Friday, October 24, 2014

अपने मित्रों को छाँटिए

हम प्रायः दो तरह से चीज़ों को पसंद करते हैं, शायद लोगों को भी।
एक में हम उन्हें देखते हैं, आगे बढ़ जाते हैं।  सहसा कोई कौंध सी उठती है, कि हम पलट कर फिर देखना चाहते हैं। संयोगवश या सायास हम उन्हें फिर देख पाते हैं।
जिस तरह पुराने ज़माने में गली-गली घूमता बर्तन कलई वाला कोई चमकीली धातु गर्म बर्तन पर रगड़ कर उसे चमका देता था, उसी तरह अपनी पसंद के प्राथमिकता-मानदण्ड से उसे छुआ कर देख कर हम फिर अपने जेहन में झलकी उस वस्तु को अपने पसंद-कोष में शामिल कर लेते हैं।बस, अब ये चीज़ या व्यक्ति हमें पसंद है।
दूसरे तरीके में हम उसे देखते ही ठिठक जाते हैं।  हममें से कुछ निकल कर उसमें या उसमें से कुछ निकल कर हम में जाने लगता है।  जैसे दो बर्तन किसी छिद्र से जुड़ जाने पर अपने भीतर का जल-स्तर समान कर रहे हों।
क्षणिक आवेग से हमारी आयात शर्तें उसकी निर्वाह शर्तों से समायोजित होने लगती हैं और ऐसा हो जाते ही वह हमारी पसंद की वस्तु या व्यक्ति हो जाते हैं।
एक तीसरा तरीका भी है, लेकिन वह फिलहाल अप्रासंगिक है क्योंकि उसमें हम ऑब्जेक्ट होते हैं, कोई दूसरा हमारे आखेट पर निकला हुआ होता है, जब और यदि, वह हमें जीत लेता है तो हम उसके हो जाते हैं, ये निर्णय हमारा नहीं है।ऐसा वस्तुओं के मामले में भी हो सकता है,जैसे सड़क पर चलते हुए यदि हमारी चप्पल टूट जाए, तो उसमें विवश होकर लगवाई गई कील हमारे न चाहते हुए भी अब हमारी चौबीसों घंटे की साथी है।                 

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...