Tuesday, January 29, 2013

ये क्या था?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ख़त्म होने के बाद मुझे कई सन्देश मिले, लेकिन उनमें से केवल 'दो' का ज़िक्र मैं यहाँ कर रहा हूँ। एक मध्य प्रदेश से आये मेरे एक मित्र का था जो कह रहे थे कि  इन तीन-चार दिनों में उनकी साल-भर की थकान उतर गई, उन्हें यह अहसास हुआ कि  वे साहित्य से अभी भी जुड़े हैं, और साहित्य लोगों के बीच अब भी घूम रहा है।
दूसरा सन्देश मेरे एक स्थानीय मित्र का था, जो अपने काम से छुट्टी लेकर लगातार फेस्टिवल में उपस्थित रहे थे, और अब पूछ रहे थे कि  "यह क्या था?"
मुझे लगता है कि  आयोजकों ने उन दोनों को अलग-अलग कार्यक्रम नहीं परोसे होंगे। ठीक वैसे ही, जैसे किसी परीक्षा में सभी परीक्षार्थियों को एक से आकार की खाली कॉपी दी जाती है, पर उस पर लिख कर दो परीक्षार्थी अलग-अलग परिणाम ले आते हैं, वहां भी इन दोनों के साथ कुछ वैसा ही घटा होगा। जब हम किसी बाज़ार में जाते हैं,तो केवल यही तथ्य काम नहीं करता कि  वहां क्या है, यह सभी बातें भी चलती हैं कि हम वहां क्या ढूंढ पाए, हमारी क्रय-शक्ति क्या थी,हम अपनी आकांक्षा या लालसा के कितने दीवाने थे?
मैं न तो आयोजकों का बेवजह बचाव कर रहा हूँ, और न ही अपने मित्रों की आलोचना, मैं तो केवल यह कह रहा हूँ, कि  सर्दी उतरने लगी है, वसंत आने को है, मौसम भीतर झाँकने लगा है। ये जो भी था, बीत गया, जो आ रहा है, वह कम दिलचस्प नहीं है।   
 

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