Tuesday, November 19, 2013

नए बिरवे रोपने से पहले पुरानों की सुध भी तो ले कोई!

पेड़ लगाने का ही नहीं, उनको हरा-भरा रखने का काम भी ज़रूरी है।
आजकल भारत में "रत्नों" का खनन चल रहा है।  सब अपनी पसंद का कोई न कोई नाम 'भारत-रत्न' सम्मान के लिए सुझा रहे हैं।
कुछ लोगों को उन लोगों पर छींटा-कशी करने में ही आनंद आ रहा है, जिन्हें यह सम्मान मिला है।
इसमें कोई संदेह नहीं, कि देश के मौजूदा दौर में कुछ ऐसी शख्सियतें अवश्य हैं, जिन्हें यदि यह सम्मान दिया जाता है, तो इसकी गरिमा बढ़ेगी ही। साथ ही जिन लोगों को अब तक यह सम्मान मिला है, उनमें भी ऐसा कोई नहीं है जिस पर अंगुली उठाने की ज़रुरत किसी को पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व निर्विवाद है, तो अमिताभ बच्चन भी बार-बार पैदा नहीं होते। सचिन ने खेलने के यदि पैसे लिए थे, तो अब तक की  सम्मानित सूची में अवैतनिक कोई नहीं है।  जितना जिस काम से मिलने की  परम्परा है, उतना तो सभी को मिला ही है।  
लेकिन फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या "भारत-रत्न" चुन कर भुला देने के लिए हैं?
उनके रास्तों का अनुसरण हम क्यों नहीं कर रहे? उनमें ऐसे कितने हैं, जो आज हमारे आदर्श बने हुए हैं?कितने ऐसे हैं, जिनके बारे में, जिनके कार्यों के बारे में हमारी नई  पीढ़ी को बताने की  माकूल व्यवस्था की  गई है? जिन विभूतियों के अपने वारिस-परिजन आज असरदार हैं, उनका डंका तो सतत बज रहा है, पर उनका क्या हाल है, जिन्होंने जीतेजी देश के आगे अपनी खुद की, और अपने परिवार की सुध नहीं ली। लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारी लाल नंदा, विनोबा भावे, आज कहाँ हैं?करोड़ों की ज़मीनों की  हेराफेरी करके कुर्सी से चिपके बैठे लोगों को ये मालूम भी  है कि "भूदान" आंदोलन क्या था?
मज़े की  बात ये है कि ऐसे ही लोग आज "भारत रत्न" बांटने वालों में शामिल हैं।      

4 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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