ये बड़े आश्चर्य की बात है, कि पिछले कुछ दिनों से भारतीय मीडिया दुष्कर्म और घरेलू हिंसा की ख़बरों से भरा पड़ा है। शायद इसका एक कारण यह है कि पिछले दिनों के जन-आन्दोलनों के कारण इस तरह की घटनाओं पर कड़ा दंड देने की मांग जोर पकड़ने लगी है। एकाएक ऐसा लग रहा है, कि शायद इस तरह के मामले दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं। पर सच्चाई यह है कि ऐसी घटनाएं समाज में बड़ी संख्या में पहले से ही व्याप्त हैं, पर इन पर कार्यवाही की कोई माकूल व्यवस्था न होने के कारण वे सामने नहीं आ पातीं। सच है, जब दोषी का कुछ बिगाड़ने की व्यवस्था ही नहीं होगी तो कौन उसकी शिकायत का जोखिम लेगा।
यदि सजा के उपयुक्त प्रावधान होंगे तो लोगों में इस ओर जागरुकता आएगी, और वे ऐसी घटनाओं की त्वरित रिपोर्टिंग में दिलचस्पी लेंगे।
रौशनी की लौ जले तो सही, कीट-पतंगे तो अपने आप क़ानून की गिरफ्त में आने लगेंगे।
महिला-सशक्तिकरण की यह तो अनिवार्य शर्त है कि उनकी बात आदर और विश्वास से सुनी जाए। कुछ लोगों को अभी से इन कानूनों के दुरूपयोग का भय भी सता रहा है। लेकिन "अपवादों" की चर्चा तभी की जानी चाहिए, जब वे वास्तव में उपस्थित हों, अन्यथा उनकी आड़ में अपराधी बचने का रास्ता ढूंढ लेंगे।
यदि सजा के उपयुक्त प्रावधान होंगे तो लोगों में इस ओर जागरुकता आएगी, और वे ऐसी घटनाओं की त्वरित रिपोर्टिंग में दिलचस्पी लेंगे।
रौशनी की लौ जले तो सही, कीट-पतंगे तो अपने आप क़ानून की गिरफ्त में आने लगेंगे।
महिला-सशक्तिकरण की यह तो अनिवार्य शर्त है कि उनकी बात आदर और विश्वास से सुनी जाए। कुछ लोगों को अभी से इन कानूनों के दुरूपयोग का भय भी सता रहा है। लेकिन "अपवादों" की चर्चा तभी की जानी चाहिए, जब वे वास्तव में उपस्थित हों, अन्यथा उनकी आड़ में अपराधी बचने का रास्ता ढूंढ लेंगे।
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