दादाजी को कमरे की खिड़की से एक बूढ़ा-ठठरा सा सूखा पेड़ दिखा तो वे जैसे उमड़ पड़े - "देख, देख ये रहा वो पेड़। इसमें जब पहली बार फल आया, तो उस बरस मुझे होली पर घर जाने का ख्याल छोड़ना पड़ा, मेरे पीछे कोई छोड़ता फलों को? फिर जब मैं घर नहीं जा सका तो गाँव से तेरी दादी ने दो सेर जौ और गुड़ की डली किसी के हाथों मेरे लिए भिजवाई।"
लड़के को ये सब बेतुका सा लग रहा था। उसके कमरे में पड़े पुराने सोफे पर अखबार में लिपटा वो आधा पिज़्ज़ा अब तक पड़ा था जो सुबह नाश्ते के समय मालकिन ने खुद उसे पकड़ा दिया था। बूढ़े की आँखों को किसी डबडबाये बजरे की तरह डोलता देख उसका पोता उसे ये भी नहीं बता सका कि उसे हर दो-चार दिन में डायनिंग टेबल पर बची मछली के साथ जूस का डिब्बा जब-तब मिल जाया करता है।
लेकिन लड़के को अपने स्कूल का वो मास्टर ज़रूर याद आ गया जो कहा करता था कि किसी को रोज़ मछली परोसने से बेहतर है कि उसे मछली पकड़ना सिखाया जाये। लड़का अपने दादा की पेशानी की झुर्रियां देख कर सोचने लगा कि ये सलवटें शायद मछलियां पकड़ते रहने का ही नतीजा हैं।
दादाजी जब-तब चहक उठते -"ये तेरी मालकिन जब बहू बन कर इस घर में आई थी तो साल भर तक हम इसे देख ही नहीं सके, हमें चाय पानी तो डालते थे कोठी के बावर्ची, और खुरपी कुदाल निकाल कर देते थे नौकर। हाँ आते-जाते मोटर के शीशे से घर के बाल-बच्चों की झलक ज़रूर छटे-छमाहे दिख जाती थी।"
बदले में लड़के को चुप रह जाना पड़ता। उसके पास कुछ था ही नहीं बोलने को। उसे कभी कहीं गड्ढा नहीं खोदना पड़ा,बुवाई-रोपाई-गुढ़ाई तो नर्सरी का आदमी सब कर ही जाता था। दिन भर स्प्रिंक्लर चलते रहते, पानी के फव्वारे छोड़ते। हाँ, छोटी और मझली बेटियां तो हर काम के लिए पैसे ऐसे पकड़ाती हैं, कि देखने की कौन कहे, हाथ कई बार छू तक जाता है, पर अब ये सब क्या दादाजी को बताने वाली बात है?
पोते की युगांतरकारी चुप्पी से खीज कर दादा ही फिर बोल पड़ा- "टोकरे के टोकरे उतरते थे पेड़ों से, पूरी बस्ती में बँटते, घर में भी महीनों खाये जाते थे।"
अबकी बार लड़के के तरकश में भी एकाध तीर निकला, बोला-"ये सब नहीं खाते, सब इम्पोर्टेड फल आते हैं मॉल से। [जारी]
लड़के को ये सब बेतुका सा लग रहा था। उसके कमरे में पड़े पुराने सोफे पर अखबार में लिपटा वो आधा पिज़्ज़ा अब तक पड़ा था जो सुबह नाश्ते के समय मालकिन ने खुद उसे पकड़ा दिया था। बूढ़े की आँखों को किसी डबडबाये बजरे की तरह डोलता देख उसका पोता उसे ये भी नहीं बता सका कि उसे हर दो-चार दिन में डायनिंग टेबल पर बची मछली के साथ जूस का डिब्बा जब-तब मिल जाया करता है।
लेकिन लड़के को अपने स्कूल का वो मास्टर ज़रूर याद आ गया जो कहा करता था कि किसी को रोज़ मछली परोसने से बेहतर है कि उसे मछली पकड़ना सिखाया जाये। लड़का अपने दादा की पेशानी की झुर्रियां देख कर सोचने लगा कि ये सलवटें शायद मछलियां पकड़ते रहने का ही नतीजा हैं।
दादाजी जब-तब चहक उठते -"ये तेरी मालकिन जब बहू बन कर इस घर में आई थी तो साल भर तक हम इसे देख ही नहीं सके, हमें चाय पानी तो डालते थे कोठी के बावर्ची, और खुरपी कुदाल निकाल कर देते थे नौकर। हाँ आते-जाते मोटर के शीशे से घर के बाल-बच्चों की झलक ज़रूर छटे-छमाहे दिख जाती थी।"
बदले में लड़के को चुप रह जाना पड़ता। उसके पास कुछ था ही नहीं बोलने को। उसे कभी कहीं गड्ढा नहीं खोदना पड़ा,बुवाई-रोपाई-गुढ़ाई तो नर्सरी का आदमी सब कर ही जाता था। दिन भर स्प्रिंक्लर चलते रहते, पानी के फव्वारे छोड़ते। हाँ, छोटी और मझली बेटियां तो हर काम के लिए पैसे ऐसे पकड़ाती हैं, कि देखने की कौन कहे, हाथ कई बार छू तक जाता है, पर अब ये सब क्या दादाजी को बताने वाली बात है?
पोते की युगांतरकारी चुप्पी से खीज कर दादा ही फिर बोल पड़ा- "टोकरे के टोकरे उतरते थे पेड़ों से, पूरी बस्ती में बँटते, घर में भी महीनों खाये जाते थे।"
अबकी बार लड़के के तरकश में भी एकाध तीर निकला, बोला-"ये सब नहीं खाते, सब इम्पोर्टेड फल आते हैं मॉल से। [जारी]
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