ये तय करना बहुत कठिन है कि उम्र आदमी के लिए कमाई है या खर्च.जो लोग बहुत उम्र बिता चुके, लोग उनका मूल्यांकन चाहे जैसे करें, पर सवाल ये है कि वे स्वयं अपना मूल्यांकन कैसे करें? क्या वे यह सोच कर अपने पर फख्र करें कि उन्होंने जीवन में बहुत कुछ जान लिया, बहुत कुछ सीख लिया, बहुत कुछ हासिल कर लिया, अब वे अपने में तृप्त महसूस करते हैं. या वे अपने मन को यह सोच-सोच कर सताएं कि हमारा क्या है, हमारी तो अब कट गयी, जैसे-तेसे टाइम पास हो गया, अब क्या है, अब बचा ही क्या है?
इसी तरह जो लोग अभी युवा हैं, वे अपना मूल्यांकन कैसे करें? क्या वे यह सोचें, कि अभी तो हम नौसिखिये हैं, अभी तो हमने कुछ ज़माना नहीं देखा, न जाने इतनी प्रतिस्पर्धा के दौर में आगे हमारा क्या होगा? या फिर वे यह सोच कर खुश हों कि अभी तो हमारा पूरा कैरियर पड़ा है, हम जो चाहें कर सकते हैं, जो चाहें बन सकते हैं. मेरे एक मित्र मुझसे कहते थे कि वे बच्चों को बहुत ही आदर और सद्भाव से देखते हैं, क्योंकि इन्ही में से कल न जाने कौन, क्या बन जाए? बच्चे इस रूप में सम्मान के पात्र हैं ही, क्योंकि उनकी स्थिति आज उस बीज की सी है जो कल न जाने कितना बड़ा पेड़ बन जाये? इसी तरह बुज़ुर्ग लोग भी उतने ही सम्मान के पात्र हैं क्योंकि अब पैदा होने वाले नहीं जानते कि उन उम्र-दराज़ लोगों ने जीवन में क्या-क्या देखा होगा. इस तरह ये दोनों ही वर्ग एक-दूसरे के लिए सम्मान की भावना रखते हुए एक दूसरे के आदर के पात्र हैं.
अब यहाँ सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उन लोगों की हो जाती है जो अपनी उम्र के मध्य में हैं, अर्थात लगभग २५ से ५० की आयु के लोग. मूल रूप से इन्हीं के हाथ में वर्तमान दुनिया होती है. ये चाहें तो अपनी सोच और व्यवहार से बाकी दोनों को संतुष्ट रख सकते हैं. ये लोग अगली और पिछली पीढी को 'यूज़' करके दोनों को अपने हित में साधने का लाभ भी ले सकते हैं. क्योंकि वे बुजुर्गों से जैसा व्यवहार करेंगे, बच्चे उनसे भी वैसा ही बर्ताव करने को प्रेरित होंगे. इसी तरह उन्हें जो अपने बुजुर्गों से नहीं मिला, वे बच्चों को दें, और बुजुर्गों को 'रियलाइज़' करवाएं कि उनमे क्या कमी थी. इस तरह उम्र हर-एक के लिए उपयोगी बनाई जा सकती है, जो कमाई ही होगी, खर्च नहीं. उम्र रूकती नहीं है. सभी पर आती है. ऐसी चीज़ का न बचने का सुख, न खोने का दुःख.
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