Saturday, November 2, 2013

इतिहास-भक्षी [ कहानी-भाग एक]

नब्बे साल की बूढ़ी आँखों में चमक आ गई।  लाठी थामे चल रहे हाथों का कंपकपाना कुछ कम हो गया।
… वो उधर , वो  वो भी, वो वाला भी... और वो पूरी की पूरी कतार  … कह कर जब बूढ़ा खिसियानी सी हँसी हँसा तो पोपले मुंह के चौबारे में एकछत्र राज्य करता वह कत्थई-पीला,बेतहाशा नुकीला,कुदालनुमा अकेला दांत फरफरा उठा।  थूक के दो-चार छींटे उड़े।
लड़के ने कान के पास मक्खी उड़ाने की  तरह हाथ पंखे सा झला, फिर सामने देखने लगा।
बूढ़ा उस उन्नीस-बीस साल के लड़के का दादा था।
दूर के किसी गाँव का रहने वाला वह लड़का उस लम्बे-चौड़े महलनुमा बंगले में छह महीने पहले ही माली के काम पर लगा था।  और इसी बंगले में इसी काम पर लड़के का दादा उस से पहले लगभग पचास बरस से काम करता रहा था।  आधी सदी के इस सेवक की  हड्डी-पसलियों और नित बुझती आँखों ने जब उसे जिस्म से रिटायर करने की  धमकी दी, तभी मालिकों ने उसे बगीचे की  मालियत से भी रिटायर कर दिया।
पर आधी सदी की  चाकरी बेकार नहीं गई।  बूढ़ा मिन्नतें कर-कर के अपनी जगह अपने पोते को काम पर रखवा गया था।  इसीलिए आज जब किसी आते-जाते के साथ बूढ़ा अपने पोते की खोज-खबर लेने और अपने पुराने  मालिकों की देहरी पूजने यहाँ आया तो पोते का कन्धा पकड़ उस विराट बगीचे को निहारने भी चला आया, जहाँ अपना तन-मन लेकर वह एड़ी से चोटी तक खर्च हुआ था।
और बस, अपने पोते को अपनी उपलब्धियां दिखाते-बताते वह बुरी तरह उत्तेजित हो गया।  उसने कौन सी जमीन की  कैसे काया पलट की , कौन-कौन से बिरवे रोपे, कौन से फूल से कैसे मालिक-मालकिन का दिल जीता,और कहाँ की  मिट्टी में उसका कितना पसीना दफ़न है, सब वह अपने पोते को बताने में मशगूल हो गया।  पोते का मुंह वैसे का वैसा ही चिकना-सपाट बना रहा।  [जारी]      

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