Thursday, December 31, 2015

इंसान नहीं, वक़्त बदलता है !

लोग कहते हैं कि लोग बदल जाते हैं, दरअसल लोग नहीं, उनका वक़्त बदल जाता है।
जब आपका वक़्त अच्छा होता है तो सिनेमा के पोस्टर पर भी आपका चेहरा बड़ा हो जाता है। यदि वक़्त ठीक न हो तो आपके बोले संवाद भी सम्पादित हो जाते हैं।
आज से ठीक ५० साल पहले एक फिल्म आई थी "वक़्त"
मैंने उसे तब भी कई बार देखा और अब भी, टीवी पर।
वक़्त के जानकारों ने उसे वक़्त के मुताबिक बदल दिया है।  उसमें से "वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज " जैसा दर्शन-मंडित गीत अब हटा दिया गया है।
उस फिल्म के मुख्य नायक-नायिका अब दुनिया में नहीं हैं, लिहाज़ा फ़ोन पर गाया गया उनका एक लम्बा और बेहद खूबसूरत गीत "मैंने देखा है कि गाते हुए झरनों के करीब,अपनी बेताबी-ए -जज़्बात कही है तुमने"अब काट दिया गया है।
"चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है, आखों में सुरूर आ जाता है" गीत में से नायिका के वे 'क्लोज़-अप' हटा दिए गए हैं, जिनके कभी देशभर में कैलेंडर छपे थे, और कई फिल्मों में उन्हें दोहराया गया था।
दूसरी ओर फिल्म की सहनायिका-सहनायक के कुछ दृश्यों में स्टिल दृश्य डाल कर उनका 'वक़्त' कुछ और लम्बा किया गया है। उस फिल्म की वे सहनायिका अब बड़ी हस्ती हैं, सहनायक भी दादासाहेब फाल्के अवार्ड विजेता।
वक़्त की अहमियत की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि अपने समय की सबसे लोकप्रिय उस नायिका-अभिनेत्री की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि टीवी के किसी चैनल ने उसकी कोई फिल्म तो क्या, गीत तक अपने किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया।
छोड़िये, साधना का जाना अब तो वैसे भी गए साल की बात हो गयी।
"हम चले जाते हैं मगर दूर तलक कोई नहीं,
सिर्फ पत्तों के खड़कने की सदा आती है"                    

सत्य, शिव और सुन्दर !

कहते हैं कि किसी के अंत समय में उसके बारे में केवल अच्छा ही बोला जाना चाहिए। लेकिन कहा यह भी जाता है कि किसी के जाते वक़्त उसके कानों में केवल सत्य का रस ही घोला जाना चाहिए। कई ऐसी बातें जो ज़िंदगी भर राज रहती हैं, किसी के अंतिम समय में ज़ाहिर कर देने का भी अपना ही सुख है।  ये पुण्य भी कहा जाता है। तो अब कुछ ऐसा कहना ज़रूरी है जो सत्य भी हो, शिव भी और सुन्दर भी।
तो सबसे अच्छी बात ये, कि चंद पलों में हमारे हाथ से छूट जाने वाले इस साल के बदले में जो साल हमें मिलने वाला है, वह इससे भी बड़ा है।  इसमें पूरे चौबीस घंटे ज़्यादा हैं।
दूसरी बात ये कि इसी साल के आगमन के साथ हमारी मौजूदा सदी सोलहवें साल में कदम रख रही है। किसी महिला के लिए सोलहवें साल की अहमियत क्या होती है, ये बताने की ज़रूरत नहीं है।  बहरहाल ये ज़रूर बताना पड़ेगा कि इसकी गोद में पुरुष रूपी लम्हे,पल, दिन, महीने, वर्ष कितने भी हों, सदी या शताब्दी महिला है।
शुक्र है कि नया साल शुक्रवार से ही आरम्भ हो रहा है।
और अंत में सबसे अच्छी बात ये, कि ये आनेवाला साल बिलकुल नया है, ये सच में पहले कभी नहीं आया।
एक ऐसे साल के लिए आपको बधाई और शुभकामनायें !
       

Wednesday, December 30, 2015

राज़ जो दफ़न कर देगा ये जाता हुआ वर्ष!

सब जानते हैं कि महान संगीतकार ओ पी नय्यर और महान गायिका लता मंगेशकर में एक बार अनबन हो गयी थी। इसी अनबन ने नय्यर साहब को विवश किया कि वे अपने अधिकांश गाने आशा भोंसले से गवाएं।  संयोग से बनी इस जोड़ी के एक से एक नायाब नग़मे भुलाये नहीं जा सकते, क्योंकि आशाजी के सुरों की महानता भी किसी से छिपी नहीं है।
उस समय के तमाम कैबरे आशाजी के गाये गीतों पर ही होते थे।  कहने वाले कहते थे कि आशा भोंसले की आवाज़ का जादू केवल एक ही गायिका जगा सकती थी, स्वयं आशा भोंसले।
उस समय का बेहद लोकप्रिय गीत "आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूँ " जब अभिनेत्री बबिता पर फिल्माया गया,तब किसी ने लताजी के सामने कह दिया कि ये गीत केवल आशा भोंसले ही गा सकती थीं। मन ही मन लता जी इस बात को चुनौती की तरह ले बैठीं।
उन्होंने एक फिल्म में हेलन के लिए लिखे गए कैबरे गीत को भी खुद गाने की इच्छा जाहिर कर दी।  जबकि इस से पहले अनेक फिल्मों में आशा भोंसले ने कैबरे-नर्तकी के लिए, और उसी फिल्म में लता मंगेशकर ने नायिका के लिए लिखे गीत गए थे।
हेलन पर फ़िल्माया गया, लता का गाया यह नृत्य गीत "आ जाने जां ..."  इतना शानदार था कि निर्माता ने फिल्म की नायिका पर फिल्माने के लिए भी मदिरा के नशे में झूम कर गाया गया एक ऐसा ही गीत लिखवाया। गीत के बोल थे-"कैसे रहूँ चुप कि मैंने पी ही क्या है?"
फिल्म थी इन्तक़ाम और नायिका थीं साधना।
यह गीत इतना ज़बरदस्त हिट हुआ कि इसे "बिनाका गीत माला"ने, जो उस समय फिल्म संगीत का सबसे प्रामाणिक आइना मानी जाती थी,साल का सर्वश्रेष्ठ गीत चुना।
कहते हैं कि इस गीत से जिस तरह लता जी ने बहन आशा भोंसले का एकाधिकार तोड़ा,उसी तरह साधना ने बहन बबिता पर फिल्माए गीत का जलवा भी धुंधला किया।
एक संयोग इसे भी कह लीजिये कि ओ पी साहब की तरह साधना जी भी नय्यर थीं।
इस साल ने अपने साथ ले जाने के लिए जो लोग चुने उनमें अभिनेत्री साधना भी हैं।                       

वे बना रहे हैं शानदार मक़बरा

तेज़ी से बीतते हुए ये पल ईंटें चिन रहे हैं।
इन्हें एक स्मृति भवन तैयार कर देने की जल्दी है।
इस भवन की दीवारों पर ये टांग देंगे एक पूरे साल का लेखा-जोखा, और पहना देंगे उसे इतिहास की माला।पुष्पहार से सजे ये पल फिर नहीं लौटेंगे, कभी नहीं !
मैं असमंजस में हूँ, इस साल घटने वाली घटनाओं में मुझे कुछ ऐसी बातें साफ़-साफ़ दिखाई दे रही हैं, जो किसी के मिटाये से नहीं मिटेंगी।  मुझे उन पल-श्रमिकों पर तरस आ रहा है जो नाहक़ मक़बरा गढ़ रहे हैं, ये लाख कोशिश करें कुछ बातों को तो हरगिज़ नहीं दफ़न कर पाएंगे इतिहास की खोह में।
आइये देखें, ऐसा क्या है जिस पर ये बीतते पल बेअसर रहेंगे?
१. आपकी हमारी उम्मीदें
२. आपके-हमारे रिश्ते
३. और बेहतर दुनिया बनाने की हमारी-आपकी कोशिशें
४. बिना व्यवधान उगते चाँद और सूरज
५. नाचते-गाते लोग
६. हम सबके ख़्वाब
७. हर सुबह नए जोश से उठने के हमारे हौसले
८. हर आँख में प्यार देखने के ललक-भरे सिलसिले
९. सबकी रोटी के लिए सुलगती आंच
१०. पुराना बीतने से पहले एक नया साल लाकर खड़ा कर देने का शाश्वत ज़ुनून !         

Monday, December 28, 2015

पीढ़ी अंतराल और बॉलीवुड

पीढ़ियों में अंतर होता ही है।
पिछले दिनों क्रिसमस की धूमधाम के बीच आने वाले नए साल के प्रति स्वागतातुरता और बढ़ी दिखी। समाचारों ने भी अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने देखने वालों के बीच जिज्ञासा जगाई।
नयी पीढ़ी को ये देखना भाया कि दीपिका पादुकोण ने सबसे ज़्यादा फॉलोअर्स के साथ आभासी दुनिया की सबसे बड़ी बॉलीवुड हस्ती का मुक़ाम पाया। उनका साथ दिया क्रम से आलिया भट्टऔर प्रियंका चोपड़ा ने। खबर ये भी बनी कि सोनाक्षी सिन्हा बेहद चपलता से सक्रिय रह कर भी टॉप फ़ाइव में जगह नहीं बना सकीं।
उधर पुरानी पीढ़ी को दुनिया के दूसरे पहलू के अहसासों ने भिगो दिया जब उन्हें लव इन शिमला,परख,एक मुसाफिर एक हसीना, वो कौन थी, मेरे मेहबूब,राजकुमार,आरज़ू,वक़्त,मेरा साया,इन्तक़ाम,एक फूल दो माली, दूल्हा-दुल्हन,हमदोनों , मनमौजी,बद्तमीज़,छोटे सरकार,अनीता,अमानत, इश्क़ पर ज़ोर नहीं,दिल दौलत दुनिया,गीता मेरा नाम, आप आये बहार आई,ग़बन,महफ़िल,हम सब चोर हैं, प्रेमपत्र जैसी फिल्मों की नायिका "साधना" के निधन के बाद उनकी शवयात्रा के समाचार देखने पड़े।
साधना से जुड़े कुछ तथ्य जहाँ रोचक हैं, वहीँ आश्चर्यजनक भी।
-१९६० से १९७० के बीच सर्वाधिक हिट फ़िल्में देने वाली इस नायिका को उस समय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्मफेयर अवार्ड के लिए तो कभी नहीं चुना गया, किन्तु फिल्मफेयर की सहयोगी पत्रिका माधुरी ने  दर्शकों की राय से जब "फिल्मजगत के नवरत्न" चुनने का सिलसिला शुरू किया तब पहले ही वर्ष दर्शकों ने राजेश खन्ना को सर्वाधिक लोकप्रिय नायक और साधना को सर्वाधिक लोकप्रिय नायिका चुना।
-मीना कुमारी,वहीदा रहमान,माला सिन्हा, नूतन और वैजयंती माला के कैरियर के उतार के दिनों में सायरा बानो,आशा पारेख, शर्मिला टैगोर,बबिता,नंदा आदि के बीच स्पर्धा साधना के बाद आरम्भ होती थी, अर्थात वे दौर की सबसे सुंदर और सफल अभिनेत्री मानी जाती थीं।
-साधना ने किसी फैशन या प्रचलित परिधान को अंगीकार नहीं किया, बल्कि जो पहना, जिस तरह खुद को पेश किया, वही फैशन बन गया।
-साधना ने अपने कैरियर में न किसी गॉडफादर का सहारा लिया, न अपना झंडा बुलंद रखने के लिए कोई  गॉडएन्ज़िल छोड़ा।
-साधना अपने सबसे अच्छे दिनों में कैमरे के सामने से हट गयीं और ज़िंदगी भर दर्शकों को अपनी उसी छवि के साथ नज़रआने के लिए सार्वजनिक जीवन से दूर रहीं।
-साधना ने दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के साथ कोई फिल्म नहीं की।                  
                 

Sunday, December 20, 2015

"किशोर" की परिभाषा


तीन वर्ष पूर्व दिल्ली में घटे भीषणतम दुष्कर्म मामले के बाद ये सवाल उभर कर आया कि आखिर किस उम्र के किशोर को यौन क्रिया की दृष्टि से "पूर्ण मानव" माना जाये?
इसका सबसे सटीक और पूर्ण उत्तर यही है कि जिस उम्र का व्यक्ति [युवक या बालक] ऐसा अपराध करदे,वही उम्र सज़ा के लिए पर्याप्त मानी जानी चाहिए. यदि बच्चा बड़ों जैसा अपराध करे और हम उसे बच्चा समझ कर सजा में छूट देदें,तो हमें इस बात लिए भी तैयार रहना चाहिए कि कल हर चोर/डाकू/आतंकवादी बच्चों को अपराध के लिए प्रशिक्षित करके उनसे ही अपराध करवाएगा और हमारा कानून माफ़ी का गुलदस्ता हाथ में लिए अपराधियों को पुचकारता रहेगा.
यह एक कड़वा सच है कि देश में कोई कानून बनाना अब वैसे भी मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि हम दबंग बहादुरी के उस दौर में पहुँच गए हैं जब जनता के चुने हुए लोग काम करने के लिए "जनता से नकारे गए" लोगों के मोहताज़ हैं.देश ने समय-समय पर किस्म-किस्म की गांधीगिरी का साक्षात्कार किया है !       

Tuesday, December 15, 2015

लोकतंत्र में सत्ता वह है जिसे हम चुनते हैं ...तो हमने कुछ नहीं खोया

एक पखवाड़े बाद जब ये साल हमारी निगाहों से ओझल हो जायेगा तो शायद हर बीतने वाले साल की तरह कुछ दिन तक हम लोग इसे भी याद करेंगे.इससे वाबस्ता कई बड़ी-छोटी बातें और ख़बरें हमारे सामने लाई जायेंगी.लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनके बाबत प्रायः हम नहीं सोचेंगे.आइये,आज उन्हीं के बारे में सोचें.
देश [और दुनिया ने भी] ने तेज़ी से इस साल जिन बातों को खोया है,उनमें से कुछ ये बताई जा रही हैं-
१. नेताओं ने मान-सम्मान
२. अभिनेताओं ने लोकप्रियता
३. खिलाड़ियों ने आत्मविश्वास
४. अमीरों ने सहानुभूति
५. गरीबों ने जीने के स्रोत
६. कलाकारों ने दर्शक
७. साहित्यकारों ने विश्वसनीयता
८. प्रशासकों ने पकड़
९. बच्चों ने बेहतर भविष्य के अवसर
१०. लोगों ने सहनशीलता
किन्तु संतोष की बात ये भी है कि अब देश की दो की जगह चार ऑंखें हो गयी हैं-दो सत्ता की, दो विपक्ष की. और ये सब बातें हमने केवल विपक्ष की नज़रों में खोई हैं, सत्ता की नज़र में नहीं।
      

Wednesday, December 9, 2015

"खान" और "कुमार" एक साथ भी हुए हैं !

बॉलीवुड में अशोक कुमार,मनोज कुमार, राजकुमार, राजेंद्र कुमार, किशोर कुमार, अक्षय कुमार का जलवा रहा तो फ़िरोज़ खान, संजय खान, शाहरुख़ खान, आमिर खान, सलमान खान, सैफ अली खान की चमक भी फैलती रही। 
लेकिन जिस शख़्सियत का जन्मदिन देश कल मनाने जा रहा है वह एक ऐसा खान था,जो कुमार बन कर फ़िल्मी-आसमान में छाया रहा। ये बात है दिलीप कुमार अर्थात यूसुफ़ खान की,जो खान भी है और कुमार भी !
दिलीप कुमार स्वभाव से बेहद शर्मीले रहे हैं. यही कारण है कि वे मुस्लिम नायिकाओं [नर्गिस/मधुबाला/मीना कुमारी/वहीदा रहमान/सायरा बानो/मुमताज़ के साथ जितनी सहजता से काम कर लेते थे, हिन्दू परिवार से आई अभिनेत्रियों के साथ अंतरंगता से जुड़ने में झिझकते थे.
ये आश्चर्य ही कहा जायेगा कि लगातार उनके ज़माने में सक्रिय बनी रही अभिनेत्रियों साधना/नंदा/आशा पारेख/बबिता/हेमा मालिनी/जया भादुड़ी आदि के साथ उन्होंने एक भी फिल्म नहीं की.माला सिन्हा के साथ मात्र एक, और शर्मिला टैगोर के साथ भी सिर्फ एक फिल्म,वह भी तब, जब वे नवाब पटौदी से प्रेमविवाह करके आयशा सुल्ताना बन चुकी थीं.नूतन के साथ गिनी-चुनी भूमिकाएं जिनमें भूमिका में ही पर्याप्त दूरी थी.
यहाँ अपवाद सिर्फ वैजयंतीमाला थीं, जिनके साथ उनकी कालजयी सुपरहिट फिल्म "गंगा जमुना"आई. इसके बारे में भी जानकारों को पता है, कि वैजयंतीमाला मद्रास से आने के कारण उत्तर भारत की संस्कृति के लिए उस दौर में नई थीं, और वे भी दिलीप की तरह हिंदी जगत में औपचारिक रहती थीं.
दूसरी तरफ वहीदा रहमान/मीना कुमारी / मधुबाला के साथ दिलीप की जबरदस्त जोड़ी थी.इन तीनों के साथ उन्हें ट्रेजेडी किंग बना देने वाली यादगार भूमिकाएं मिलीं.
सबसे बड़ा अजूबा तो ये, कि जिन सायरा बानो को दर्शक/समीक्षक बड़ी या संजीदा अभिनेत्री तक नहीं मानते थे, उनके साथ "अभिनय सम्राट" की उपाधि से नवाज़े गए दिलीप ने सर्वाधिक फिल्में दीं, और बेहद लोकप्रिय.
चलिए छोड़िये, ये शायद "दिल का मामला" था, सायरा जी उनकी जन्म-जन्मान्तर की जीवन संगिनी जो बनीं.
बहरहाल, हमारी दुआएं हैं कि दिलीप कुमार का यही नहीं, बल्कि १०० वां जन्मदिन भी देश उनके साथ इसी हंसी-ख़ुशी से मनाये.      
 

Tuesday, December 8, 2015

जब महापुरुषों के बारे में लिखें

कुछ लेखक निरंतर बड़े और महान लोगों के बारे में लिखते रहते हैं।  यह अच्छा है, और नई पीढ़ी के लिए ज़रूरी भी।  यदि ऐसा करते समय कुछ बातों का ध्यान रख लिया जाये तो इस कार्य की उपयोगिता और भी बढ़ सकती है-
१. अब ऐसा समय नहीं है कि समाज में अधिकांश पुरुष ही "महान" दिखाई दें, महिलाएं भी इस कतार में बराबर की हिस्सेदार हैं, इसलिए शीर्षकों में "महान हस्तियां" कह कर संतुलन लाएं.
२. जिस व्यक्ति के बारे में लिख रहे हैं, उसकी योग्यताओं और अच्छाइयों को लेकर व्यावहारिक तथा विश्वसनीय रहें.उसे चमत्कारिक अतिशयोक्ति से "सुपरमैन" बनाने की कोशिश न करें.बच्चे उसी बात को अपनाना चाहते हैं, जिस पर विश्वास कर सकें।
३. यदि आप किसी व्यक्ति के संवाद सीधे [डायरेक्ट स्पीच] लिख रहे हैं तो उन्हें उसी भाषा में देवनागरी/रोमन में लिखने की कोशिश  करें,जिसमें वे कहे गए हैं. अन्यथा उन्हें विवरणात्मक शैली [इनडायरेक्ट स्पीच]में ही लिखें.दूसरी भाषा में प्रत्यक्ष उसी के मुंह से कहलवाना विश्वसनीय नहीं लगता.      

विपक्ष में हैं तो क्या?

इंदिराजी जब प्रधानमंत्री बनीं,उन्होंने शिक्षा मंत्रालय का नाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया। इसके पीछे सोच ये था कि यदि देश में शिक्षित लोगों की आबादी ४० प्रतिशत है, तो "शिक्षा"मंत्री केवल ४० प्रतिशत लोगों का न रहे, वह शत-प्रतिशत लोगों का ख्याल करे।  वे अनौपचारिक/दूरस्थ/मुक्त शिक्षा की भी पक्षधर थीं। 
देश का सौभाग्य है कि मौजूदा प्रधानमंत्री ने अपने पूर्ववर्तियों की हर "अच्छी" बात स्वीकारने की कोशिश की है.समाज के बीच लोकप्रिय और साधारण शिक्षित स्मृति ईरानी जी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपना भी ऐसा ही एक कदम था। अधिकांश उच्च शिक्षित लोग अशिक्षितों की समस्या समझ, उनके साथ न्याय नहीं कर पाते.
यह एक कठोर सत्य है कि यदि आप किसी खिलाड़ी को किसी काम की ज़िम्मेदारी देंगे तो वह सिद्धहस्त खिलाड़ियों के लिए ही सॉफ्टकॉर्नर रखेगा.यदि गैर-खिलाड़ियों की सही देखभाल चाहते हैं तो बड़े खिलाड़ी को यह काम मत दीजिये.
एक बड़े डॉक्टर जब स्वास्थ्यमंत्री बनाये गए तो उनके जेहन में डॉक्टरों का हित कौंध रहा था.वे आनन-फानन में सभी सरकारी डॉक्टरों की सेवानिवृत्ति की आयु सत्तर वर्ष करने के कागज़ात तैयार कर बैठे.उनके लिए समूची व्यवस्था, बजट,अन्य पेशों के संभावित आक्रोश का मुद्दा गौण रहा.सर्व समावेशी प्रधान मंत्री ने तत्काल सरकार पर ये बोझ आने से रोका.
आप खुद सोचिये, यदि विधायकों-सांसदों के वेतन बढ़ाने का काम किसी गैर-सांसद/विधायक को दिया जाता तो ये इतनी तत्परता से बढ़ पाता ?
एक साधारण बस की कल्पना कीजिये.बस में बैठे मुसाफिर अंदर बैठे मुसाफिरों का ही पक्ष लेते हैं, बाहर खड़ों का नहीं.
इंदिरा जी मंत्री-परिषद का री-शफ़ल इसीलिए जल्दी-जल्दी करती रहती थीं.
         
  

Saturday, December 5, 2015

बुद्धिमत्ता को कोई नहीं भूलता

"द्विअर्थी " साहित्य अकबर के ज़माने से ही लोकप्रिय है।  अकबर-बीरबल के किस्सों में बुद्धिमानी भी होती थी और लतीफ़ापन भी.अब ये दोराहा राजनीति में आता दृष्टिगोचर हो रहा है.
दिल्ली राज्य सरकार ने कोर्ट के कहते ही प्रदूषण की समस्या हल कर दी.सड़क पर दौड़ते वाहनों को आधा-आधा बाँट दिया. तीन दिन ये चलें, तीन दिन वो चलें.
भारत में पूरा तो कभी भी कुछ नहीं हो सकता, लेकिन आधा-आधा हो तो सब हो सकता है. यही हमारी हर समस्या का समाधान है.पूरी तो यहाँ सफाई जैसी चीज़ भी नहीं होती. सरकार साफ करेगी तो हम गन्दा करेंगे, हम विपक्ष हैं.
अगली समस्या है भ्रष्टाचार.
भ्रष्टाचार हटाया तो आधे खुश होंगे कि  काम हो गया , आधे दुखी कि कमाई गयी .
तो सरकार तय कर दे कि सोमवार,बुधवार,शुक्रवार ईमानदारी से काम होंगे, मंगलवार,गुरुवार और शनिवार ले-देकर.
अब  जिनकी कमाई भ्रष्टाचार से है वे भी खुश, और जिनके पास रिश्वत देने को पैसे नहीं हैं वे भी खुश.अपने काम दिन देख कर करवालो.
तो अब सारी योजनाएं अकबर-बीरबल के किस्सों की तरह मशहूर होने वाली हैं.      

Friday, December 4, 2015

विश्वसनीय चुटकुले

जब आपको कोई लतीफ़ा या चुटकुला सुनाया जाता है तो आप हँस कर उसका आनंद उठा लेते हैं।  शायद ये कोई नहीं सोचता कि ये चुटकुला कैसे और कब बना होगा? किसने बनाया होगा। 
लेकिन हम लोग खुशकिस्मत हैं कि लतीफों की फैक्ट्रियां हमारे आसपास ही लगी हैं और हम नित नए उत्पाद बनते देखते हैं। 
कुछ साल पहले एक सरकार ने अपने दफ्तरों में बढ़ती फाइलों और कागज़ों के अम्बार से तंग आकर ये फ़रमान निकाला कि गैर-ज़रूरी कागज़ात को रद्दी में निपटा दिया जाये।  लेकिन सरकार खासी मुस्तैद भी थी, ये भी सोचा कि रद्दी में बेचने के बाद में यदि किसी कागज़ की ज़रूरत पड़ी तो क्या होगा? तत्काल दूसरा आदेश भी निकाला कि रद्दी में बेचने से पहले सभी कागज़ों की एक-एक फोटोप्रति ज़रूर फाइलों में रख ली जाये.
दिल्ली राज्य की सरकार तो एक कदम और आगे बढ़ गयी.प्रदूषण कम करने के लिए निश्चय किया है कि सड़कों पर एक दिन ०,२,४,६,८ अंतिम नंबर वाली गाड़िया चलें और दूसरे दिन १,३,५,७,९ अंतिम नंबर वाली.
सच में दिल्ली की सड़कों पर बेतहाशा बढ़ती गाड़ियों की संख्या ने प्रदूषण तो बहुत बढ़ा दिया है.
तो अब दिल्ली में एक गाड़ी के मालिक दो-दो गाड़ियां खरीदने के लिए आज़ाद हैं। दिल्ली वाले एक दिन कार में, दूसरे दिन बस में तो जाने से रहे.आखिर दिल्ली वाले हैं !
फिर और भी रौनकें बढ़ेंगी.नंबर चैक होंगे तो जगह-जगह ट्रैफ़िक-जाम, ट्रैफ़िक पुलिस डाल-डाल तो वाशिंदे पात-पात.फिर चाट, सलाद,गुटके, चाय-पानी की रेहड़ियां.दिल्ली में हज़ारों गाड़ियों से पटी सड़कों पर लेन नंबर २, ४, ६ तो किसी को दिख नहीं पाती, एक अदद सिपहिया को दो दूनी चार कौन से चश्मे से दिखेगा? सिपाही भी वो, जिनके लिए दिल्ली सरकार दुखी है कि हमारी नहीं सुनते.
एक फायदा ज़रूर होगा- चालान काटने वाले सिपाही विधायकों की अंधाधुंध बढ़ी तनखा तो वसूल देंगे.
तो आदरणीय दिल्लीवासियो,जो सरकार आपको बिजली-पानी मुफ्त देगी उसकी तनखा तो आपको देनी ही पड़ेगी न?
जब तीन दिन आप पब्लिक ट्रांसपोर्ट से चल लेंगे तो शायद पब्लिक ट्रांसपोर्ट को भी ये पश्चाताप होने लगे कि हाय,जब हम इन्हें तीन दिन ले जा पाये तो छहों दिन क्यों न ले गए?      
   

Thursday, December 3, 2015

भाग्यशाली भारत

भारत में वर्षों तक कभी राजाओं -रजवाड़ों का शासन था।  राजा न रहे तो उसकी संतान का तत्काल राज्याभिषेक हो जाता था।  जब तक राजा जीवित रहे, ताज उस के सिर पर ही रहता था, चाहे वह वृद्ध, अशक्त या रुग्ण ही हो.उसके मरते ही सत्ता उसके पुत्र के पास चली जाती थी चाहे वह अनुभवहीन, छोटा या नासमझ ही क्यों न हो.राजा का ही यह दायित्व था कि वह जाने से पहले राज्य को शासक दे, चाहे इसके लिए कितने भी विवाह करने पड़ें, किसी को गोद लेना पड़े या किसी शत्रु के हाथों पराजय झेलनी पड़े.
यह परम्परा भारत से अँगरेज़ शासकों ने छुड़ाई,जब उन्होंने छल,बल,छद्म या लालच से उन्हें सत्ता मुक्त किया.
जिस तरह शराब छोड़ने पर भी शराबी के मुंह से मदिरा की गंध आसानी से नहीं जाती, उसी तरह सत्ता छूटने पर उसका ख़ुमार उतरना भी आसान नहीं होता.
राजाओं से छिने राजसी-वैभव की यह लत इंदिराजी ने छुड़वाई,जब उन्होंने पूर्व-राजाओं को सरकार की ओर से दिए जाने वाले गुज़ारे-भत्ते [ प्रिवीपर्स] को बंद किया.
इंदिराजी ने इसी तरह के और भी कई बड़े-बड़े काम किये.
लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि सब बड़े-बड़े कामों की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की ही मान ली गयी.ठीक तो है, जिसने पहले किया, वही अब करे.
भारत इस अर्थ में अत्यंत भाग्यशाली है कि यहाँ जब भी कोई काम फैलता है तभी कोई न कोई उसे करने वाला भी देश को मिल ही जाता है.बीसवीं सदी की ही तरह इक्कीसवीं सदी में भी !     

प्रेस से छेड़छाड़ सरकारी पाप कहलाता है

प्रेस से छेड़छाड़ सरकारी पाप कहलाता है फिर भी सरकार "असहिष्णुता" रोकने के लिए ये तो कर ही सकती है-
१. चंद मिनटों में सैंकड़ों ख़बरों के प्रसारण वाली शैली पर रोक लगाए [शालीन सम्पूर्ण बयानों में से आधा-अधूरा जुमला ले उड़ना इसी से होता है ]
२. समाचार चैनलों के एंकरों [विशेषकर बहस संचालित करने वाले] के गले की "पिच सीमा" तय करे.ये सभ्य और शालीन प्रवक्ताओं/ नेताओं  को भी प्राइमरी स्कूल के बच्चों की तरह डांट कर बेवजह आक्रामक और उद्दंड बना रहे हैं.
३. चर्चा में कब किसके सामने से कैमरा हटेगा, यह अधिकार किसी तटस्थ मध्यस्थ को सौंपने की बाध्यता हो.इन "बहसों" को देखते समय याद आ जाता है कि भांड-विदूषकों ने गंभीर कवियों को मंचों से कैसे हाशिये पर धकेला !      

Wednesday, December 2, 2015

यदि कर सके तो सरकार ये कर दे !

इस समय माहौल बहुत अच्छा है। 
देश के अधिकांश बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, संत,विचारक आदि अपने सब दैनिक क्रियाकलाप छोड़ कर "सूरज को देखते हुए सूरजमुखी फूल" की भांति केवल मोदीजी और केंद्र सरकार को ही देख रहे हैं। ये आपको बताते हैं कि सरकार ने क्या नहीं किया, क्या-क्या गलतियां कीं, प्रधानमंत्री कहाँ गए, कहाँ नहीं गए, उन्होंने क्या पहना, क्या पहनना छोड़ दिया, क्या खाया, किसके साथ खाया, क्या बोले, क्यों बोले, क्यों नहीं बोले... आदि। 
सरकार उनकी इस सक्रियता का सकारात्मक लाभ क्यों न ले?
प्रत्येक जिला अधिकारी के कार्यालय में एक बोर्ड और मार्कर रखवा दे, और बुद्धिजीवियों का आह्वान करे कि वे जब चाहें, यहाँ आकर बोर्ड पर लिख जाएँ कि सरकार ने क्या गलत किया, या वो क्या करे?
आवश्यक हो तो सरकार इसके लिए उन्हें आने-जाने का किराया-भत्ता भी दे। जनसम्पर्क विभाग रोज इस बोर्ड की सामग्री स्थानीय अख़बारों को उपलब्ध करवा दे.   
बोर्ड पर शीर्षक हो- "क्या कहते हैं देश/समाज के हितैषी?"

ये चुनौती है

 एक समय था जब हमारे देश का तमाम कामकाज अंग्रेजी में चलता था,उस समय अधिकांश भारतवासी कुछ भी समझ नहीं पाते थे.
किन्तु अब राजभाषा कर्मियों के निरंतर प्रयास से यह दिन आ गया है कि अब काफी कामकाज हिंदी में भी होने लगा है.लेकिन इसके भी अपने नुकसान हैं.अब कई अंग्रेजीदां लोग इसे समझ नहीं पाते.
 हिंदी के तमाम शिक्षकों और विशेषज्ञों के लिए इस समय एक बड़ी चुनौती है। उन्हें या तो "मुहावरों" को सुधारना होगा, या फिर बिलकुल हटा देना होगा।
होता ये है कि कोई मुहावरा बोला जाता है, यथा -"धोबी का कुत्ता,घर का न घाट का"
इसका अर्थ है कि व्यक्ति दो काम करने चला पर कोई भी पूरा नहीं कर पाया."हाथी निकल गया, कुत्ते भौंकते रह गए" का अर्थ है व्यक्ति ने आलोचना की परवाह किये बिना अपना काम कर लिया.
किन्तु हमारी संसद में यदि कोई हिन्दीभाषी ये मुहावरा बोलता है तो उसे समझे बिना कहा जाता है-"हमें कुत्ता कह दिया, हमें हाथी बता दिया"
और इस तरह जो बात 'हिंदी के प्राथमिक ज्ञान' की है उसे "असहिष्णुता"का मुद्दा बता कर संसद ठप्प कर दी जाती है.
मज़ा ये, कि संसद ठप्प करने वाले कभी ये नहीं कहते कि हमने आज न काम किया, न औरों को करने दिया, अतः हमारे वेतन-भत्ते काट लो !    

Tuesday, December 1, 2015

अद्भुत ! आश्चर्यजनक !

आजकल एक बड़ी मज़ेदार चीज़ देखने को मिल रही है। 
वर्षों से हम जिन लेखकों और साहित्यकारों को पढ़ और सराह रहे थे,उनमें से कई आज अपनी पूरी ताकत केवल वर्तमान सत्ता को कोसने, विरोध करने, मज़ाक उड़ाने और उस पर तरह-तरह की टिप्पणी करने में लगाए हुए हैं.
ऐसे-ऐसे नामी संपादक जिन्हें किताबों और पत्रिकाओं के प्रूफ देख पाने तक का समय नहीं मिलता था, वे मोदीजी के भाषण, उक्तियाँ,उच्चारण,पहनावे, कार्यकलाप, भारतीय जनता पार्टी के कार्यों, कार्यक्रमों पर इस तरह टकटकी लगाए हुए हैं जैसे इनका जन्म ही इस काम के लिए हुआ है.देश की जिस जनता ने ३०० सीटें देकर इस दल को सत्तासीन किया है, उसके समर्थकों के लिए भी इन्होंने तरह-तरह के नाम ईज़ाद कर लिए हैं और ये रात दिन, सोते जागते, उठते बैठते केवल यही देख रहे हैं कि मोदीजी पल-पल क्या कर रहे हैं !
किसी समय आपातकाल के बाद इंदिराजी को भी ऐसा ही सौभाग्य मिला था कि हर आदमी उनकी ही बात कर रहा था, चाहे उनके पक्ष में, चाहे उनके विरोध में.शायद वे इसी कारण आराम से दोबारा सत्ता में आई थीं.
लगता है अगले चुनाव में बीजेपी को अपना प्रचार करने की ज़रूरत बिलकुल नहीं पड़ेगी, वो इन "बुद्धिजीवियों" के रात-दिन के भजनालाप से ही जीत जाएगी ! 

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...