लड़के ने जेब से जब मोबाइल फ़ोन निकाल कर अपनी नई सी दिखने वाली रंगीन बनियान की जेब में घुसाया तो दादाजी से रहा न गया, बोले - "कितना देते हैं तुझे?"
लड़का समझ गया कि दादाजी के दिमाग में कोई और कीड़ा कुलबुलाने लगा है, बात का बतंगड़ न बनने देने की गरज़ से लड़का बोला- "घर में इतने लोग हैं, सब कुछ न कुछ देते रहते हैं, अपना ये पुराना मोबाइल तो मालिक की छोटी बेटी ने कुछ दिन पहले ही दिया था ।"
दादाजी ने अपने जवान पोते के कसरती से दीखते शरीर पर नज़र डाली तो उन्हें अपने घर की शाश्वत गरीबी याद आ गई।
दादाजी का मन कमरे से निकल कर बाग़ में विचरने लगा। आखिर उस बाग़ की मिट्टी उनके पसीने से ही तो नम हुई थी। दादाजी को लगता था कि बगीचे के पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे में उनका इतिहास बिखरा पड़ा है। अपने दिन-रात, अपनी जवानी-बुढ़ापा, अपने सुख-दुःख, अपने घर-परिवार, सब को मीड़ मसोस कर वह धूल की तरह इस ज़मीन पर छिटका गए और बदले में ले गए ज़िंदगी गंवाने का सर्टिफिकेट। और आज उनकी ज़िंदगी-भर की फसल पर भोगी इल्लियां लग गई हैं, उनका इतिहास कोई खा रहा है।
कमरे का दरवाजा भेड़ कर पोते ने अपने सफ़ेद झक्क जूते पहने तो दादाजी भी जाने के लिए कसमसाने लगे। मालिक लोगों का क्या भरोसा, रात तक न आयें।
लड़का बंगले के मेन गेट तक दादाजी को छोड़ने आया, और बाहर की सड़क पर दादाजी को एक दूकान में घुसा देख कर वहीँ खड़ा हो गया। दवा की दूकान थी।लड़के को अचम्भा हुआ- दादाजी बीमार हैं? उन्होंने बताया क्यों नहीं।
लड़का उनसे कुछ पूछ पाता इस से पहले ही वह दूकान से पैसे देकर वापस पलट लिए। उन्होंने एक छोटा सा पैकेट लड़के को पकड़ाया तो लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। दादाजी बोल पड़े- "बेटा, आजकल तरह-तरह की बीमारियां फ़ैल रही हैं, तू यहाँ परदेस में किसी मुसीबत में मत पड़ जाना।"
लड़के को संकोच से गढ़ा देख दादाजी एक बार फिर चहके- "सोच क्या रहा है, रखले, दादा हूँ तेरा!"[समाप्त]
लड़का समझ गया कि दादाजी के दिमाग में कोई और कीड़ा कुलबुलाने लगा है, बात का बतंगड़ न बनने देने की गरज़ से लड़का बोला- "घर में इतने लोग हैं, सब कुछ न कुछ देते रहते हैं, अपना ये पुराना मोबाइल तो मालिक की छोटी बेटी ने कुछ दिन पहले ही दिया था ।"
दादाजी ने अपने जवान पोते के कसरती से दीखते शरीर पर नज़र डाली तो उन्हें अपने घर की शाश्वत गरीबी याद आ गई।
दादाजी का मन कमरे से निकल कर बाग़ में विचरने लगा। आखिर उस बाग़ की मिट्टी उनके पसीने से ही तो नम हुई थी। दादाजी को लगता था कि बगीचे के पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे में उनका इतिहास बिखरा पड़ा है। अपने दिन-रात, अपनी जवानी-बुढ़ापा, अपने सुख-दुःख, अपने घर-परिवार, सब को मीड़ मसोस कर वह धूल की तरह इस ज़मीन पर छिटका गए और बदले में ले गए ज़िंदगी गंवाने का सर्टिफिकेट। और आज उनकी ज़िंदगी-भर की फसल पर भोगी इल्लियां लग गई हैं, उनका इतिहास कोई खा रहा है।
कमरे का दरवाजा भेड़ कर पोते ने अपने सफ़ेद झक्क जूते पहने तो दादाजी भी जाने के लिए कसमसाने लगे। मालिक लोगों का क्या भरोसा, रात तक न आयें।
लड़का बंगले के मेन गेट तक दादाजी को छोड़ने आया, और बाहर की सड़क पर दादाजी को एक दूकान में घुसा देख कर वहीँ खड़ा हो गया। दवा की दूकान थी।लड़के को अचम्भा हुआ- दादाजी बीमार हैं? उन्होंने बताया क्यों नहीं।
लड़का उनसे कुछ पूछ पाता इस से पहले ही वह दूकान से पैसे देकर वापस पलट लिए। उन्होंने एक छोटा सा पैकेट लड़के को पकड़ाया तो लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। दादाजी बोल पड़े- "बेटा, आजकल तरह-तरह की बीमारियां फ़ैल रही हैं, तू यहाँ परदेस में किसी मुसीबत में मत पड़ जाना।"
लड़के को संकोच से गढ़ा देख दादाजी एक बार फिर चहके- "सोच क्या रहा है, रखले, दादा हूँ तेरा!"[समाप्त]
दिल को छू लेनेवाली रचना
ReplyDeleteDhanyawad.Dewali ki shubhkamnayen!
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