेंसरबोर्ड में अटक गई है और वहां उसे पास करने से साफ इंकार कर दिया गया है. वह बुरी तरह हताश हो गए. परिवार में इस बीच तीन पीढ़ियों का आगमन हो चूका था, सब लोग यह सोचने लगे कि जो फिल्म इतने जोर-शोर से बन रही थी वे अगर रिलीज़ ही नहीं हुई तो क्या होगा?भाईसाहब ने बताया कि उनका सारा पैसा फिर डूब जायेगा.
संयोग देखिये, मेरे एक मित्र ऐसे निकल आये जो स्वयं कभी फिल्म सेंसरबोर्ड के सदस्य रहे हैं. भाईसाहब के साथ मैं खुद गया और मेरे मित्र की मदद से फिल्म को वयस्क प्रमाण-पत्र के साथ प्रदर्शन की अनुमति मिल गई. यद्यपि उनके अवचेतन में फिर यह बात घर कर गई कि उनकी मेहनत नहीं, बल्कि मेरी सिफारिश सफल हुई है.
शायद उनकी परीक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी. उनकी फिल्म को शहर का कोई सिनेमाघर लेने को तैयार नहीं था, वे कई प्रयास करके रह गए. यहाँ फिर एक बार उन्हें मेरी मदद लेनी पड़ी. मेरे एक अभिन्न मित्र जो राजनीति में हैं, उनका शहर में एक सिनेमाघर है. मेरे कहने पर वे उसमे फिल्म को रिलीज़ करने पर सहमत हो गए. भाईसाहब के उत्साह में न जाने क्यों काफी कमी आ गई. बात तो बन गई पर वे इस फिल्म निर्माण में अपनी सारी पूंजी इस तरह लगा बैठे थे कि सिनेमाघर के किराये की अग्रिम व्यवस्था भी उनके स्रोतों से न हो सकी. अब उनकी फिल्म काफी समय से प्रदर्शन के इंतज़ार में है. हमारे परिवार के सारे बच्चे, बुज़ुर्ग और महिलाएं यह जानते हुए भी कि फिल्म केवल वयस्कों के लिए है, चाहते हैं कि कैसे भी ये प्रदर्शित हो. अब परिवार के बच्चों ने मुझे सुझाव दिया है कि जब उनकी फिल्म रिलीज़ हो तो मैं कम से कम एक शो के सारे टिकट खरीद कर निशुल्क बंटवा दूं और उसे "हाउस फुल"करवा दूं.
मैं सोच रहा हूँ, कि यदि मैं ऐसा करता हूँ, तो यह भाईसाहब की मदद होगी, या उनकी जिंदगीभर की प्रतिद्वंदिता भरी ज़द्दो-ज़हद में उनकी एक और शिकस्त?
[यह अक्षरशः सत्य विवरण है, अतः अंततः फिल्म का क्या रहा, यह हम आपको बता पाएंगे तब, जब कुछ होगा. ]
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