Sunday, May 15, 2011

जहाँ जहाँ मुकम्मल है

कल मेरे एक पुराने मित्र ने मुझे फ़ोन करके कहा कि उसे मेरा ब्लाग पसंद नहीं आ रहा. उसका कहना था कि क्या दुनिया में सब कुछ आधा-अधूरा या सुधारे जाने योग्य ही है? ऐसा कुछ भी नहीं है जो पूरा हो, मुकम्मल हो और जिसका सिर्फ आनंद लिया जाये, उस पर कोई टीका-टिपण्णी न हो?मैं एकाएक सोच में पड़ गया.बरसों पहले मैं माधुरी, सरिता, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में गीत भी लिखा करता था, प्रेम-गीत भी. आज आपको ऐसा ही एक गीत सुनाता हूँ. 
कभी यूं भी मिल मेरे हमनवा ,तेरे हाथ में मेरा हाथ हो. 
जहाँ तू कहे वहां दिन कटे, जहाँ मैं कहूं वहां रात हो. 
तेरी आँख की इस झील से, मेरी सांस तक हो रास्ता.
 मैं नगर-नगर मेरा सींच लूं, कि डगर-डगर बरसात हो. 
ये चार मौसम साल के, हमें उम्र-भर तक कम पड़ें. 
कब कौन सी ऋतु चल रही, मुझे याद ना तुझे याद हो.
तेरी बात वेदों की ऋचा, मेरे बोल लय की बरात हो. 
मेरे मन के मंदिर में चले, तेरी आरती जब रात हो. 
तू भी पूछ ले ये समाज से, मैं भी पूछ लूं ये रिवाज़ से. 
सब हाँ कहें तो हम मिलें, सब ना कहें तो भी साथ हो.      

2 comments:

  1. गीत अच्छा लगा परंतु आपके मित्र की बात समझ नहीं आयी।

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  2. vah, ab aapki tippani mera mitra bhi dekhega to use samajh me aayega. mere naye aur sabse bade shubhchintak mitra to aap hain.

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