Wednesday, March 19, 2014

प्रेमचंद और गुलशन नंदा

पिछले दिनों एक सुखद संयोग हुआ. मैंने प्रेमचंद के उपन्यास "गोदान" पर बनी फ़िल्म और गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी फ़िल्म "दाग" लगभग एकसाथ ही कुछ दिनों के अंतराल पर देखी.
गोदान को देख कर ऐसा लग रहा था कि हम गुज़रे ज़माने की उस सरलता के दर्शन कर रहे हैं, जो अब पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है. वहाँ "शशिकला" भी पढ़ीलिखी संभ्रांत महिला की  तरह बर्ताव कर रही थी और उसके पात्र का खलनायिका-पन केवल यही था कि वह पूंजीवादी विचारधारा की  समर्थक थी. गरीबी और क़र्ज़ के कारण घर से भागा बेटा शहर से जब वापस लौटा, तो "महमूद" होते हुए भी उस पर किसी को हंसी नहीं आई. बलराज साहनी उस "अच्छेपन" से ग्रसित नज़र आये जिसे नई पीढ़ी बेवकूफ़ी कह कर ख़ारिज कर चुकी है. आज जैसा समाज है उसके चलते नायिका कामिनी कौशल सनकी और शशिकला अपटूडेट नज़र आ रही थी.
उधर "दाग" में राजेश खन्ना, शर्मीला टैगोर और राखी गुलज़ार ['गुलज़ार' इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि यह दूसरी कई राखियों का दौर है] ने दशकों पहले ही ऐसे पात्र जी दिए थे जो आज हैं.
हाँ, ईमानदारी इसी में होगी कि आपको यह भी बताया जाय,कि गुलशन नंदा की कहानी दाग "मेयर ऑफ़ कास्टरब्रिज"से प्रेरित थी और इसमें उनके उपन्यास "मैली चांदनी"के पात्र भी सम्मिलित कर लिए गए थे.
तात्पर्य ये है कि उपन्यास और फ़िल्म दो अलग-अलग विधाएं हैं, केवल इनकी सफलता-असफलता के आधार पर किसी साहित्यिक "लेखक" को फ़िल्मी दुनिया में सफल या असफ़ल करार नहीं दिया जा सकता.                  

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