Saturday, November 2, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी -भाग तीन]

बहुत दिन बाद अपने किसी परिजन को देखने का उत्साह लड़के की  सोच से अब धीरे-धीरे ओझल होने लगा था।  लेकिन उसकी उदासीनता ने दादाजी का उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं किया था।  वह अब भी उसी तरह चहक रहे थे।  मानो उन्होंने वहाँ काम करते हुए अपना पसीना नहीं बहाया हो, बल्कि बदन पर चढ़े उम्र की चांदी के वर्क मिट्टी  को भेंट किये हों।
चलते चलते दोनों पिछवाड़े के उस कमरे में आ गए जो अब नए माली, दादाजी के पोते, अर्थात उस कल के लड़के को रहने के लिए दिया गया था।  दादाजी को थोड़ी हैरानी हुई। -" तुझे कमरा? मैं गर्मी- सर्दी- बरसात उस पेड़ के नीचे बांस के एक झिंगले से खटोले पर सोता था।  कभी-कभी तेज़ बारिश आने पर तो वह भी चौकीदार के साथ सांझा करना पड़ता था।"
कमरे की  दीवार पर एक खूँटी पर दो-तीन ज़ींस टँगी देख कर दादाजी अचम्भे से पोते को देखने लगे-"और कौन है यहाँ तेरे साथ?"
कोई नहीं, मेरे ही कपड़े हैं।  लड़के ने लापरवाही से कहा।  दादाजी ने एक बार झुक कर अपनी घुटनों के ऊपर तक चढ़ी मटमैली झीनी धोती को देखा, पर उनसे रहा नहीं गया- "क्यों रे, ये चुस्त विलायती कपड़े पहन कर तो तू पौधों की निराई-गुड़ाई क्या कर पाता होगा?"
लड़के को मानो उनकी बात ही समझ में नहीं आई।  फिर भी बुदबुदा कर बोला-"वो तो नर्सरी वाले कर के ही जाते हैं।  बीज-पौधे तो वो ही लगाते हैं।"यह सुन कर दादाजी थोड़े अन्यमनस्क हुए।
लड़के ने एक चमकदार शीशे की  बोतल से दादाजी को पानी पिलाया।  दादाजी हैरान हुए-"बेटा, मालिकों की  चीज़ें बिना पूछे नहीं छूनी चाहिए।"
अब हैरान होने की  बारी लड़के की थी। वह उसी चिकने सपाट चेहरे से बोला-"ये सब मालिक ने ही तो दिया है।" [जारी]         

3 comments:

  1. पाव पाव दीपावली, शुभकामना अनेक |
    वली-वलीमुख अवध में, सबके प्रभु तो एक |
    सब के प्रभु तो एक, उन्हीं का चलता सिक्का |
    कई पावली किन्तु, स्वयं को कहते इक्का |
    जाओ उनसे चेत, बनो मत मूर्ख गावदी |
    रविकर दिया सँदेश, मिठाई पाव पाव दी ||


    वली-वलीमुख = राम जी / हनुमान जी
    पावली=चवन्नी
    गावदी = मूर्ख / अबोध

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  2. dhanyawad,dewali ki aapko bhi mangalkamnayen!

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हम मेज़ लगाना सीख गए!

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