Thursday, January 31, 2013

घर

घर दो प्रकार के होते हैं।
एक घर में सुबह दिन उगने के साथ खिड़कियाँ खुलते ही धूप , हवा,पक्षी, गंध,तितलियाँ,मक्खियाँ,आवाजें आदि भीतर आने लग जाते हैं। दिनभर रौनक, चहल-पहल रहती है। वहां दोपहर होती है, तीसरा पहर होता है। शाम होती है।
दूसरे घर में सुबह दिन उगने के साथ खिड़कियाँ खुलते ही सुस्ती, घुटन, भीतर की हवा, गंध, और थकान बाहर निकलने के लिए उद्यत हो उठती है। कुछ ही देर में घर "दुनियां देखने" और दुनियां सँवारने, घर से बाहर निकल जाता है। सुबह के बाद शाम होती है, और होता है उपलब्धियों का मूल्यांकन।
पहले में जीवन बटा  हुआ होता है, कुछ लोग जीवन की गतिविधियों के रंग-मंच पर होते हैं, और कुछ उनके सहायक के तौर पर उनके लिए कार्य करते, अथवा जीवन से निवृत्त लोग होते हैं।
दूसरे में सब जीवन को सार्थक बनाने की मुहिम में अपनी-अपनी भूमिका खोजते लोग होते हैं।
इन दोनों मॉडलों में से "श्रेष्ठ" का चयन एक बेहद मुश्किल काम होता है।

क्या आप जानते हैं?

किसी का भी कभी विकास नहीं होता। यहाँ हम व्यक्तिगत बात नहीं कर रहे, ये प्रजाति या नस्ल की बात है।
कहने का तात्पर्य यह है कि  बन्दर हमेशा बन्दर, और घोड़ा  हमेशा घोड़ा  ही रहता है। करोड़ों सालों में कुछ मामूली परिवर्तन हुए हैं, जिनमें एक तो बन्दर से इंसान बन जाना और या फिर इंसान की पूँछ का विलुप्त हो जाना, जैसी बातें शामिल हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि  समय के साथ लोमड़ी हाथी बन गई हो, या फिर कबूतर लकडबग्घा बन गया हो।
तब विस्मयकारी बात यह है कि  बन्दर इंसान क्यों बन गया? और कौन सा बन्दर इंसान बन गया, क्योंकि बन्दर तो अभी भी है। क्या ईश्वर आदमी और बन्दर की अवस्थिति को लेकर किसी असमंजस में था? इंसान को सीधे ही क्यों नहीं बनाया जा सका। पहले बन्दर बना कर फिर आहिस्ता-आहिस्ता उसे इंसान में तब्दील करना, क्या सिद्ध करता है? क्या प्रकृति इंसान से आश्वस्त नहीं थी?या बन्दर बना कर उसे पूर्ण संतोष नहीं प्राप्त हुआ, फलस्वरूप उसने अपनी सृष्टि में एक बड़ा फेर-बदल कर लिया?
इसका क्या कारण हो सकता है? यदि आपके पास कोई तर्क हो तो बताएं।

Wednesday, January 30, 2013

"विश्वरूपम" व्यवहार और कीचड़ में कमल

दौलत और मेहनत लगा कर बनाई गई फिल्म "विश्वरूपम" जब सेंसर से पास होकर सरकार से फेल हो गई, तो कमल को सदमा लगना स्वाभाविक था।
लेकिन फिर भी, ये कहने में उन्होंने थोड़ी जल्द-बाज़ी ही की,कि जैसे हुसैन देश छोड़ गए, वैसे ही वे भी चले जायेंगे। कमल हसन संजीदा फिल्मकार हैं, कोई 'एल्बर्ट पिंटो' नहीं, कि उन्हें फ़ौरन गुस्सा आ जाए। फिर भी आ गया, इसका मतलब है कि  बात वास्तव में गंभीर है। परन्तु हम अपनी भावनाएं आहत होने पर देश को आहत भी नहीं कर सकते। यदि कहीं कोई एक निर्णय गलत हो भी जाए, तो इसका अर्थ ये कदापि नहीं होना चाहिए कि  देश के समूचे स्वाभिमान को हम तिलांजलि देदें।
इस प्रकरण से और भी कुछ सवाल वाबस्ता हैं। जैसे- फिल्म सेंसर बोर्ड की भूमिका और उसके अधिकार आखिर क्या हैं? उसकी स्वायत्तता की क्या वकत है? उसके 'प्रमाण-पत्र' की स्वीकार्यता क्या है, यदि स्थानीय सरकारें तय करेंगी कि  कहाँ कौन सी फिल्म कब दिखाई जाये। कोई भी न्यायालय सेंसर-बोर्ड का कार्य क्यों करे?और सेंसर बोर्ड के कार्य में दखल भी क्यों दे?और यदि बोर्ड का निर्णय गलत है तो इसकी सज़ा कमल हसन क्यों भुगतें।
इस सब के बावजूद "देश" को सम्मान देने के लिए भावनात्मक रूप से विवश नहीं किया जाना चाहिए। जैसे किसी शहर की आबो-हवा रास नहीं आने पर कोई शख्स शहर बदल लेता है, वैसे कोई किसी भी शहर या देश में रहने के लिए स्वाधीन होना चाहिए,लेकिन देश को ये उलाहना देकर नहीं, कि  उसने हमारी बात नहीं रखी, इसलिए अलविदा।
यदि इस तरह कोई जाता भी है तो इस बात की क्या गारंटी है, कि  जिस देश में वह जा रहा है, वहां हर कदम पर उसके साथ न्याय ही होगा?           

Tuesday, January 29, 2013

ये क्या था?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ख़त्म होने के बाद मुझे कई सन्देश मिले, लेकिन उनमें से केवल 'दो' का ज़िक्र मैं यहाँ कर रहा हूँ। एक मध्य प्रदेश से आये मेरे एक मित्र का था जो कह रहे थे कि  इन तीन-चार दिनों में उनकी साल-भर की थकान उतर गई, उन्हें यह अहसास हुआ कि  वे साहित्य से अभी भी जुड़े हैं, और साहित्य लोगों के बीच अब भी घूम रहा है।
दूसरा सन्देश मेरे एक स्थानीय मित्र का था, जो अपने काम से छुट्टी लेकर लगातार फेस्टिवल में उपस्थित रहे थे, और अब पूछ रहे थे कि  "यह क्या था?"
मुझे लगता है कि  आयोजकों ने उन दोनों को अलग-अलग कार्यक्रम नहीं परोसे होंगे। ठीक वैसे ही, जैसे किसी परीक्षा में सभी परीक्षार्थियों को एक से आकार की खाली कॉपी दी जाती है, पर उस पर लिख कर दो परीक्षार्थी अलग-अलग परिणाम ले आते हैं, वहां भी इन दोनों के साथ कुछ वैसा ही घटा होगा। जब हम किसी बाज़ार में जाते हैं,तो केवल यही तथ्य काम नहीं करता कि  वहां क्या है, यह सभी बातें भी चलती हैं कि हम वहां क्या ढूंढ पाए, हमारी क्रय-शक्ति क्या थी,हम अपनी आकांक्षा या लालसा के कितने दीवाने थे?
मैं न तो आयोजकों का बेवजह बचाव कर रहा हूँ, और न ही अपने मित्रों की आलोचना, मैं तो केवल यह कह रहा हूँ, कि  सर्दी उतरने लगी है, वसंत आने को है, मौसम भीतर झाँकने लगा है। ये जो भी था, बीत गया, जो आ रहा है, वह कम दिलचस्प नहीं है।   
 

Thursday, January 24, 2013

साहित्य कहाँ है?

पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा, कि  साहित्य अब गुम होता जा रहा है, यह कहीं दिखाई ही नहीं देता। मित्र की चिंता की क़द्र करते हुए मैं आपको बताना चाहता हूँ, कि  यदि हम यह जान लें, कि  साहित्य "कब" दीखता या होता है, तो हमारी चिंता शायद कुछ कम हो सके।
साहित्य तब शुरू हो जाता है, जब हम जागते हैं। यह समय व्यक्ति विशेष के लिए कुछ भी हो सकता है। कोई भी कार्य करते समय यह हमारे साथ होता है। यह तब भी होता है, जब हम कुछ नहीं कर रहे होते। यह हर जगह होता है। कई बार तो जो जगह नहीं होती, उसकी संभाव्यता पर मनन करता हुआ भी यह दिखाई देता है।
मजेदार बात यह है, कि  आपके सो जाने के बाद भी यह होता है। और हाँ, अक्षर ज्ञान रखने वालों के साथ, खुल्लम-खुल्ला, और निरक्षरों के साथ अनुभूतियों के रूप में होता है।
अभ्यास- "अपनी पूरी ताकत लगा कर वह 'क्षण' और 'स्थान' खोजिये, जब-जहाँ ये नहीं होता।"

Tuesday, January 22, 2013

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में कौन सी तकनीक ?

जिस तरह लायब्रेरी काम करती है, ठीक उसी तरह साहित्यिक समारोह भी काम करते हैं। दोनों में दो तरह के लोग शिरकत करते हैं। एक वे, जो वहां से झोली भर ले जाने आते हैं, दूसरे वे, जो अपना अवदान वहां देने आते हैं। पुस्तकालय में हज़ारों लोग ज्ञान को ढूंढते हुए आते हैं, और हज़ारों लोग जीवन के अपने 'संचित' को पुस्तकों के रूप में,पार्श्व में रह कर वहां सजाते रहते हैं।
जयपुर समारोह में भी कई नामी-गिरामी कलमकार इसी भूमिका में आ रहे हैं। अच्छा लग रहा है युवाओं का लाइनों में लग कर बड़ी संख्या में पंजीकरण कराना। कल से यह चहल-पहल अनुष्ठान में बदल जायेगी।

  

Sunday, January 13, 2013

चुस्त भूरी लोमड़ी सुस्त कुत्ते पर कूदती है।

निसंदेह यदि कुत्ता सुस्त होगा तो लोमड़ी क्या,बिल्ली भी उस पर झपट्टा मार देगी। आलसी कुत्ते से चिड़िया भी नहीं डरती, लोमड़ी की तो बात ही क्या? और यदि लोमड़ी चुस्त है, तो वह कुत्ता क्या, शेर को भी नहीं बख्शेगी। सफ़ेद लोमड़ी थोड़ी आभिजात्य मानी जाती है, वह डरपोक नहीं होती, थोड़ी शर्मीली होती है, इसलिए वह कुत्ते के आलसी होने का कोई फायदा नहीं उठाएगी। यदि लोमड़ी भूरी है, तो वह कुत्ते को छठी का दूध याद दिला देगी।
आमतौर पर लोमड़ी सुस्त नहीं होती। वह बेहद चपला ही होती है। कई बार कुत्ते भी फुर्तीले और चालाक होते हैं। पर वह आलसी भी होते हैं। ख़ास कर तब, जब उन्हें भर-पेट भोजन मिल जाए। कुत्ते इंसानों के पालतू भी होते हैं। इसीलिए कभी-कभी उन्हें इंसानों की तरह मुफ्त की रोटी भी मिल जाती है। और इसीलिए वे इंसानों की तरह आलसी भी हो जाते हैं।
लोमड़ी कभी इंसानों की पालतू नहीं होती। यदि "ज़ू" उन्हें रखते भी हैं, तो पालतू बना कर नहीं रखते। ये शुद्ध व्यावसायिक व्यवस्था होती है। 'चिड़ियाघर' वाले प्राणियों से पैसे कमाते हैं, बदले में उन्हें खाना देते हैं।लोमड़ी के साथ किसी का कुत्ते जैसा रिश्ता नहीं होता। जबकि कुत्तों के साथ आदमी का संवेदनशील सरोकार भी हो सकता है। कुत्ते जैसी स्वामी-भक्ति लोमड़ी में नहीं होती। यही कारण है, कि चुस्त भूरी लोमड़ी सुस्त कुत्ते पर कूदती है। "THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER THE LAZY DOG"
यह बात शतप्रतिशत सच है, विश्वास न हो तो चैक कर लीजिये। इसमें इंग्लिश का एक भी अक्षर [एल्फ़ाबैट]मिसिंग नहीं है। है न खरी बात?    

Friday, January 11, 2013

युवा दिवस

आज युवा दिवस है।  स्वामी विवेकानंद का जन्म भी आज ही के दिन, डेढ़ सौ साल पहले हुआ।
आइये देखें, कौन होते हैं युवा?
वे जिनकी आयु 18 से 25 वर्ष के बीच चाहे न हो, वे मन और रचनात्मकता से स्वस्थ और सक्रिय होते हैं।
वे जो अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित नहीं रह जाते।
वे जो दुनिया में अपने आने का मकसद समझने लग जाते हैं।
वे जिनमें यह अहसास हिलोरें लेने लगता है कि  अब वे ज़िम्मेदार नागरिक हैं।
वे जो अपने जीवन की आयोजना  आने वाली दुनिया को और बेहतर बनाने के लिए करने लगते हैं।
वे जो अब दूसरों की ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर लेने के लिए "पर तौलने" लगते हैं?
या
वे जो किसी की बात न मान कर मनमानी करने के लिए स्वाधीन हो जाते हैं?
वे जो गुटका खाने, शराब पीने, नशे का सेवन करने, महिलाओं, बुजुर्गों, बच्चों, अपंगों आदि से अभद्रता करने के लाइसेंसधारी हो जाते हैं?
वे जो अब समाज और देश से "लूटने" की योजना बनाने लग जाते हैं?
वे जो बस में, सिनेमाघर में पूरी सीट पाने के हकदार होकर  सड़कों पर हर चीज़ की तोड़फोड़ को अपना अधिकार समझने लगते हैं?
वे जो चाहते हैं कि  अब हर नियम-क़ानून और व्यवस्था हमारे पीछे चले?

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और इलाहाबाद कुम्भ

एक के शुरू होने की तैयारी है, एक शुरू।
एक में हज़ारों के पंजीकरण, दूसरे में लाखों की उम्मीद।
हम सचमुच नैतिक, सांस्कृतिक,साहित्यिक, धार्मिक हैं या उत्सव-धर्मिता हमारा शगल?
धर्म जो सिखाता है, साहित्य जो कहता है, उस से हमारे सरोकार कैसे हैं?
साहित्य महोत्सव का विज्ञापन कह रहा है कि  वहां शर्मीला टैगोर कविता पाठ करेंगी। एक बड़े मीडिया हाउस का विज्ञापन है कि निर्वस्त्र साधुओं के शाही स्नान का लाइव कवरेज सबसे पहले उनकी तरफ से।
दोनों स्थानों पर प्रशासनिक तैयारियां ज़ोरों पर।
मकर संक्रांति माहौल को जीवंत बनाने को है।
पतंग और डोर बच्चों और युवाओं के हाथों में है।
अमेरिका, यूरोप की बर्फ़बारी, और आस्ट्रेलिया की गर्मी और आग, एकसाथ सुर्ख़ियों में हैं।
आने वाले दिन बहुत अच्छे होंगे।
तमाम हलचल और उमंग के लिए शुभकामनाएं।    

Thursday, January 10, 2013

यह सुविधा केवल उन्हें ही क्यों?

भक्ति कालीन और रीति कालीन कवियों को एक सुविधा प्राप्त थी। वे अपनी उक्तियों और वक्तव्यों को व्याकरण के इतर भी तोड़-मरोड़ सकते थे। कहीं वे "तुक मिलाने" के लिए ऐसा कर देते थे, तो कहीं वे अपनी क्षेत्रीय बोलियों के प्रचलन के प्रभाव में आकर ऐसा कर देते थे। बड़े और नाम-चीन कवियों के इस कृत्य को भी आदर और आत्मीयता से देखा जाता था, और कालांतर में उनके यह प्रयोग नए अलंकारों, मुहावरों या उक्तियों को जन्म देते थे। वे लोग तुक मिलाने के लिए गणेश को 'गनेसा'  कह देते थे, तो कृष्ण को 'किसना' कह देते थे।
कुछ विश्व विद्यालयों में परीक्षाओं के बाद परिणाम के साथ एक ऐसी रिपोर्ट भी जारी की जाती है कि  कतिपय परीक्षार्थियों ने कैसे-कैसे अजीबो-गरीब उत्तर लिखे। साहित्य के विद्यार्थियों से मिले कुछ उत्तरों की बानगी देखिये-
तमसो मा ज्योतिर्गमय का अर्थ है- "तुम्हारी माँ  ज्योति के घर गई।"
सूरदास तव विहंसि यशोदा लै  उर कंठ लगायो का अर्थ है- "तब सूरदास ने हंस कर यशोदा जी को गले लगा लिया। "

Tuesday, January 8, 2013

शिक्षा और सब्जियां

यदि आप रसोई में जाएँ, और आपको वहां सब्जियां धुली, साफ़ की हुई, काटी हुई, तैयार रखी हुई मिलें,तो आपको कुकिंग में आसानी तो हो ही जाती है, आनंद भी आ जाता है।
लेकिन "शिक्षा" में यह प्रयोग सफल नहीं है। शिक्षा की अपेक्षा यह है, कि  आपको यह भी जानकारी हो कि  कौन सी सब्जी खेत में किस तरह, किन दिनों, कितने समय में तैयार होती है। वह सब्जी पेड़ का कौन सा भाग है। उसका कौन सा भाग हटाया और कौन सा खाया जाना चाहिए, और उसे किस तरह पकाया जाना चाहिए। सोने पर सुहागा तो यह होगा कि  उस सब्जी में कौन से गुण हैं, यह भी आप जानें।
शिक्षा में 'शॉर्टकट' जिंदगी में लम्बे और घुमावदार सिद्ध होंगे। शिक्षा किसी फूल से अपने को सजा लेने या सुवासित कर लेने का नाम नहीं है। बीज से धरती, पानी, हवा, और धूप के माध्यम से बरास्ता पेड़ और फूल, गंध का जन्मना भी शिक्षा में शामिल है। ये बात, इस से पहले कि  जिंदगी हमारे विद्यार्थियों को समझाए, हमें समझा देनी चाहिए।















मैं जानना चाहता हूँ कि ये लोग अब कहाँ हैं?

ऍफ़.एच.कांगा, अरुणा शर्मा, अनीता दर, आई.सी.जैकब, ए.बी.पटेल, हूर कनुगा, सुनीता बाली, जैस्मिन बक्सी, रजनी ए.हट्टंगड़ी, सुदर्शन राव, जगदीश प्रसाद, जेम्स आर.सी.मकाया,सुधीर मोघे, बी के जोशी, श्याम सुन्दर, डी  बी खोपकर,एल एस मणि, योजना मंगले, प्रतिमा वी कुलकर्णी, आशा बी कनकिया,उमा हरिहरन, एस जयंती, वी मीरा, स्क्वा लीडर पी के रघुरामन, पी वी डी जय शंकर प्रसाद, जी हरिहर सुब्रमण्यम, मेजर जे एन देवैया, हरीश चन्द्र माथुर और प्रबोध कुमार गोविल
यदि ये मिलते जायेंगे तो मैं आपको बताता जाऊँगा कि  ये कौन हैं।
एक छोटी सी समस्या हो सकती है कि  जब यदि ये लोग मिल जाएँ तो इन्हें पहचाना कैसे जाये।
इनके साथ बचपन में खींचे किसी फोटो का आधा भाग मेरे पास नहीं है।
इनकी बांह में कोई ऐसा टैटू गुदा हुआ नहीं होगा, बिलकुल जैसा मेरी बांह पर भी हो।
इनके गले में कोई ऐसा लॉकेट नहीं होगा जिसमें मेरा भी फोटो छिपा हो।
इनके घर के किसी नौकर, दाई या माली के पास बचपन के वो कपड़े सुरक्षित नहीं रखे होंगे जो इन्होंने मुझसे अलग होते वक्त पहन रखे हों।
कोई कबूतर या बाज़ इनके कंधे से उड़ कर मेरे कंधे पर नहीं बैठेगा।
कोई कुत्ता मुझे सूंघ कर इन पर नहीं भौंकेगा।
फिरभी अगर ये किसी तरह मिल जाएँ तो शायद हिंदी फिल्म निर्माताओं को "बिछड़ों" को मिलाने का कोई और नया तरीका मिल जाए। ढूँढिये -ढूँढिये।         

Monday, January 7, 2013

सुहावने ढोल

जब ढोल बजता है तो तरह-तरह की प्रतिक्रिया होती है। कोई कहता है कि माहौल जीवंत हो उठा, कोई कहता है आसमान सिर पर उठा लिया।  कोई कहता है, कानफोडू शोर हो रहा है, तो कोई कहता है, ज़रा जोर लगाके।
"सुहावना"ढोल उसे कहा जाता है जो ज़रा दूर बजे। इसी से मुहावरा है- "दूर के ढोल सुहावने।"
पिछले दिनों एक बेहद सुहावना ढोल बजा। जब ढोल सुहावना था, तो ज़ाहिर है कि  वह बेहद दूर का भी रहा होगा। दूर का ही नहीं, बहुत-बहुत दूर का।
क्या आप जानते हैं, यह कितनी दूर का था?
यह था, मंगल ग्रह का।
मंगल ग्रह पर चट्टानों के बीच एक फूल दिखाई दिया। वह भी खिला हुआ।
अब आप कहेंगे कि  फूल खिलने से ढोल का क्या सम्बन्ध?
सम्बन्ध है। मंगल ग्रह  से यहाँ न तो कोई रेल आती है, न कोई बस, या हवाई जहाज, इसलिए वहां से कोई अखबार भी यहाँ नहीं आता है। न ही कोई टीवी चैनल वहां से ख़बरें लाता है।लेकिन फिर भी वहां फूल खिला, ये शोर तो यहाँ हो ही गया न? वो फूल बहुत सुन्दर भी है और बहुत दूर भी, इसलिए हम तक ये खबर कोई सुहावना ढोल ही तो लाया होगा? ढोल कहीं भी खुद नहीं आता-जाता। केवल उसकी आवाज़ जाती है।       

संबंधों पर भी गिरती है बर्फ

अभी एक सप्ताह पहले ही सब मित्रों और परिजनों के संदेशों का आदान-प्रदान हुआ था। नव वर्ष की शुभकामनायें ली और दी गई थीं।
लेकिन पिछले दो-चार दिनों से ऐसा लग रहा है, जैसे सब लोग न जाने कहाँ चले गए। न किसी का फोन आ रहा है, और न ही कोई मिलने आ रहा है। यहाँ तक कि रोज़ मिलने-जुलने वाले कामकाजी लोग भी, ऐसा लगता है जैसे किसी दूसरे शहर में चले गए हों।
ये सब मौसम का नतीजा है। संबंधों और मित्रता पर भी ओस, बर्फ गिरती है। घने कोहरे में मन अकेले-अकेले हो जाते हैं, और दिन गिन-गिन कर ये ठिठुरते दिन बीतने का इंतज़ार करते हैं। लम्बी सर्द रात ये कल्पना ही नहीं होने देती कि  इसी धरती पर कभी वसंत आता है, फागुन आता है, और जेठ की दोपहरी तपती है।
पूरा एक सप्ताह भी बाकी नहीं है मकर संक्रांति में। आसमान में रंग-बिरंगी पतंगें दिखने लगी हैं। बच्चे, किशोर और युवा आकाश पर हस्ताक्षर करने की मुहिम में लग गए हैं। उनके हाथों में पतंगों की डोर है, उसी से वे ओस,कोहरे और धुंध को काट देते हैं। जो कंपकपी बड़े-बुजुर्गों को दहलाती है, वही इन युवाओं से खुद कांपती है। युवा न हों, तो सब बर्फ में दबा सिमटा पड़ा रहे।
इस मौसम में तो शेर से भी ज्यादा बहादुर नज़र आती हैं मछलियाँ। गर्मियों में गर्म पानी में और ठण्ड में ठन्डे पानी में।    

Sunday, January 6, 2013

यह कार्य अब युद्ध-स्तर पर ज़रूरी है

दुनिया रहने लायक बनी रहे, यह हम सब की प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि आप सूचना-तंत्र से जुड़े हुए हैं, तो आपसे कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है। आप देख ही सकते हैं कि  कुछ लोग दुनिया को न रह पाने लायक जगह बनाने पर आमादा हैं। ये जितने क्रूर हैं, उससे कहीं ज़्यादा मूर्ख हैं। ये नहीं जानते कि  किसी पेड़ पर चढ़ कर उसकी जड़ काटने की कोशिश का अंजाम क्या होता है?
ऐसे लोग यदि गरीब हों तो उन्हें अमीर लोग एक मिनट में रोक सकते हैं। यदि वे निरक्षर हों, तो उनकी शिक्षा का माकूल प्रबंध किया जा सकता है। पर वे इनमें से कोई नहीं हैं। वे तो भूखे लोग हैं।
आप सोचेंगे, कि  तब सरकारें या समाज उनकी रोटी का बंदोबस्त क्यों नहीं कर देते?
ये मुश्किल है, क्योंकि वे रोटी के भूखे नहीं हैं। उनकी भूख तो दुनिया बनने के पहले ही दिन से उनके शरीरों में डाल दी गई है।
तो फिर दुनिया अब तक रहने लायक कैसे बनी रही?
इसलिए, क्योंकि कुदरत ने आदम और हव्वा से कहा कि  दोनों एक दूसरे का हाथ कस कर पकड़े रहना, सब शुभ और मंगलकारी होगा। वे दोनों साथ साथ रहे- "कभी आदम को पिता की आज्ञा मान कर वन में जाना पड़ा तो हव्वा भी जग की तमाम सुविधाएं छोड़ कर उसके साथ गई, आदम और हव्वा विवाह न कर सके तो उन्होंने कुञ्ज-गलियों में मिल कर रास रचाई, आदम जगत छोड़ कर हिमालय की बर्फानी दुनिया में जा बैठा तो हव्वा ने भी अपना स्वर्ग उसी पर्वत शिखर को बना लिया, आदम क्षीरसागर में जा बैठा तो हव्वा उसके इर्द-गिर्द बनी रही, आदम ने युद्ध की रणभूमि में प्राण निसार दिए तो हव्वा जौहर के ज्वाला- रथ पर बैठ कर साथ गई, आदम को यमराज अपने साथ ले जाने लगा तो हव्वा उस से तर्क कर आदम को वापस दुनिया में खींच लाई, आदम पत्थर का हुआ तो हव्वा एक हाथ में उसे और दूसरे  में एकतारा लिए जीवनभर गली-गली गाती रही।"
लेकिन अब आदम पहले तो हव्वा को दुनिया में आने से रोक रहा है, यदि वह आ जाए तो उस पर बुरी नज़र डाल रहा है। इसलिए ज़रूरी है कि  आदम खुद अपने से युद्ध करे, और बताये, कि आखिर उसकी मंशा क्या है?
 

Friday, January 4, 2013

उस गोल-मटोल में सीधा क्या और टेढ़ा क्या?जानिये, और अपना उल्लू सीधा कीजिये

क्या आपको पता है कि "अपना उल्लू सीधा करना" मुहावरा हम क्यों बोलते हैं? उल्लू तो बेचारा गोल-मटोल सीधा-सादा प्राणी है, हम कम बुद्धि वाले लोगों को भी उल्लू कह देते हैं, निरे मूर्ख व्यक्ति को काठ का उल्लू कहा जाता है, क्योंकि वह तो स्थिर होता ही है, उसे सीधा या टेढ़ा करने की ज़रुरत नहीं होती।
अब कल्पना कीजिये कि  आप बैठे हैं। आपके ठीक सामने एक उल्लू बैठा है। वह उल्लू आपकी ओर  नहीं देख रहा क्योंकि उसकी गर्दन किसी और तरफ है। वैसे उल्लू के गर्दन नहीं होती, इसलिए हम कहेंगे कि  उसका मुंह दूसरी तरफ है। अब आप आँखें बंद कर लीजिये, और सोचिये कि  उल्लू चल पड़ा।
बस, यहीं आपकी बुद्धिमत्ता की परीक्षा है। चतुर-सुजान लोग तुरंत भांप लेते हैं कि  उल्लू का मुंह उनकी तरफ नहीं है, इसलिए वह उनकी ओर  नहीं, बल्कि किसी और दिशा में जा रहा होगा।
अब सोचिये, उल्लू किसकी सवारी है? "लक्ष्मी जी" की।
इसका अर्थ यह हुआ कि  लक्ष्मी जी आपकी ओर  नहीं, बल्कि किसी और दिशा में जा रही हैं। झटपट आँखें खोलिए, और "उल्लू को सीधा" कीजिये, ताकि वह आपकी ओर ही आये। वह आयेगा, तो लक्ष्मी जी को लाएगा।
अब क्या आपको यह भी बताना पड़ेगा, कि  लक्ष्मी के आने का क्या अर्थ होता है?  

यह गणित से नहीं, मनोविज्ञान से होगा

कागज़ पर बचपन, किशोरावस्था या युवावस्था लिखने से पहले हमें किसी दर्जी की तरह उनके शरीर का माप, किसी मनोचिकित्सक की तरह उनके अंतःकरण के अक्स, और किसी मित्र की तरह उनके विवेक के प्रतिबिम्ब लेने होंगे। तब हम कह पायेंगे कि वे बच्चे हैं, किशोर हैं, या युवा हैं।
वे बच्चे हैं, यदि-
वे माता-पिता,भाई-बहन या किसी प्रियजन के साथ सोना चाहते हैं, और इस इच्छा को आसानी से कह भी देते हैं। उन्हें दैनिक क्रियाओं के सम्पादन में स्थान या स्थिति को लेकर कोई संकोच नहीं होता। वे किसी भी बात-विचार-स्थिति पर बेधड़क बोल देते हैं।
अपवादों का ध्यान रखना होगा।
वे किशोर हैं, यदि-
वे अपनी बात कहने से पहले औरों की बात सुनना या प्रतिक्रया देखना चाहते हैं। अपने लिए "स्पेस" खोजने या चाहने लगते हैं। उन्हें किसी के साथ सोने पर 'इरीटेशन' तो महसूस होता ही है, वे साथ वालों पर कोई न कोई प्रतिक्रया भी देना चाहते हैं।
वे युवा हैं, यदि-
उपर्युक्त बातों से सम्बंधित निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं, और उन्हें गोपनीय भी रखना चाहते हैं। वे अपने व्यक्तित्व और छवि के प्रति सजग हो जाते हैं। वे अपने अधिकारों का संचय और कर्तव्यों का विखंडन करना चाहते हैं। वे एक स्पष्ट इकाई के रूप में बर्ताव करते हैं।

Thursday, January 3, 2013

मीडिया में डाक्टर

एक डॉक्टर के पास एक मरीज़ लाया गया। कोई बड़ी बात नहीं थी, मरीज़ डॉक्टर के पास ही लाये जाते हैं। डॉक्टर ने जब रोग का पता लगाने की दृष्टि से उस से बातचीत करनी शुरू की तो डॉक्टर को यह जान कर अचम्भा हुआ कि  रोगी खुद भी एक डॉक्टर है।
इस से भी बड़ी बात तो यह थी कि  रोगी कोई छोटा-मोटा साधारण चिकित्सक नहीं था, बल्कि अपने नगर का प्रतिष्ठित और सक्रिय डॉक्टर था। अब तो बातचीत की सारी दिशा ही बदल गई। दोनों मित्र की तरह व्यवहार करने लगे। आवभगत भी की गई। चाय-पानी आया।
आखिर मेज़बान डॉक्टर मुद्दे पर आया, बोला - "आपको अपने रोग के बारे में क्या अंदेशा है? तकलीफ क्या है, और इसका कारण क्या हो सकता है? यह भी बताएं, कि  अपने रोग के निदान के लिए आपको मेरे पास चले आने की ज़रुरत क्यों आ पड़ी?"
रोगी डॉक्टर ने कहा- असल में मैं एक मशहूर मीडिया संस्थान में चिकित्सक हूँ। वहां लोग बीमार तो ज्यादा पड़ते नहीं हैं, मुझे अपना ज्यादा वक्त इनके चैनलों को देखने और इनके अखबारों को पढ़ने में ही बिताना पड़ता है। ऐसा करते-करते मुझे लगा कि  मुझे हवा-पानी बदलने के लिए कुछ दिनों को कहीं बाहर जाना चाहिए, तो मैं आपके पास चला आया।
डॉक्टर ने कहा- अच्छा-अच्छा, मतलब आप मुझे अपने शहर में बुलाने का न्यौता देने आये हैं?
रोगी डॉक्टर बोला- हमारे पेशे में भी एक-दूसरे से जेलेसी की भावना होती है, फिर भी मेरा इरादा ये नहीं था।

Wednesday, January 2, 2013

आप इसके लिए बधाई देंगे या निंदा करेंगे?

वास्तव में यह कदम ऐसा ही है। लोग अभी से इसे लेकर बँट गए हैं, कोई इसे आधुनिक समाज की उपलब्धि बता रहा है तो कोई इसमें खतरे और हताशा  देख रहा है।
भारत में इन दिनों एक दिलचस्प विमर्श चल रहा है। यह विमर्श है बचपन, किशोरावस्था और युवावस्था की मान्य आयु को लेकर।
अब तक यह माना जाता था कि 18 वर्ष का व्यक्ति युवा हो जाता है। 15 से 18 के बीच किशोरावस्था मानी जा रही थी। और 15 से नीचे की उम्र को बचपन की संज्ञा दी जा रही थी।
लेकिन अब इसमें नई पीढी  के मानसिक विकास को देखते हुए प्रस्तावित है कि  बचपन को 12 वर्ष तक, 12 से 15 की आयु को किशोरावस्था और 15 की आयु को युवा हो जाने की निशानी मान लिया जाय।
ऐसा एक बार पहले भी किया जा चुका है, जब युवाओं की आयु 21 से घटा कर 18 की गई थी, और उन्हें इसी आधार पर वोट देने का अधिकार भी प्रदान किया गया था।
यह सही है कि  आधुनिक सुविधाओं और प्रणालियों ने 15 साल के बच्चों को समझदार बना दिया है। फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि  15 साल तक के बच्चों को बचपन जैसी संरक्षा दी ही जानी चाहिए, और 15 से अधिक होते ही उन पर युवाओं जैसा भरोसा भी नहीं किया जा सकता।
आपकी क्या राय है?

पढ़िए "नीरज" के सवाल, और मेरे जवाब !

नीरज- गीत जब मर जायेंगे फिर क्या यहाँ रह जाएगा?
प्रबोध- एक  सन्नाटा कहीं से बांसुरी चुन लाएगा !

नीरज- प्यार की धरती अगर बंदूक  से बांटी गई ?
प्रबोध- संतरे की फांक सा हर दिल भी संग बँट जायेगा !

नीरज- आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे ?
प्रबोध-  जो जलेगा, अंजुरी-भर राख तो दे जाएगा।

नीरज- गर चिरागों की हिफाज़त फिर उन्हें सौंपी गई ?
प्रबोध - कालिमा रानी बनेगी, तम यूँ ही इतराएगा !

नीरज- आएगा अपना बुलावा जिस घड़ी उस पार से?
प्रबोध- रास्ते रह जायेंगे, इनका भला क्या जायेगा !

नीरज- सिर्फ धरती ही नहीं, हर शय यहाँ गर्दिश में है
प्रबोध- हम  अकेले  ही  नहीं डूबेंगे,  जत्था  जायेगा !

नीरज- जिंदगी और  मौत की  केवल कहानी है  यही
प्रबोध- कौन कहने आएगा और कौन सुनने आएगा !

Tuesday, January 1, 2013

पतंगे तब ही आते हैं, जब शमा जलती है

ये बड़े आश्चर्य की बात है, कि  पिछले कुछ दिनों से भारतीय मीडिया दुष्कर्म और घरेलू हिंसा की ख़बरों से भरा पड़ा है। शायद इसका एक कारण यह है कि  पिछले दिनों के जन-आन्दोलनों के कारण इस तरह की घटनाओं पर कड़ा दंड देने की मांग जोर पकड़ने लगी है। एकाएक ऐसा लग रहा है, कि  शायद इस तरह के मामले दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं। पर सच्चाई यह है कि  ऐसी घटनाएं समाज में बड़ी संख्या में पहले से ही  व्याप्त हैं, पर इन पर  कार्यवाही की कोई माकूल व्यवस्था न होने के कारण वे सामने नहीं आ पातीं। सच है, जब दोषी का कुछ बिगाड़ने की व्यवस्था ही नहीं होगी तो कौन उसकी शिकायत का जोखिम लेगा।
यदि सजा के उपयुक्त प्रावधान होंगे तो लोगों में इस ओर  जागरुकता आएगी, और वे ऐसी घटनाओं की त्वरित रिपोर्टिंग में दिलचस्पी लेंगे।
रौशनी की लौ जले तो सही, कीट-पतंगे तो अपने आप क़ानून की गिरफ्त में आने लगेंगे।
महिला-सशक्तिकरण की यह तो अनिवार्य शर्त है कि  उनकी बात आदर और विश्वास से सुनी जाए। कुछ लोगों को अभी से इन कानूनों के दुरूपयोग का भय भी सता रहा है। लेकिन "अपवादों" की चर्चा तभी की जानी चाहिए, जब वे वास्तव में उपस्थित हों, अन्यथा उनकी आड़ में अपराधी बचने का रास्ता ढूंढ लेंगे।

आज मैंने केवल तीन झूठ बोले

जब मैं सोकर उठा, तब धूप निकल चुकी थी। मैं उठ कर खिड़की पर आया, तो बेजान सा सूरज दिखाई दिया। पूरी ताकत से रौशनी फेंक रहा था, पर उसकी गर्मी में दम नहीं था। मैं उठ कर मेज़ के पास चला आया।टेबल का कलेंडर दिखाई दिया। कलेंडर सिर पकड़ कर बैठा था, उससे तारीख तक बताई नहीं जा रही थी। मैं खीज गया। मूड ठीक करने के लिए मैंने एक प्याला चाय पीने का मन बनाया। न जाने चाय कैसी अजीब सी थी। ऐसा लगता था, जैसे साल भर पुराने दूध से बनी हो।
मैंने उकता कर मोबाइल उठाया। ऐसा लग रहा था, जैसे इस पर कोई घंटों बात करता रहा हो। मैसेज बॉक्स ठसाठस भरा हुआ था, जैसे ढेर सारे लोग दरवाज़े पर दस्तक देदेकर गए हों।
मैं सोचता रहा, आखिर बात क्या है?
तभी एकाएक मेरा माथा ठनका।
मैंने एकदम से मन ही मन अपने आप को अपराधी घोषित किया,और बाकी सबको बेगुनाह। मेरी स्थिति उस कबीर की सी हो गई, जो बुरा देखने निकला तो उसे कोई बुरा न मिला और जो उसने खुद अपना ही मन टटोला तो वो खुद ही सबसे बुरा निकला।
तो आज एक जनवरी है। यानी नया साल शुरू!
तो बेचारा सूरज क्या करता, इकत्तीस दिसंबर की रात थी, तो ठंडी होनी ही थी। उसकी गर्मी में दम कैसे होता? पृथ्वी से कितनी दूर था वह।  पिछले साल का कलेंडर इस साल की तारीख कैसे बताता?चाय का दूध 2012 का था, उसमें भला स्वाद कैसे होता? ऐतिहासिक दूध। मोबाइल पर तो उन हितैषियों की आवाज़ के निशाँ थे, जो मुझे न्यू-ईयर विश करना चाहते थे।
मुझे स्मार्ट इंडियन का ख्याल आया, जो अमेरिका में रहते हैं,लेकिन भारत में रहने वालों से ज्यादा भारतीय हैं। वे हमारी संस्कृति के सशक्त संवाहक हैं। मैंने सोचा, उन्हें शुभकामनाएं ज़रूर पहुंचानी चाहिए।
मृत्युंजय कुमार और अनुराग शर्मा ने मेरे नववर्ष संकल्प को पसंद किया। यद्यपि मृत्युंजय मेरे ब्लॉग पर "जय"के नाम से आये थे, पर मैंने उन्हें पहचान लिया, ठीक वैसे ही, जैसे अनुराग जी को। उन दोनों के साथ आपको भी नव-वर्ष शुभ हो।

     

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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