Thursday, March 28, 2013

पश्चिम और भारत

किताब किसी की नहीं होती। वह उसी की होती है जो उसे पढ़े। बारीक अक्षरों में लिखी यह इबारत उन्हें एक जगह एक किताब में दिखी तो उनके मन से यह बोध जाता रहा कि  उन्हें दूसरों की किताबों को नहीं छूना चाहिए। ऐसी ही एक किताब ने उन्हें पश्चिमी देशों के उस दर्शन से भी परिचित करा दिया जो भारतीय सोच को पश्चिम से पूरी तरह विलगाता है।
पश्चिम में शरीर के अंगों को छिपाना नहीं सिखाया जाता। इसमें कोई रहस्य नहीं है। शरीर की तमाम स्पष्ट प्रणालियाँ हैं, और इन प्रणालियों के अपने-अपने कर्त्तव्य। इन प्रणालियों पर किसी को कोई आपत्ति करने की न तो ज़रुरत है और न ही अधिकार। जो पूर्वी देश ऐसा करते हैं वे वैज्ञानिक स्वास्थ्य के नाम पर नुक्सान ही उठाते हैं। शरीर की सैंकड़ों हड्डियों, हज़ारों अंगों, लाखों कोशिकाओं और दर्ज़नों क्रियाओं में से किसे हम अवर्णनीय, त्याज्य, टिप्पणी न करने योग्य मुक़र्रर करें और क्यों?
शरीर में एक छेद भोजन जाने के लिए है वैसे ही एक भोजन का अपशिष्ट बाहर निकालने के लिए।दोनों को ही रोज़ साफ़ रखना भी ज़रूरी है। कीटाणु-बैक्टीरिया दोनों में पनप कर उन्हें रोग-ग्रस्त कर सकते हैं। तो दोनों में से एक को अश्लील या छिपाने योग्य कह कर हम क्या सिखाना चाहते हैं? केवल कुंठा, अवसाद, रुग्ण-मानसिकता !  

7 comments:

  1. Agreed. I think our ancestors were far ahead in this understanding. The great example is of Kamsutra and the art of Ajanta.

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  2. बहुत ही तर्कपूर्ण बात रखी आपने ।

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  3. बड़ी अलग सी बात कही है आपने

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  4. उपरोक्त अंश भाई गोविल के शीघ्र प्रकाशित होने वाले उपन्यास "जल तू जलाल तू " से है . यह उपन्यास दिशा प्रकाशन ,१३८/१६ ,त्रिनगर ,दिल्ली -११००३५ से प्रकाशित हो रहा है .

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  6. सही लिखा आपने हम अश्लील कह कर गलत सोच और नजरिये को बढावा दे रहे है....

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हम मेज़ लगाना सीख गए!

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