Sunday, March 31, 2013

जल तू जलाल तू

पानी की फितरत भी बड़ी अजीब है। सफीने इसी में तैरते हैं, इसी में डूबते हैं।
जिंदगी से पानी उतर जाए तो केवल आग बचती है। फिर इस बुखार में तपकर रावण सीता को चुराता है। इसी से सुलग कर राजकन्या मीरा पत्थर की मूर्ति पर सिर रगड़ती है। इसी तूफ़ान से अभिमन्यु कोख में चक्रव्यूह चीरना सीखता है, इसी के ताप से भस्मासुर शिव के पीछे भागता है।
[दिशा प्रकाशन, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास "जल तू जलाल तू" के सरोकार]

Thursday, March 28, 2013

पश्चिम और भारत

किताब किसी की नहीं होती। वह उसी की होती है जो उसे पढ़े। बारीक अक्षरों में लिखी यह इबारत उन्हें एक जगह एक किताब में दिखी तो उनके मन से यह बोध जाता रहा कि  उन्हें दूसरों की किताबों को नहीं छूना चाहिए। ऐसी ही एक किताब ने उन्हें पश्चिमी देशों के उस दर्शन से भी परिचित करा दिया जो भारतीय सोच को पश्चिम से पूरी तरह विलगाता है।
पश्चिम में शरीर के अंगों को छिपाना नहीं सिखाया जाता। इसमें कोई रहस्य नहीं है। शरीर की तमाम स्पष्ट प्रणालियाँ हैं, और इन प्रणालियों के अपने-अपने कर्त्तव्य। इन प्रणालियों पर किसी को कोई आपत्ति करने की न तो ज़रुरत है और न ही अधिकार। जो पूर्वी देश ऐसा करते हैं वे वैज्ञानिक स्वास्थ्य के नाम पर नुक्सान ही उठाते हैं। शरीर की सैंकड़ों हड्डियों, हज़ारों अंगों, लाखों कोशिकाओं और दर्ज़नों क्रियाओं में से किसे हम अवर्णनीय, त्याज्य, टिप्पणी न करने योग्य मुक़र्रर करें और क्यों?
शरीर में एक छेद भोजन जाने के लिए है वैसे ही एक भोजन का अपशिष्ट बाहर निकालने के लिए।दोनों को ही रोज़ साफ़ रखना भी ज़रूरी है। कीटाणु-बैक्टीरिया दोनों में पनप कर उन्हें रोग-ग्रस्त कर सकते हैं। तो दोनों में से एक को अश्लील या छिपाने योग्य कह कर हम क्या सिखाना चाहते हैं? केवल कुंठा, अवसाद, रुग्ण-मानसिकता !  

Tuesday, March 26, 2013

दोस्तों के प्रकार

दोस्त चार प्रकार के होते हैं। एक, जिनसे मिलने की इच्छा हर समय बनी रहती है। दूसरे वे, जिनका इंतज़ार रहता है। तीसरे, जिनके आने की आहट कानों में गूंजती रहती है।चौथे वे, ...जो शायद आ गए! दरवाज़े की घंटी बज रही है। बाकी बात बाद में ...अभी आप सब को होली की शुभकामनायें!
सुबह आपसे हो रही बात के बीच ही एक विराम आया था, जिस से बात रुक गई थी। आज शाम को जब मैं घूमने निकला तो सड़कें काफी खाली-खाली सी थीं। कारण भी था, त्यौहार के अवसर पर आसपास के बहुत से लोग शहर छोड़ कर निकल जाते हैं। जो स्थानीय लोग होते हैं वे भी अपनों के बीच घर पर ही रहना पसंद करते हैं। बहरहाल, खाली सड़क पर घूमने का एक लाभ यह हुआ कि  मैं घूमते-घूमते भी कुछ सोच पाया। मैंने सोचा कि  टहलने के साथ-साथ इस बात का जायजा भी लिया जाए, कि  होली का त्यौहार रंग खेल कर न मनाने वाले लोग लगभग कितने और कौन से हैं। मैंने पाया-
१. वे रोज़ रोटी कमाने वाले लोग, श्रमिक, साग-सब्जी वाले, रिक्शा वाले रंग नहीं खेल रहे हैं।
२. वे विद्यार्थी, जिनके बोर्ड या विश्वविद्यालय के इम्तहान चल रहे हैं, या शुरू होने वाले हैं, रंग नहीं खेले।
३. कष्ट या रोग में घिरे लोग, या उम्र की थकी पायदानों पर थमे लोग भी रंगों से बेपरवाह थे।
४. कुछ ऐसे लोग भी थे, जो देश के कुछ भागों में घोषित सूखे और पानी की कमी के चलते भी बदन को रंग लेने और फिर पानी से उसे साफ़ करने की इस मुहिम से नहीं जुड़ पाए।
दोस्त देश के भी होते हैं, अपने भविष्य और परिजनों के भी। दोस्त अपने रोज़गार के भी होते हैं। दोस्त कई प्रकार के होते हैं।    

होली में ये काले-पीले चेहरे

होली आई नहीं, कि  सबने तरह-तरह के रंगों की बौछार उड़ानी शुरू कर दी। लगता है कि विपक्ष ने भी  सत्ता पर छींटे उड़ाने की तैयारी  पूरी कर ली है। मुलायम सख्त होने लगे, तो माया मायावी होने लगी हैं। सत्ता के कीचड़ में खिलने को आतुर कमल अब अकेला नहीं, अरविन्द भी हैं। करुणा और जयललिता ने सरकार की भागीदारी कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैलाने को कमर कसी है। ममता, रामदेव, अन्ना और नीतीश, होली तो सबका त्यौहार है। उधर कांग्रेस के कॉन्फिडेंस के क्या कहने-
          चाहे कोउ भूखौ मरे, चाहे भरपेट खावै, काम चाहे जो भी करै,फैसला हमारौ है
          तीतर उड़े तो कोउ आवेगौ बटेर यहाँ,  अंडा चाहे जाके रहें,  घोंसला हमारौ है।    

Monday, March 25, 2013

हमारा कार्य,पंचतंत्र और हम

उन दिनों मैं एक ऐसे विश्वविद्यालय से जुड़ा था, जो नर्सरी से डीलिट तक शिक्षा देता था। मैं एक मित्र के घर भोजन पर निमंत्रित था। मित्र एक पत्रिका के संपादक थे, जो स्वास्थ्य,दिनचर्या तथा पारिवारिक विषयों की सामान्य जानकारी देती थी। वे बारीकी से बताते थे, कि  भोजन कैसा हो, कैसे खाया जाए, कैसे उसकी पौष्टिकता बनाए रखी जाये, आदि।
थोड़ी ही देर में स्वादिष्ट भोजन की व्यंजनों से भरपूर थाली हमारे सामने आ गई। उन्होंने एक बड़ा सा कौर अपने मुंह में डाला। मैंने भी शुरुआत की।
अभी कुछ क्षण ही बीते होंगे कि  उन्होंने कौर चबाते-चबाते मुझसे पूछा- "विश्वविद्यालय की फीस कितनी होती है?"
मैंने अपने मुंह का कौर जल्दी से निगला और उनके प्रश्न का उत्तर देने लगा- "नर्सरी में सौ रु. महीने-हर तिमाही में देने पर दो सौ पचहत्तर रु.-अर्धवार्षिक रूप से देने पर पांच सौ पच्चीस रु.-एक साथ देने पर एक हज़ार रु. साल भर के।" फिर इसी तरह मैंने उन्हें पहली क्लास से डीलिट तक, फिर विषयानुसार अलग-अलग, फिर डे-स्कॉलर और होस्टल की फीस, फिर परीक्षा शुल्क बताना जारी रखा, वे सुनते रहे और खाते रहे।
कुछ देर बाद उनकी पत्नी प्लेट में रोटी लेकर आईं और मुझसे बोलीं-"अरे, आपने तो कुछ खाया ही नहीं, खाना  पसंद नहीं आया क्या?"
मैं केवल मुस्करा कर रह गया। मुझे बचपन में पढ़ी पंचतंत्र की वह कहानी याद आने लगी कि किस तरह एक लोमड़ी ने सारस को खाने पर बुलाया और एक ही थाली में दोनों के लिए खीर परोस दी। सारस अपनी लम्बी चोंच से कुछ दाने ही चख पाया था कि  लोमड़ी ने खीर ख़तम कर दी। अगले दिन सारस ने लोमड़ी को आमंत्रित किया और एक सुराही-नुमा बर्तन में भोजन परोसा। लोमड़ी बर्तन में मुंह डालने की कोशिश ही करती रही, और सारस ने अपनी लम्बी चोंच से भोजन समाप्त कर डाला। 
मैं मन ही मन सोचने लगा कि  अगले सप्ताह उन मित्र को खाने पर बुलाउंगा और उनके खाना शुरू करते ही उनसे पूछूँगा कि  आप पत्रिका में किस विषय पर लेख छापते हैं?   
  

Thursday, March 21, 2013

वो अभिनेता ही क्या, जिसकी अपनी कोई मार्मिक कहानी न हो

दूसरों के लिखे संवाद तो दुनिया का हर अभिनेता बोलता है। किसी और के निर्देशों पर अभिनय करना एक्टरों का पेशा ही है। नृत्य निर्देशकों की तालियों पर सुपरस्टार थिरकते हैं। स्टंट निर्देशकों के सोच पर ये करोड़ों कमाने वाले हैरत-अंगेज़ कारनामों में जान झोंक देते हैं। यह सब तो रोज़ का काम है। इसमें क्या रोमांच?
लेकिन कभी-कभी किसी कलाकार को नियति खुद अपने हाथों से गढ़ती है।
कोई मधुबाला दर्द से तड़पती  रहती है, और कहीं से किसी निर्देशक की आवाज़ नहीं आती- "कट"
कोई मीना कुमारी जाम पर जाम पिए जाती है और कोई निर्देशक नहीं कहता- "ओके, अब गिलास रख दो"
कोई गुरुदत्त दुनिया को कोसता रहता है, और मेहनताने का चेक लेकर कोई निर्माता नहीं आता
कोई स्मिता पाटिल मरने का जीवंत सीन देती है, और पब्लिक ताली नहीं बजाती
कोई दिव्या भारती ऊंची इमारत से छलांग लगा देती है और नीचे "सेफ्टी नेट" नहीं होता
कोई राजेश खन्ना 'नीलीछतरी वाले' से बात करने आसमान में जाता है, और नीचे चिता तैयार होने लगती है
कोई बेड़ियों में जकड़ा संजय दत्त जेल की तरफ कदम बढाता है, और संतरी औटोग्राफ लेने नहीं दौड़ते।
कुछ पटकथाएं विधाता खुद लिखता है।  

Wednesday, March 20, 2013

अगले सप्ताह प्रिज्म में से गुजरेगा समय

जिसने दुनिया बनाई है, वह बड़ा रंगरेज़ है। उसकी बनाई कौन सी चीज़ कब कौन सा रंग बदल ले, कोई नहीं जानता। उसके पास न रंगों की कमी है और न उमंगों की।
चमकीला सफ़ेद प्रकाश चलते-चलते जब किसी प्रिज्म में से गुजरता है तो यकायक उसमें से कई रंगों की शाखाएं निकल पड़ती हैं। इस अद्भुत नज़ारे को देख कर सब यही सोचते हैं कि यह रंगीनियाँ अब तक कहाँ  छिपी थीं। लाल, नीले, पीले, हरे, गुलाबी, नारंगी, बैंगनी रंगों की यह छटा सब का मन मोह लेती है।
सोचिये, यह मनभावन रंग जब तन-बदन पर छिटके हों, तो सारा नज़ारा कैसा लगेगा? जिसे आप चाहते हों, जिसे कल्पनाओं और सपनों में देखते हों, वह यदि इस तरह रंगों से रंगकर आपके सामने चला आये, तो ? आकर इन हलके-गहरे रंगों की हलकी सी बौछार आप पर भी छलका दे तो?
इन सब नजारों के लिए तैयार हो जाइये, अब।
बस, एक सप्ताह बाकी है, आपके और होली के बीच में। अग्रिम शुभकामनायें।

Tuesday, March 19, 2013

मुद्दों पर नट

जब कोई भी दो व्यक्ति बात करते हैं, तो कभी एक दूसरे  से सहमत होते हैं, कभी असहमत। जब पांच सौ बयालीस व्यक्ति बात करते हैं, तो ...
लेकिन अनर्थ आसानी से नहीं होता। असहमति के जितने सुर होते हैं, रिज़र्व बैंक के पास उतने ही ताल। मतलब यह, कि  गांधी की फोटो का कागज़ सबकी सब विपदाएं हरने में सक्षम है।
रोते बच्चे को लॉलीपाप , रोते युवा को नौकरी, रोते बूढों को पेंशन, सबका कोई न कोई इलाज तो होता ही है। मुद्दे तीन हों, या तेरह, चार चाबुकों से सब सध  जाते हैं- साम, दाम, दंड, भेद। बस बढ़िया नट  चाहिए।
फिर मुसीबतों के घाट पर तारणहारों की कमी थोड़े ही है। एक जाने को तैयार तो दो आने को।

Monday, March 18, 2013

विकल्प और संशोधन

यदि कोई काम ठीक न हो रहा हो, तो इसे रास्ते पर लाने के दो तरीके हैं। एक तो यह, हम देखें,कि  काम न कर पाने वाले को हटा कर उसकी जगह कोई दूसरा सक्षम विकल्प लायें। विकल्प ऐसा हो, जिसमें पहले व्यक्ति जैसी कमियां न हों। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि  त्रुटिहीन व्यक्ति दुनिया में अभी नहीं बना। अतः जो दूसरा व्यक्ति लाया जाएगा, उसमें कोई और कमी होगी।
तो क्या चीज़ें कभी ठीक न होंगी?
नहीं, यह बात हम कभी नहीं मानेंगे। चीज़ों को ठीक करने के लिए हमें लगातार प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को बदलते रहेंगे, ताकि सब अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार हालात को बेहतर बना सकें। एक की कमी दूसरा सुधार दे, दूसरे की भूल तीसरा ठीक कर दे।
दूसरा तरीका यह है कि  हम विकल्प की जगह संशोधन पर काम करें। एक व्यक्ति से हुई भूलें ठीक कर ली जाएँ, व्यक्तियों की जगह स्थितियों और तरीकों को बदला जाए।
यह दूसरा तरीका हम अतीत में "राजतंत्र" के रूप में देख चुके हैं। अतः अब विकल्पों पर सोचना अच्छा होगा।

Sunday, March 17, 2013

उन्हें इस देश की फितरत का अंदाज़ हो जाना चाहिए था

वे स्विट्ज़रलैंड से आये थे। शायद उन्हें ये अहसास नहीं था कि वे उस देश में जा रहे हैं, जहाँ के बड़े-बड़े रसूखदार लोग अपना पैसा रखने के लिए उनके देश स्विट्ज़रलैंड में आते हैं। उन निर्दोष भोले-भाले युवाओं ने सोचा था कि  जब भारत का पैसा उनका देश सुरक्षित रख लेता है तो शायद उनके देश के लोगों की जान भारत भी सुरक्षित रखेगा। वे किसी जोखिम भरी सरहद पर नहीं थे, देश के बीचोंबीच अर्थात मध्यप्रदेश से गुजर रहे थे। उन्होंने अपनी यात्रा के लिए कोई संदिग्ध युद्धपोत, लड़ाका विमान या जासूसी का हेलिकोप्टर नहीं चुना था, वे बच्चों की तरह सायकिल से गुजर रहे थे। उन्होंने अँधेरी रात में कोई खुफिया बंकर नहीं बांधा  था वे एक परी-कथाओं से शामियाने में बसर कर रहे थे।
उन्हें क्या मालूम था कि यह ऐसे वीर जवानों का देश है जो आधी रात भेड़ियों की तरह निर्दोष विदेशी अतिथियों पर टूट पड़ेंगे और उनकी जान ही नहीं, बल्कि इज्ज़त से खिलवाड़ करेंगे। वे कहाँ जानते थे कि  अपने आप को तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था कहने वाले देश में उनका ज़रूरी साज-सामान इस तरह लुट जाएगा। उन्हें नहीं पता था कि  "नारी तू नारायणी" गाने वाले मुल्क में पशुओं से भी बदतर इंसानों से उनका वास्ता पड़ेगा।
खैर, हमारे पास धैर्य की कोई कमी नहीं है। विदेशी जोड़ा अपने देश लौट जाएगा। हमारे दरिन्दे या तो पकड़े ही नहीं जायेंगे, यदि पकड़ भी लिए गए तो जेल में उनके रोटी-कपड़ा और सेहत के लिए आवाज़ उठाने वाले कहीं न कहीं से नमूदार हो ही जायेंगे। और फिर कोई मंत्री ऐलान कर देगा कि धीरे-धीरे पब्लिक सब भूल जाती है।         

Saturday, March 16, 2013

तोता-चश्म सिर्फ बच्चे ही नहीं, बड़े भी होते हैं

 कहा जाता है कि  बच्चे "तोता-चश्म" होते हैं। अर्थात, वे उसी चीज़ या बात की ओर  ध्यान देते हैं, जो उनके सामने होती है। बाकी को भुला देते हैं। जैसे यदि कोई बच्चा अपने पापा के साथ जाने को मचल रहा हो, और उसकी मम्मी उसे कोई खिलौना दिखा कर बहलाए, तो बच्चा पापा से ध्यान हटा कर खिलौने की ओर  आकर्षित हो जाता है।
लेकिन यह बात केवल बच्चों की ओर से ही नहीं होती, बल्कि बड़े भी ऐसा ही करते हैं।
आजकल यह चलन बनता जा रहा है कि  लोग जेलों की सुविधाओं पर सवाल उठाने लगे हैं। जैसे- जेल में रोटी अच्छी नहीं मिली, रोगी की देखभाल नहीं हुई, उसके साथ व्यवहार अच्छा नहीं हुआ, आदि -आदि। ऐसा कहने वाले "मानवता" के हितैषी यह बिलकुल भूल जाते हैं, कि  वह वहां क्यों आया था? यदि उसके कुछ अधिकार हैं, तो उसके भी कुछ अधिकार थे, जिसे मार कर ,जिस पर हमला कर के, या जिसकी चोरी करके कोई कैदी यहाँ आया था। जो मारा गया,वो गया, अब जो बचा, उसके ठाठ-बाट में कमी नहीं आनी चाहिए? क्या यही है न्याय?
जिस दरिन्दे ने पिशाचों की तरह हमला करके निर्दोष लड़की का जीवन सरेआम उजाड़ा, उसपर भी ये सवाल उठ रहे हैं, कि  उसे कौनसी-कैसी यातनाएं जेल में दी गईं, जिसके कारण उसने आत्म-ह्त्या कर ली। क्या ऐसा कहने वाले भी उसके अपराध में शामिल नहीं माने जाने चाहियें?  

Thursday, March 14, 2013

नया नहीं है सोलह का आंकड़ा

आपको याद है?
श्रीदेवी का सोलहवां सावन ?
टीना मुनीम- मैं सोलह बरस की, तू कितने बरस का?
बबिता -सोलह साल की उमर, कोका कोला सी कमर
सायरा बानो-तारे गिन-गिन के बरस भये सोला, कैसे दीवाने पे दिल तोरा डोला?
पद्मिनी कोल्हापुरे- सोला बरस की बाली उमर को सलाम
रेहाना सुलतान-जब मैं हो गई सोला बरस की, सर से दुपट्टा मोरा लीना
   ये कोई नई बात नहीं है जब सरकार या क़ानून 'प्रेम शास्त्र' में सोलह का आंकड़ा जोड़ने जा रहे हों? हमारी कई पीढ़ियाँ यही सुन के जवान हुई हैं-"सदा तेरी इतनी उमर रहे ओ सनम, न सत्रह से ज़्यादा न सोलह से कम" या फिर- "तन-मन दे डाला मैंने सोलह साल वाला, तूने एक ख़त भी न डाला, पंद्रह पैसे वाला"
देश के "राष्ट्रपिता" की जब शादी हुई तो उनकी पत्नी सोलह साल से कहीं कम उम्र की थीं। हम में से आज भी ऐसे कितने हैं जिनके दादा-दादी या नाना-नानी का विवाह सोलह साल की उम्र में नहीं हो गया?
केवल तीन कारण थे,जिन्होंने धीरे-धीरे "इस"आयु को अठारह, इक्कीस और फिर पच्चीस तक, बल्कि और भी आगे पहुंचाया-
१. हम स्त्री-शिक्षा और उच्च शिक्षा की अवधि को और बढ़ा कर देश की जनसंख्या का दबाव कम करना चाहते थे।
२. आर्थिक हालातों के चलते देश में जल्दी रोज़गार पाना आसान न रहा।
३. सुरक्षित शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए विज्ञान ने कई महफूज़ रास्ते निकाल दिए।
अतः ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है कि इस नई व्यवस्था से कोई बहुत बड़ा सामाजिक नुकसान होने जा रहा है। बल्कि हमने जब से यह उम्र बढ़ाई तब से दुष्कर्म और यौन हिंसा के मामले ज्यादा बढ़ गए। जो लोग सोलह साल के बच्चों को "बच्चा" समझ कर बिगड़ जाने की दुहाई दे रहे हैं वे इन रिपोर्टों पर भी ध्यान दें, कि  देश में बारह साल से बड़ी आयु के ६६ प्रतिशत बच्चे "यौन क्रिया"की अनुभूति से गुज़र चुके होते हैं, लेकिन ये अवैध होने और अपराध घोषित होने के कारण इस पर चुप्पी लगाना ठीक समझते हैं।      

भारत में जबरदस्त पूँजी उछाल

यदि किसी देश का धन यकायक बढ़ जाए तो यह ख़ुशी की बात है, और इस के लिए उस देश को बधाई दी जानी चाहिए।
हम बात कर रहे हैं देश के उन साढ़े चार करोड़ युवाओं की जिन्हें सरकार अब "समझदार" युवा मानने जा रही है। सोलह साल से लेकर अठारह साल तक के इन युवाओं को अब एक अहम अधिकार मिलने जा रहा है। आइये जानें कि  यह अधिकार देश का धन किस तरह बढ़ाएगा।
१. देश की अधिक अधिकार संपन्न जनसंख्या में बढ़ोतरी  होगी।
२. देश में विवाह की न्यूनतम आयु अठारह वर्ष है, अब इससे पहले दो वर्ष का समय युवाओं को गृहस्थ जीवन की बुनियादी शारीरिक क्रियाएं वैध तरीके से जानने-सीखने का अवसर प्राप्त होगा, और वे बाद में अधिक अनुभवी व आत्म-निर्भर गृहस्थ सिद्ध होंगे।
३. यह अधिकार उन्हें उपयुक्त जीवनसाथी चुनने में सहायता देगा। अभी उन्हें जो भी अनुभव होता है वह गैर-कानूनी और अपराध-बोध ग्रसित होता है।
४. किसी देश की खुश जनसंख्या उसकी पूँजी ही है।

Monday, March 11, 2013

वकीलों और पुलिस की हड़ताल

भारत का गुलाबीनगर जयपुर इन दिनों एक अजीबो-गरीब संकट से जूझ रहा है। आम दिनों में लोगों के अधिकार की रक्षा करने वाले वकील इन दिनों खुद अपनी ज़रूरतों की जंग लड़ रहे हैं। इन्हें सड़कों पर नारे लगाते, शहर के महत्वपूर्ण और संवेदन शील इलाकों की ओर  कूच करते, तथा पुलिस पर पत्थर फेंकते शहर के छोटे-बड़े हर वाशिंदे ने देखा है। अब देखना यह है कि  सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद ये लोग जनता को "क़ानून अपने हाथ में न लेने" की सलाह किस तरह देंगे।
विडम्बना यह भी है कि  शहर की पुलिस को भी अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए ऐसे ही उपायों का सहारा लेना पडा। जब माननीय न्यायालय ने कुछ पुलिस उच्चाधिकारियों को ज़िम्मेदार ठहराया, तो पुलिस वाले भी उनके समर्थन  में सड़क पर आ गए। पुलिस कर्मियों का अपने वरिष्ठों के लिए ये सम्मान अच्छा लगा। फिर भी, कुछ ऐसा हो पाता  जो जनता के लिए सुविधाजनक होता, तो शायद और बेहतर होता।

Saturday, March 9, 2013

चारों क्यों नहीं?

जब कभी क्षेत्रीय अंतर की बात होती है, तो भारत में हम उत्तर दक्षिण की बात करते हैं। यदि कभी भारत और अन्य देशों की बात होती है तो अधिकतर पूरब पश्चिम की बात की जाती है।
भारत में उत्तर दक्षिण दो अलग-अलग संस्कृतियाँ हैं। यहाँ भी प्रतिनिधित्व पंजाब और तमिलनाडु का रहता है। इसी तरह जब  दुनियां की बात होती है तो एशिया और यूरोप पूर्व पश्चिम का प्रतिनिधित्व करते हैं।
लेकिन ये सारे अंतर और विभेद तब कोई अर्थ नहीं रखते जब बात भारत और पाकिस्तान की हो।
आज पाक प्रधान मंत्री जयपुर आये। यहाँ रामबाग पैलेस होटल में सलमान खुर्शीद ने उनकी अगवानी भी की और उनके सम्मान में भोज भी दिया। यहाँ से वे अजमेर के लिए रवाना हुए जहाँ वे ख्वाज़ा मोइउद्दीन चिश्ती की दरगाह में जियारत करेंगे।
भारत और पाक की दोस्ती-दुश्मनी सब दिशाओं की है। अब सोचा भी नहीं जा सकता कि  कभी ये एक थे। जब सगे भाई अलग हों तो खून-खराबा ज्यादा ही होता है।   

Thursday, March 7, 2013

सही उत्तर?

आज अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस है। कुछ देर पहले एक सहयोगी महिला को मैंने जब इसकी बधाई दी, तो उन्होंने पूछ लिया- " क्या कोई अंतर राष्ट्रीय पुरुष दिवस भी होता है?" मैं थोड़ा सोच में पड़ा। मुझे लगा, कि  इनका सवाल गंभीर है।
इसका क्या उत्तर दिया जाए, यह मैं अभी विचार ही रहा था कि  एक और मित्र की आवाज़ आई- "हाँ "
वह जिज्ञासा से बोलीं- "अच्छा, कौन सा है वह?"
मित्र बोले- "एक जनवरी से लेकर इकत्तीस दिसंबर तक, आठ मार्च छोड़कर।"
सोचिये- "इस उत्तर में कितना परिहास है, कितनी सच्चाई, कितना व्यंग्य, कितना पश्चाताप?"
बहरहाल सभी को इस दिन की बधाई! विशेष रूप से उन महिलाओं के प्रयास, दायित्व और उत्कंठा को नमन, जो इस एक दिन को तीन सौ चौंसठ दिनों से ज्यादा भारी  बनाने में दिन-रात जुटी हैं। जो लोग यह समझते हैं कि  पुरुष महिलाओं की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हैं, वे शायद ये नहीं जानते कि  केवल पाशविक ताकत रखने वाले डायनासोर दुनिया से लुप्त हो गये। मानसिक शक्ति रखने वाली चिड़िया भी तरह-तरह के रंगों और प्रजातियों में दुनिया के गुलशन को गुलज़ार कर रही हैं।  

Wednesday, March 6, 2013

अभी कल की सी बात है

 लगभग बत्तीस साल पहले मैंने एक उपन्यास लिखा था, जिसमें मैंने कहा था कि  हम प्रकृति की अनदेखी नहीं कर सकते। यदि प्रकृति के अनुसार कोई फल पंद्रह साल में पकता है, तो हम यह नहीं कह सकते, कि  अभी हमें भूख नहीं है, हम इसे पच्चीस साल में खायेंगे।
"देहाश्रम का मनजोगी" की कथावस्तु यही थी, कि  हम आर्थिक कारणों से विवाह की उम्र बढ़ाते जा रहे हैं,जिसके नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ रहे हैं। यह बाल-विवाह की हिमायत नहीं है, किन्तु किसी भी समाज में पच्चीस साल तक युवक या युवती किसी परस्पर आकर्षण के बिना नहीं रह सकते। यदि हम चाहते हैं कि  पढ़ाई पूरी कर के रोज़गार से लग जाने और मानसिक रूप से परिपक्व हो जाने के बाद ही युवाओं का विवाह हो, तो हमें यह जिद छोड़नी होगी कि विवाह के समय तक युवक या युवती शारीरिक रूप से भी तब तक बिना किसी स्पर्श के पूर्ण ब्रह्मचारी ही रहें। हम साधू-सन्यासियों की नहीं, आम आदमी की बात कर रहे हैं।
यह ख़ुशी की बात है कि  हमारा कानून अब सहमति से यौन सम्बन्ध बनाने की न्यूनतम उम्र अठारह से घटाकर सोलह साल करने जा रहा है।
समाज में दिनोंदिन बढ़ रही लैंगिक अराजकता पर यह क़ानून कुछ तो सकारात्मक प्रभाव डालेगा।     

Sunday, March 3, 2013

जिह्वा बाग़ और तरह-तरह के 'फूल'

बागों की अपनी महत्ता है. निशात बाग़, शालीमार बाग़, मुग़ल गार्डन का जलवा आज भी कायम है। जब बड़े और रईस लोग रहने के लिए मकान बनाते हैं, तो उसमें शानदार बगीचे का प्रावधान ज़रूर होता है। यहाँ तक कि  अब तो लोग आसमानी ऊंचाई पर भी टेरेस गार्डन बना लेते हैं। बेबिलोन के हैंगिंग गार्डन तो बरसों से जग-विख्यात हैं। बड़े-बड़े नेता और अफसर चाहे दिनभर उदघाटन, भाषण, मीटिंग आदि के लिए घर से बाहर रहें, पर उनके बंगलों के इर्द-गिर्द बगीचे बनाए जाते हैं।
बचपन में हमारे विद्यालय के आगे भी एक बगीचा होता था, जिसमें तरह-तरह के फूल लगे होते थे।
संसद और विधान सभाओं के परिसर में भी तरह-तरह के फूल ...खैर, बात लम्बी हो गई।
विद्यालय के बाग़ में एक फिसलनी [स्लाइड्स] होती थी, जिस पर हम लोग जाकर खाली समय में फिसला करते थे। फिसलने में कभी आनंद आता था तो कभी चोट लग जाती थी।
आजकल वैसी फिसलनी बड़े-बड़े लोगों के मुंह के भीतर ही होती हैं। जहाँ उनकी जिह्वा जब चाहे फिसलती रहती है। इसमें कभी आनंद आता है [ उन्हें] तो कभी चोट लगती है [दूसरों को]।    

Saturday, March 2, 2013

फेफड़े में पानी

कुछ दिन पहले मेरे एक परिचित अपनी दुकान पर बल्ब लगाते हुए स्टूल फिसल जाने से गिर गये। दुकान पर उस समय उनका एक किशोर नौकर ही था। उसने ही उन पैंसठ साल के मालिक को सम्हाला और लेटा दिया। जब उसने देखा कि  मालिक को थोड़ी बेचैनी हो रही है तो उसने अपना कर्त्तव्य समझ कर दूकान को बंद किया और एक रिक्शा से उन्हें पास के एक नर्सिंग होम में ले गया। थोड़ी ही देर में जांच कर डॉक्टर ने बताया कि  उनके फेफड़े में पानी भर गया है, जिसे निकालना होगा। नौकर ने मालिक से सलाह की, पर मालिक आश्वस्त नहीं दिखे और बोले कि  वह उन्हें वापस घर ले चले। डॉक्टर की परामर्श फीस देकर वे दोनों लौटने लगे। उन्हें रास्ते में एक और डॉक्टर का बोर्ड दिखाई दे गया।
उन्होंने सोचा, बात की पुष्टि कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं है। अतः उन्होंने दूसरे डॉक्टर से परामर्श किया। वहां उन्हें बताया गया कि  फेफड़े में खुश्की, अर्थात कफ जम जाने से जकड़न हो गयी है, जिसे साफ़ करना होगा। वे वहां से भी केवल परामर्श शुल्क देकर निकल लिये।
वापस लौट कर वह सामान्य होकर जब काम में लग गए, नौकर को राहत मिली। उसने पूछ लिया- "मालिक, फेफड़े होते कहाँ हैं?"
उन्होंने सीने पर हाथ लगा कर बता दिया- "यहाँ"
नौकर आश्चर्य से बोला-"मगर आप गिरे तो पीठ के बल थे"
वे बोले-"गिरते हुए तो तूने देखा था, डॉक्टर साहब ने कहाँ देखा?" यह कह कर वे जोर से हँसने लगे।
नौकर की समझ में नहीं आया, कि  मालिक चोट खाकर भी हँस क्यों रहे हैं। वह कभी स्टूल को देखता, कभी मालिक की पीठ को।     

Friday, March 1, 2013

बीस साल बाद हमारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे

शीर्षक पढ़ कर आप सोच रहे होंगे कि  मैंने कितनी सकारात्मक और आशावादी बात कह दी।पर वस्तुतः ऐसा नहीं है, मैं हमेशा की तरह उलटबासी से आपको कष्टों के बारे में ही कह रहा हूँ। यह चिंतित होकर कही जा रही चिंता की ही बात है।
आज हमें लगता है कि  सब कुछ तेज़ी से बदल रहा है, और हम अपने मूल्यों को खोते हुए देख रहे हैं।
मैं कहना तो यही चाह रहा हूँ, कि  कुछ वर्ष बाद हमारे मूल्य ऐसे रहेंगे ही नहीं कि  जिनके खोने का हमें दुःख हो। जब हम अपने को गिरता देखेंगे ही नहीं, तो दुःख भी क्यों होगा? और इस तरह हमारे दुःख या कष्ट दूर हो जायेंगे।
लेकिन अब मुझे समझ में आ रहा है कि  यह भी तो एक तरह का कष्ट ही है, जो हम इस तरह रसातल में पहुँच जाएँ, कि  और गिरने की गुंजाइश ही न रहे।
नही-नहीं, मुझे यह भी यकीन है कि  हमारी नई पीढ़ी कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर सोचेगी, जो हमें कष्टों में नहीं पड़ने देगा। गली-मोहल्लों में खेलते बच्चे, कितने अलग और समझदार होते जा रहे हैं, कि  हर बात का कोई न कोई हल हर समय रहेगा।
मैं जब किसी बहुत छोटे बच्चे को देखता हूँ तो मुझे लगता है कि  जब यह बीस साल का होगा तो कितना ज्यादा सीख चुका होगा?  हम जो बातें बरसों में सीख पाए, वे ये बच्चे लम्हों में सीख रहे हैं। और तब सचमुच मुझे लगता है कि  बीस साल बाद हमारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे।     

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