Saturday, November 2, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी-भाग दो]

मालिक लोग तो अभी बंगले में थे नहीं, पोता अपने दादा को कंधे का सहारा देकर बाग़ में घुमा रहा था। बूढ़ा अपनी पुरानी स्मृतियों की फटी बोरी से टपकती यादों को समेटता बता रहा था कि कहाँ-कहाँ के झाड़-झंखाड़ को हटा कर उसने वटवृक्ष खड़े कर दिए, कैसे मौसमों की मार से लोहा ले-ले कर उसने गुल खिलाये।
पचास साल बहुत होते हैं, आदमी की  तो बिसात क्या, इतने में तो मुल्कों के नाम और दर्शन बदल जाते हैं।  बूढ़े के पास एक-एक बित्ते की  उसके हाथों हुई काया-पलट का पूरा लेखा-जोखा था मगर इस बात का कोई जमा-जोड़ नहीं था कि इस सारी उखाड़-पछाड़ में उसकी अपनी ज़िंदगी का क्या हुआ? उसकी अपनी उम्र की  काया कैसे और कब मिट्टी हो गई।
शायद जवान पोते पर उसकी बात का कोई ख़ास असर न पड़ने का यही कारण रहा हो।लड़का दादा की  बातें सुन-सुन कर शाश्वत खेल के किसी अगले खिलाड़ी की  तरह अपने भविष्य की  चौसर बिछाने में अपने मन को उलझाये था।
वह गांव में कुछ बरस स्कूल भी गया था।  उसे किताब-कापी-मास्टर-बस्ता और घंटी की  धुंधली सी याद भी थी।  वहाँ उसे बताया गया था कि बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, और ज्ञान के सरोवर के किनारे बैठ कर तो कठौती में गंगा भी समा जाती है।  पर उसके अतीत में कुछ नहीं समाया।  समाये तो केवल यार-दोस्तों के संग लगाए गए बीड़ी के कश ,गुटखों की पीक, मास्टर के थप्पड़ और ये स्कूल के अहाते से थपेड़े खिला कर बंगले के बगीचे में घास खोदने को छोड़ गया मटमैला अंधड़।
दादा ने पोते को बताया कि उसे यहाँ पूरे चौदह रूपये महीने के मिला करते थे और वह गांव,दादी,परिवार सब को  भूल कर पूरी मुस्तैदी से तन-मन लगाकर सहरा को नखलिस्तान बनाने में लगा रहता था, अर्थात बगीचे को गुलज़ार कर देने के सपने देखा करता था।[जारी]    
        

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