Saturday, November 30, 2013

सबसे बड़ा खलनायक

राजस्थान में आज विधानसभा के लिए वोट पड़ रहे हैं। पार्टियां,प्रत्याशी, पैसा और पॉवर अपने चरम पर हैं।  "कथनी और करनी" जैसे मुहावरे नई पीढ़ी बिना पढ़े सीख रही है।
निर्वाचन आयोग ने कहा है कि प्रत्याशी सीमा से ज्यादा खर्च न करें।  निर्वाचन आयोग का नोटिस घर-घर जाकर नहीं पढ़वाया जा सकता।  ये ज़िम्मेदारी मीडिया की  है कि इस बारे में लोगों को सही और सटीक जानकारी दे, और ऐसे फैसलों पर अनुवर्तन करने में आयोग की  सहायता करे।  लेकिन हो उल्टा रहा है। मीडिया कई बिल्लियों के बीच बन्दर की  भूमिका में है।  लोगों को सही बात समझाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।  वह तो खुद अनाप-शनाप, उल्टे-सीधे, परस्पर विरोधाभासी विज्ञापन सभी के लिए छाप कर सबकी जेब से पैसा बटोरने में लगा है।
सेठों के हाथों में खेलता मीडिया बड़े-बड़े पैकेज पार्टियों से लेकर अंतिम समय तक उनके उम्मीदवारों की झूँठी आरती गाने में लगा है, और अरबों रूपये के इन विज्ञापनों की कम्बाइंड रसीद देकर प्रत्याशियों को बचाने और चुनाव आयोग की  आँखों में धूल झौंकने का काम कर रहा है।
उस पर तुर्रा यह, कि मीडिया "पेड न्यूज़" न छापने का अपना खुद का छोटा सा विज्ञापन भी साथ में छाप कर जनता के जले पर नमक छिड़कने और समाज की  बौद्धिकता पर घिनौना पलीता लगाने का काम कर रहा है।
लगता है कि मीडिया आज न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की  निगरानी छोड़, खुद सबसे पहले सड़ गया।         

Sunday, November 24, 2013

ऐसे भी हुए निर्णय

"भारत रत्न" सम्मान मोहनदास करमचंद गांधी को नहीं मिला?
अरे,क्यों?
क्योंकि वह अब्दुल गफ्फार खान अर्थात "सीमान्त गांधी" को मिला।
तो क्या हुआ?
एक से विचार,एक से कार्य,एक से व्यक्तित्व के लिए दो लोगों को पुरस्कृत करने से क्या लाभ? लता मंगेशकर को यह पुरस्कार मिला, तो क्या आशा भोंसले, किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश को भी मिले?
अरे पर अब्दुल गफ्फार खान को आज़ादी के कई दशक बाद मिला, तब तक महात्मा गांधी के नाम पर विचार नहीं हुआ?
जिस समिति ने राजीव गांधी को इसके योग्य पाया उसी ने वल्लभ भाई पटेल या सुभाष चन्द्र बोस को भी  योग्य पाया। सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु कब हुई?
१९४४ में।  पर कोई-कोई कहता है कि अब तक नहीं हुई।
राजीव गांधी का जन्म ?
१९४४ में।
इस सम्मान का नाम "रत्न" है, रत्न चाहे किसी के राजमुकुट में जड़ा हो, चाहे किसी खदान के गहरे गड्ढों में दबा हो,वह रत्न ही है। वह ज़मीन से निकल कर जब भी उजालों में आएगा, तभी दमकेगा।
इतिहास गवाह है कि गौतम को ज्ञान तब हुआ जब वह बोधि वृक्ष के नीचे बैठे।  सम्राट अशोक में अहिंसा भाव तब जगा जब उनकी तलवार से सैंकड़ों क़त्ल हो चुके थे।  ज़ंज़ीर हिट तब हुई जब सात हिंदुस्तानी, रेश्मा और शेरा, बंसी बिरजू, एक नज़र, बंधे हाथ,बॉम्बे टू गोआ फ्लॉप हो चुकी थीं !
घटिया उदाहरण।         

Tuesday, November 19, 2013

नए बिरवे रोपने से पहले पुरानों की सुध भी तो ले कोई!

पेड़ लगाने का ही नहीं, उनको हरा-भरा रखने का काम भी ज़रूरी है।
आजकल भारत में "रत्नों" का खनन चल रहा है।  सब अपनी पसंद का कोई न कोई नाम 'भारत-रत्न' सम्मान के लिए सुझा रहे हैं।
कुछ लोगों को उन लोगों पर छींटा-कशी करने में ही आनंद आ रहा है, जिन्हें यह सम्मान मिला है।
इसमें कोई संदेह नहीं, कि देश के मौजूदा दौर में कुछ ऐसी शख्सियतें अवश्य हैं, जिन्हें यदि यह सम्मान दिया जाता है, तो इसकी गरिमा बढ़ेगी ही। साथ ही जिन लोगों को अब तक यह सम्मान मिला है, उनमें भी ऐसा कोई नहीं है जिस पर अंगुली उठाने की ज़रुरत किसी को पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व निर्विवाद है, तो अमिताभ बच्चन भी बार-बार पैदा नहीं होते। सचिन ने खेलने के यदि पैसे लिए थे, तो अब तक की  सम्मानित सूची में अवैतनिक कोई नहीं है।  जितना जिस काम से मिलने की  परम्परा है, उतना तो सभी को मिला ही है।  
लेकिन फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या "भारत-रत्न" चुन कर भुला देने के लिए हैं?
उनके रास्तों का अनुसरण हम क्यों नहीं कर रहे? उनमें ऐसे कितने हैं, जो आज हमारे आदर्श बने हुए हैं?कितने ऐसे हैं, जिनके बारे में, जिनके कार्यों के बारे में हमारी नई  पीढ़ी को बताने की  माकूल व्यवस्था की  गई है? जिन विभूतियों के अपने वारिस-परिजन आज असरदार हैं, उनका डंका तो सतत बज रहा है, पर उनका क्या हाल है, जिन्होंने जीतेजी देश के आगे अपनी खुद की, और अपने परिवार की सुध नहीं ली। लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारी लाल नंदा, विनोबा भावे, आज कहाँ हैं?करोड़ों की ज़मीनों की  हेराफेरी करके कुर्सी से चिपके बैठे लोगों को ये मालूम भी  है कि "भूदान" आंदोलन क्या था?
मज़े की  बात ये है कि ऐसे ही लोग आज "भारत रत्न" बांटने वालों में शामिल हैं।      

Sunday, November 17, 2013

जिसका असबाब बिना बिका रह जाए वो सौदागर कैसा?

फेसबुक पर टहलते हुए आज एक विचार देखा।  कुछ लोग कह रहे थे कि क्या भारत में अब तक कोई साहित्यकार "भारत रत्न" हुआ है?
वैसे तो "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" जैसे ग्रन्थ लिखने वाले नेहरूजी को साहित्यकार की श्रेणी में भी माना ही जाना चाहिए,वैज्ञानिक व दार्शनिक साहित्य डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और ए पी जे अब्दुल कलाम साहब का भी उच्च कोटि का है, मगर यहाँ शायद बात हिंदी के उन रचनाकारों की  है, जो खालिस साहित्यकार के तौर पर ही प्रतिष्ठित हैं।  प्रेमचंद और शरतचंद्र जैसे।
लोग सचिन को "भारत रत्न" मिलने पर अन्य खेलों के स्टार खिलाड़ियों को भी याद कर रहे हैं। मिल्खा सिंह का नाम सबसे ऊपर दिखा।  राजनीति के मैली सोच के कुछ खिलाड़ी लताजी की  उपलब्धि को भी विवादास्पद बना देने पर आमादा हैं।
यहाँ एक बात की  अनदेखी नहीं की जा सकती।  सचिन या दूसरे क्रिकेटरों ने आज क्रिकेट को कहाँ पहुंचा दिया? मैच के दिनों में बच्चों से बूढ़ों तक टीवी से चिपके या स्कोर पूछते देखे जा सकते हैं।  यह कसौटी साहित्य पर लागू करके देखें, शायद कुछ स्थिति साफ़ हो।
हाँ,यह कसौटी अंतिम नहीं है।
रत्नों के इस खनन ने कई गुल खिलाए हैं।         

Saturday, November 16, 2013

सचिन

ईश्वर को याद करने के लिए आपको ढेर सारी आरतियाँ याद करके उन्हें गाना ज़रूरी नहीं है।
केवल "ॐ "कहने से भी आपकी आस्तिकता जग ज़ाहिर हो जाती है।  और यदि ईश्वर प्रार्थनाएं सुनता है तो आपकी यही गुहार प्रार्थना का काम कर देती है।
आइये अब सचिन की  बात करें।
सचिन को "भारत रत्न" मिल गया है।  डॉ. राव को भी।  दोनों के प्रति सम्मान सहित बधाई।
सचिन को जीवन में चुनौतियाँ ही मिलती रही हैं।  यह स्वाभाविक भी है।  बिना चुनौतियों का मुकाबला किये भला कोई सचिन कैसे बन सकता है।  यह तय है कि ज़िंदगी के सारे मुश्किल दाव खेलकर ही सचिन सचिन बने हैं।  इसलिए सचिन के लिए चुनौती कोई अहमियत नहीं रखती।
लेकिन, फिलहाल एक छोटी सी चुनौती अब भी उनके सामने है।
उन्हें "भारत रत्न" देने के लिए २६ जनवरी या उनके जन्मदिन जैसे किसी पावन-पवित्र और शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया गया है, उन्हें यह तमगा हड़बड़ी में माहौल भाँप  कर दिया गया है।  अब उन्हें देखना होगा कि कहीं उनसे इस सम्मान की  कीमत न मांगी जाय।  यदि इस समय वह किसी राजनैतिक पार्टी के पक्ष में मुंह खोलेंगे तो वह अपने करोड़ों प्रशंसकों और क्रिकेट का मान कम ही करेंगे।
यह आशंका केवल इसलिए ज़ाहिर की  जा रही है क्योंकि पिछले दिनों लता मंगेशकर के बटुए में हाथ डाल कर "भारत रत्न" निकालने का प्रयास करते हुए राजनीतिज्ञ देखे जा चुके हैं।
ईश्वर करे कि आशंकाएं निर्मूल साबित हों।
मेरी ये  ९०० वीं पोस्ट सचिन के बल्ले से निकली आँधियों को समर्पित !  

Thursday, November 14, 2013

सुर सागर से मांगी बेसुरी भीख

भारत का सबसे बड़ा सम्मान "भारत रत्न" किसे और क्यों दिया जाता है?
एक तथाकथित नेता की  मानें तो यह उनकी पार्टी की  तारीफ करने के लिए दिया जाता है।  भारत कोकिला "भारत रत्न" लताजी ने उनके दल के बजाय किसी अन्य दल के नेता की  तारीफ कर दी है। लिहाज़ा वे चाहते हैं कि लताजी अब यह सम्मान लौटा दें।
खैर, मैंने इस बात का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि यह मांग गम्भीर है, बल्कि इसलिए किया है कि हमारे मीडिया ने भी तवज्जो देकर यह खबर छाप दी है।  उम्मीद है कि मीडिया शायद उन महाशय को अब यह भी समझाने का प्रयास करेगा कि  "भारत रत्न" लताजी को हज़ारों सुरीले गीतों के माध्यम से संगीत और समाज की वर्षों तक अहर्निश सेवा करने के लिए दिया गया है, उनके मनचाहे दल या लोगों की  तारीफ करने के लिए नहीं।
वैसे भारत में नागरिकों को संविधान के तहत मिले मूल अधिकारों में 'अभिव्यक्ति की  स्वतन्त्रता' का अधिकार भी शामिल है, जिसका अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति अपने मन में आई बात को ज़ाहिर कर सकता है, इस दृष्टि से उन पर कोई रोक-टोक नहीं है- वे चाहें तो  आकाश से सूरज और चन्द्रमा को लौटाने की  मांग भी कर सकते हैं।      

Wednesday, November 13, 2013

क्या इस से डॉक्टर को असुविधा नहीं होगी?

एक बार कुछ युवकों ने एक पार्क में बैठकर शराब पी ली। संयोग से उनमें से एक को काफी नशा हो गया, और उसकी तबीयत भी बिगड़ने लगी। सभी मित्र घबरा गए।  नज़दीक ही एक मंदिर था।  युवक जानते थे, कि मंदिर में ईश्वर होता है जो इंसानों के कष्टों का निवारण किया करता है।  उन्होंने भी और कोई चारा न देख अपने साथी को मंदिर में ईश्वर की  शरण में ले जाने की  ठानी।  वे किसी तरह अपने मित्र को लेकर मंदिर के अहाते में पहुंचे।  मित्र की  आँखें नशे से लाल हो चली थीं, और वह रह-रह कर उल्टियां भी कर रहा था।  सभी युवक उसे सहारा देकर ईश्वर की  मूर्ति के समक्ष ले गए।  जल्दी और घबराहट के चलते युवकों को अपने मित्र के जूते उतारने का भी ध्यान न रहा।
भक्तों की  ऐसी मण्डली को देखकर पुजारी का माथा ठनका।  शराब के नशे में धुत्त युवक को देखते ही उसने क्रोधित होकर सभी को फटकारना शुरू किया और तुरंत बाहर निकल जाने का आदेश दिया।  युवकों के ज़िरह करने पर पुजारी ने कहा, अच्छा, तुम लोग आ सकते हो, मगर इस लड़के को बाहर निकालो, जिसने मंदिर को अपवित्र कर दिया है।
मित्र को अकेला न छोड़ वे सभी बाहर निकल कर मंदिर के मुख्य द्वार पर बैठ गए। कुछ समय बाद न जाने क्या हुआ कि अचानक पुजारी को ज़ोरदार दिल का दौरा पड़ा।  वह तड़पने लगा।
युवकों को उस पर दया आई, वे उठकर दौड़े और आनन-फानन में उसे उठाकर नज़दीक के एक अस्पताल में ले चले। पुजारी कृतज्ञ और विवश भाव से उन्हें देखता रहा।
जब वे अस्पताल के मुख्य द्वार पर पहुंचे तो एक मित्र ने कहा- पुजारी जी को यहीं छोड़ देते हैं, हमलोग भीतर डॉक्टर के पास चलते हैं।  पुजारी ने पूरी ताकत लगा कर कातर दृष्टि से उन्हें देखा और धीमी आवाज़ में कहा- फिर मुझे देखे बिना डॉक्टर मेरा इलाज़ कैसे करेगा?
-लेकिन आपको भीतर लेजाने पर तो डॉक्टर को असुविधा होगी न, आप बीमार हैं, आपका बदन पसीने से लथपथ मैला है, इसमें से गंध भी आ रही होगी।
पुजारी लड़कों का आशय समझ गया।  वह बेहद लज्जित भी हुआ।  उसने पश्चाताप करते हुए, नशे से त्रस्त उस युवक को देखा, जिसकी तबीयत अब तक काफी सुधर चुकी थी।       

Friday, November 8, 2013

अच्छी खराब बात

आइये, एक अच्छी बात में खराबी ढूंढें -
श्री अशोक अनवाणी ने एक किताब लिखी है-"सुहिणी साधना", जिसका विमोचन मुम्बई में हुआ।  किताब "सिंधी"भाषा में है, जिसके विमोचन में साधना की  खास सहेली पुष्पा छुगाणी और कोशी लालवाणी उपस्थित थीं तथा लक्ष्मण दूबे, नामदेव ताराचन्दानी और बंशी खूबचंदानी ने पुस्तक की  तारीफ की। इस अवसर पर अहसान भाई, अंजू मोटवानी और टी मनवानी ने साधना पर फिल्माए गए गीत पेश किये।  पुस्तक में लेखक ने खुलासा किया है कि-
साधना फ़िल्म इंडस्ट्री की  प्रथम फ़ैशन आइकॉन थीं-[साधना-कट बाल(फ़िल्म वक्त ) चूड़ीदार पायजामा और कुरता(फ़िल्म मेरे मेहबूब ) उन्हीं की  देन  हैं]
वे फिल्मों की  फर्स्ट यंग एंग्री वूमेन हैं [ फ़िल्म इंतकाम ]
फिल्मों का पहला पॉपुलर आयटम गीत [ झुमका गिरा रे, फ़िल्म मेरा साया] उन्हीं के नाम है।
महिला अभिनीत सर्वाधिक लोकप्रिय दोहरी भूमिका[ चार फिल्मों में] सबसे पहले उन्होंने की।
रहस्यमयी प्रेम को परदे पर उतारने का उनका फ़न आज तक बेमिसाल है।
वे राजेश खन्ना से भी पहले सुपर [महिला ]स्टार बन चुकी थीं।
इन तमाम अच्छी बातों में यह भी जोड़ लीजिये कि सरकार ने उन पर लिखी किताब के प्रकाशन के लिए आर्थिक अनुदान दिया।  साथ ही कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने, जिनमें बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग लोग शामिल हैं, उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण सम्मान से नवाज़े जाने की  ख्वाहिश ज़ाहिर की।

अच्छा अब आपको इस तमाम प्रकरण में कहीं कोई ख़राब बात भी नज़र आती है?
"हिंदी फिल्मों" की  इस बेमिसाल सुपरस्टार अभिनेत्री के लिए ये सारे प्रयास सिंधी समाज ने किये, हिंदी समाज ने नहीं।
{साधना की  फ़िल्में- लव इन शिमला, प्रेमपत्र, परख, दूल्हा दुल्हन, असली नकली,मनमौजी,एक मुसाफिर एक हसीना, वो कौन थी, वक्त, मेरे मेहबूब, आरज़ू, राजकुमार, हम दोनों, ग़बन, मेरा साया, एक फूल दो माली, इंतकाम, अनीता, बदतमीज़, सच्चाई, छोटे सरकार,महफ़िल, इश्क़ पर ज़ोर नहीं, गीता मेरा नाम, आप आये बहार आई, दिल दौलत और दुनिया, हम सब चोर हैं , अमानत}        

Thursday, November 7, 2013

"यादें" कहते किसे हैं?

यादों की  फितरत  बहुत अजीब है। किसी को यादें उल्लास से भर देती हैं।  किसी को ये दुःख में डुबो भी देती हैं। आखिर यादें हैं क्या?
हमारे मस्तिष्क के स्क्रीन पर, हमारे मन में बैठा ऑपरेटर किसी ऐसी फ़िल्म को, जिसमें हम भी अभिनेता या दर्शक थे, "बैक डेट" से इस तरह चला देता है कि इस दोबारा शुरू हुए बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को हम दोनों हाथों से समेटने लग जाते हैं।  ये बात अलग है कि इस आमदनी में हमें कभी खोटे सिक्के हाथ आते हैं और कभी नकली नोट। फिर हम मन मसोस कर रह जाते हैं, और हमें इस सत्य का अहसास होता है कि एक टिकट से दो बार फ़िल्म नहीं देखी जा सकती।
आइये, यादों की कुछ विशेषताएं और जानें- 
१. उन व्यक्तियों से सम्बंधित यादें हमारे ज़ेहन में ज्यादा अवतरित होती हैं, जिन्हें हम दिल से पसंद करते हैं, अथवा जिनसे हम ज्यादा भयभीत होते हैं।
२. यादें हमारे चेहरे पर ज्यादा उम्रदराज़ होने का भाव लाती हैं, क्योंकि हम "जिए" हुए को दुबारा जीने की छद्म   चालाकी जो करते हैं। एक जीवन में किसी क्षण को दो बार या बार- बार जीने की  सुविधा मुफ्त में थोड़े ही मिलेगी।
३. जब हम किसी को याद करते हैं, तो सृष्टि अपने बूते भर हलचल उस व्यक्ति के इर्द-गिर्द मचाने की  कोशिश ज़रूर करती है, जिसे हम याद कर रहे हैं। 
४. हम यादों के द्वारा उस बात या व्यक्ति के प्रति अपना लगाव बढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं, जिसे हम  याद कर रहे हैं, पर वास्तव में हम  लगाव कम कर रहे होते हैं।  
५.किसी बात या व्यक्ति को बार-बार याद करके हम  अपने दिल के रिकॉर्डिंग सिस्टम को खराब कर लेते हैं।
 ६.गुज़रे समय को फिर खंगालना हमारी अपने प्रति क्रूरता है। इस से बचने की  कोशिश होनी चाहिए।                

Wednesday, November 6, 2013

मित्रता और उम्र

इस बात को लेकर लोगों में अलग-अलग मत प्रचलित हैं कि दोस्ती हमउम्र लोगों से की जाए या किसी भी आयु के लोगों से।  कुछ लोग यह मानते हैं कि यदि मित्र लगभग समान आयु के हों तो दोस्ती ज्यादा सहज, टिकाऊ और तनाव रहित होती है।  लेकिन यह धारणा भी प्रचलित है कि समान आयु के दोस्तों में तुलना, ईर्ष्या, उदासीनता आदि भी ज्यादा दिखाई देती है।
मुझे लगता है कि मित्र बनाते वक्त हम इस बात पर भी ध्यान दें,कि हम किसी को दोस्त क्यों बना रहे हैं? यदि मित्रता के हमारे मकसद ऐसे हैं, तो फिर अपनी उम्र के लोगों पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए, जैसे-
-हमें ज्यादा समय साथ गुज़ारने के लिए साथी चाहिए।
-हमें पारिवारिक सलाहकार के रूप में एक मित्र की  दरकार  है।
-हम लम्बे समय की  दोस्ती करने जा रहे हैं।
-हमारा मित्र हमारे परिवार और अन्य मित्रों से भी मिलता रहने वाला है।
किन्तु यदि हमारी दोस्ती के कारण इन कारणों से इतर हैं, जैसे-
-हमारे किसी खास शौक़ ने हमें दोस्त बनाया है।
-हमारी कोई महत्वाकांक्षा नए दोस्त के सहयोग से पूरी होने जा रही है।
-हमारे बीच अकस्मात सहयोगी कोमल भावनाएं पनप गई हैं।
-हमारी सीमित वैचारिकता किसी वरिष्ठ परामर्शक मित्र का साथ चाहती है।
-हमारी बीतती उम्र किसी ताज़गी की  मोहताज़ है।
तब हमें उम्र की  परवाह किये बिना दोस्त बनाने होंगे।  किन्तु यह ध्यान रखिये कि यह दूसरे प्रकार की मित्रता अपेक्षाकृत एकान्तिक होगी, आपके यह मित्र आपके दायरे में केवल आपके ही मित्र होंगे, आपके अन्य मित्रों व संबंधियों के मित्र नहीं।  इसी तरह आपको भी इनके दायरे के अन्य लोग आसानी से नहीं मिलेंगे। आपको इन मित्रों से अपनी मित्रता का औचित्य समय-समय पर सिद्ध करने के लिए भी सजग रहना होगा।  अन्यथा आपकी मित्रता को संदेह से भी देखा जाने लगेगा।
लेकिन एक बात तय है- इस मित्रता में मिठास भी ज्यादा होगी और संतुष्टि भी।              
  

ताज बड़ा कि सिर ?

आजकल देश बहुत छोटे होते हैं, चाहे उनकी आबादी अरबों में हो।  यदि आपको यकीन न हो तो खेलों के समाचार सुन लीजिये, खेल-खेल में हो जायेगा - दूध का दूध और पानी का पानी।
एक खिलाड़ी हारा नहीं, कि खबर आएगी-"देश धराशाई"
खैर, यह तो मीडिया का अति उत्साह है, जो खिलाड़ी में देश देख लेता है।
आज बात एक दूसरे खेल की  है।  सृष्टि राणा  "मिस एशिया पैसिफिक" बनीं।  यह सम्मान पिछली सदी में दो भारतीय सुंदरियों को मिला था- ज़ीनत अमान और दीया  मिर्ज़ा को।  इस नई सदी में तेरह वर्ष बाद किसी भारतीय बाला ने यह गौरव हासिल किया।
आइये देखें, कि एशिया स्तर की स्पर्धा में देश का परचम लहरा कर आने वाली इस युवती का स्वागत विमान तल पर किस तरह हुआ। किसी ने यह नहीं कहा कि भारत के आगे एशिया चित्त।  बल्कि यह कहा गया- 
"मुम्बई हवाई अड्डे पर सृष्टि राणा का ताज़ ज़प्त" 
यह बहुत ख़ुशी की  बात है कि हमारे अधिकारी नियमों और क़ानून के लिए बेहद सजग हैं।  उन्होंने साफ़ कह दिया कि सृष्टि ताज़ में लगे हीरों की  कस्टम ड्यूटी चुकाएं और ताज़ ले जाएँ।
तो अब हमारे क्रिकेट खिलाड़ी भी यदि कहीं से जीत कर लौटें,और विजेता ट्रॉफ़ी में कोई हीरा-जवाहरात जड़ा हो तो सावधान रहें। वे यह न कहें कि हमारा स्वागत करने मालाएं लेकर कोई नहीं आया। बल्कि यह सुनिश्चित करें कि कस्टम ड्यूटी लेकर कौन आ रहा है।
हाँ, अगर उन्हें कभी इस तरह की  समस्या नहीं आती तो फिर मामला हमारा-आपका नहीं है, यह तो 'महिला आयोगों' का है।   

Monday, November 4, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी- भाग पाँच ]

लड़के ने जेब से जब मोबाइल फ़ोन निकाल कर अपनी नई सी दिखने वाली रंगीन बनियान की  जेब में घुसाया तो दादाजी से रहा न गया, बोले - "कितना देते हैं तुझे?"
लड़का समझ गया कि दादाजी के दिमाग में कोई और कीड़ा कुलबुलाने लगा है, बात का बतंगड़ न बनने देने की गरज़ से लड़का बोला- "घर में इतने लोग हैं, सब कुछ न कुछ देते रहते हैं, अपना ये पुराना मोबाइल तो मालिक की  छोटी बेटी ने कुछ दिन पहले ही दिया था ।"
दादाजी ने अपने जवान पोते के कसरती से दीखते शरीर पर नज़र डाली तो उन्हें अपने घर की शाश्वत गरीबी   याद आ गई।
दादाजी का मन कमरे से निकल कर बाग़ में विचरने लगा।  आखिर उस बाग़ की मिट्टी उनके पसीने से ही तो नम हुई थी। दादाजी को लगता था कि बगीचे के पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे  में उनका इतिहास बिखरा पड़ा है।  अपने दिन-रात, अपनी जवानी-बुढ़ापा, अपने सुख-दुःख, अपने घर-परिवार, सब को मीड़ मसोस कर वह धूल की  तरह इस ज़मीन पर छिटका गए और बदले में ले गए ज़िंदगी गंवाने का सर्टिफिकेट। और आज उनकी ज़िंदगी-भर की  फसल पर भोगी इल्लियां लग गई हैं, उनका इतिहास कोई खा रहा है।
कमरे का दरवाजा भेड़ कर पोते ने अपने सफ़ेद झक्क जूते पहने तो दादाजी भी जाने के लिए कसमसाने लगे।  मालिक लोगों का क्या भरोसा, रात तक न आयें।
लड़का बंगले के मेन गेट तक दादाजी को छोड़ने आया, और बाहर की  सड़क पर दादाजी को एक दूकान में घुसा देख कर वहीँ खड़ा हो गया।  दवा की दूकान थी।लड़के को अचम्भा हुआ- दादाजी बीमार हैं? उन्होंने बताया क्यों नहीं।
लड़का उनसे कुछ पूछ पाता इस से पहले ही वह दूकान से पैसे देकर वापस पलट लिए।  उन्होंने एक छोटा सा पैकेट लड़के को पकड़ाया तो लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया।  दादाजी बोल पड़े- "बेटा, आजकल तरह-तरह की  बीमारियां फ़ैल रही हैं, तू यहाँ परदेस में किसी मुसीबत में मत पड़ जाना।"
लड़के को संकोच से गढ़ा देख दादाजी एक बार फिर चहके- "सोच क्या रहा है, रखले, दादा हूँ तेरा!"[समाप्त]           

Sunday, November 3, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी-भाग चार]

दादाजी  को कमरे की खिड़की से एक बूढ़ा-ठठरा सा सूखा पेड़ दिखा तो वे जैसे उमड़ पड़े  - "देख, देख ये रहा वो पेड़।  इसमें जब पहली बार फल आया, तो उस बरस मुझे होली पर घर जाने का ख्याल छोड़ना पड़ा, मेरे पीछे कोई छोड़ता फलों को? फिर जब मैं घर नहीं जा सका तो गाँव से तेरी दादी ने दो सेर जौ और गुड़ की  डली किसी के हाथों मेरे लिए भिजवाई।"
लड़के को ये सब बेतुका सा लग रहा था। उसके कमरे में पड़े पुराने सोफे पर अखबार में लिपटा वो आधा पिज़्ज़ा अब तक पड़ा था जो सुबह नाश्ते के समय मालकिन ने खुद  उसे पकड़ा दिया था। बूढ़े की आँखों को किसी डबडबाये बजरे की  तरह डोलता देख उसका पोता उसे ये भी नहीं बता सका कि उसे हर दो-चार दिन में डायनिंग टेबल पर बची मछली के साथ जूस का डिब्बा जब-तब मिल जाया करता है।
लेकिन लड़के को अपने स्कूल का वो मास्टर ज़रूर याद आ गया जो कहा करता था कि किसी को रोज़ मछली परोसने से बेहतर है कि उसे मछली पकड़ना सिखाया जाये।  लड़का अपने दादा की  पेशानी की  झुर्रियां देख कर सोचने लगा कि ये सलवटें शायद मछलियां पकड़ते रहने का ही नतीजा हैं।
दादाजी  जब-तब चहक उठते  -"ये तेरी मालकिन जब बहू बन कर इस घर में आई थी तो साल भर तक हम इसे देख ही नहीं सके, हमें चाय पानी तो डालते थे कोठी के बावर्ची, और खुरपी कुदाल निकाल कर देते थे नौकर।  हाँ आते-जाते मोटर के शीशे से घर के बाल-बच्चों की  झलक ज़रूर छटे-छमाहे दिख जाती थी।"
बदले में लड़के को चुप रह जाना पड़ता।  उसके पास कुछ था ही नहीं बोलने को।  उसे कभी कहीं गड्ढा नहीं खोदना पड़ा,बुवाई-रोपाई-गुढ़ाई तो नर्सरी का आदमी सब कर ही जाता था।  दिन भर स्प्रिंक्लर चलते रहते, पानी के फव्वारे छोड़ते। हाँ, छोटी और मझली बेटियां तो हर काम के लिए पैसे ऐसे पकड़ाती हैं, कि देखने की  कौन कहे, हाथ कई बार छू तक जाता है, पर अब ये सब क्या दादाजी को बताने वाली बात है?
पोते की  युगांतरकारी चुप्पी से खीज कर दादा ही फिर बोल पड़ा- "टोकरे के टोकरे उतरते थे पेड़ों से, पूरी बस्ती में बँटते, घर में भी महीनों खाये जाते थे।"
अबकी बार लड़के के तरकश में भी एकाध तीर निकला, बोला-"ये सब नहीं खाते, सब इम्पोर्टेड फल आते हैं मॉल से।  [जारी]            

Saturday, November 2, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी -भाग तीन]

बहुत दिन बाद अपने किसी परिजन को देखने का उत्साह लड़के की  सोच से अब धीरे-धीरे ओझल होने लगा था।  लेकिन उसकी उदासीनता ने दादाजी का उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं किया था।  वह अब भी उसी तरह चहक रहे थे।  मानो उन्होंने वहाँ काम करते हुए अपना पसीना नहीं बहाया हो, बल्कि बदन पर चढ़े उम्र की चांदी के वर्क मिट्टी  को भेंट किये हों।
चलते चलते दोनों पिछवाड़े के उस कमरे में आ गए जो अब नए माली, दादाजी के पोते, अर्थात उस कल के लड़के को रहने के लिए दिया गया था।  दादाजी को थोड़ी हैरानी हुई। -" तुझे कमरा? मैं गर्मी- सर्दी- बरसात उस पेड़ के नीचे बांस के एक झिंगले से खटोले पर सोता था।  कभी-कभी तेज़ बारिश आने पर तो वह भी चौकीदार के साथ सांझा करना पड़ता था।"
कमरे की  दीवार पर एक खूँटी पर दो-तीन ज़ींस टँगी देख कर दादाजी अचम्भे से पोते को देखने लगे-"और कौन है यहाँ तेरे साथ?"
कोई नहीं, मेरे ही कपड़े हैं।  लड़के ने लापरवाही से कहा।  दादाजी ने एक बार झुक कर अपनी घुटनों के ऊपर तक चढ़ी मटमैली झीनी धोती को देखा, पर उनसे रहा नहीं गया- "क्यों रे, ये चुस्त विलायती कपड़े पहन कर तो तू पौधों की निराई-गुड़ाई क्या कर पाता होगा?"
लड़के को मानो उनकी बात ही समझ में नहीं आई।  फिर भी बुदबुदा कर बोला-"वो तो नर्सरी वाले कर के ही जाते हैं।  बीज-पौधे तो वो ही लगाते हैं।"यह सुन कर दादाजी थोड़े अन्यमनस्क हुए।
लड़के ने एक चमकदार शीशे की  बोतल से दादाजी को पानी पिलाया।  दादाजी हैरान हुए-"बेटा, मालिकों की  चीज़ें बिना पूछे नहीं छूनी चाहिए।"
अब हैरान होने की  बारी लड़के की थी। वह उसी चिकने सपाट चेहरे से बोला-"ये सब मालिक ने ही तो दिया है।" [जारी]         

इतिहास भक्षी [कहानी-भाग दो]

मालिक लोग तो अभी बंगले में थे नहीं, पोता अपने दादा को कंधे का सहारा देकर बाग़ में घुमा रहा था। बूढ़ा अपनी पुरानी स्मृतियों की फटी बोरी से टपकती यादों को समेटता बता रहा था कि कहाँ-कहाँ के झाड़-झंखाड़ को हटा कर उसने वटवृक्ष खड़े कर दिए, कैसे मौसमों की मार से लोहा ले-ले कर उसने गुल खिलाये।
पचास साल बहुत होते हैं, आदमी की  तो बिसात क्या, इतने में तो मुल्कों के नाम और दर्शन बदल जाते हैं।  बूढ़े के पास एक-एक बित्ते की  उसके हाथों हुई काया-पलट का पूरा लेखा-जोखा था मगर इस बात का कोई जमा-जोड़ नहीं था कि इस सारी उखाड़-पछाड़ में उसकी अपनी ज़िंदगी का क्या हुआ? उसकी अपनी उम्र की  काया कैसे और कब मिट्टी हो गई।
शायद जवान पोते पर उसकी बात का कोई ख़ास असर न पड़ने का यही कारण रहा हो।लड़का दादा की  बातें सुन-सुन कर शाश्वत खेल के किसी अगले खिलाड़ी की  तरह अपने भविष्य की  चौसर बिछाने में अपने मन को उलझाये था।
वह गांव में कुछ बरस स्कूल भी गया था।  उसे किताब-कापी-मास्टर-बस्ता और घंटी की  धुंधली सी याद भी थी।  वहाँ उसे बताया गया था कि बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, और ज्ञान के सरोवर के किनारे बैठ कर तो कठौती में गंगा भी समा जाती है।  पर उसके अतीत में कुछ नहीं समाया।  समाये तो केवल यार-दोस्तों के संग लगाए गए बीड़ी के कश ,गुटखों की पीक, मास्टर के थप्पड़ और ये स्कूल के अहाते से थपेड़े खिला कर बंगले के बगीचे में घास खोदने को छोड़ गया मटमैला अंधड़।
दादा ने पोते को बताया कि उसे यहाँ पूरे चौदह रूपये महीने के मिला करते थे और वह गांव,दादी,परिवार सब को  भूल कर पूरी मुस्तैदी से तन-मन लगाकर सहरा को नखलिस्तान बनाने में लगा रहता था, अर्थात बगीचे को गुलज़ार कर देने के सपने देखा करता था।[जारी]    
        

इतिहास-भक्षी [ कहानी-भाग एक]

नब्बे साल की बूढ़ी आँखों में चमक आ गई।  लाठी थामे चल रहे हाथों का कंपकपाना कुछ कम हो गया।
… वो उधर , वो  वो भी, वो वाला भी... और वो पूरी की पूरी कतार  … कह कर जब बूढ़ा खिसियानी सी हँसी हँसा तो पोपले मुंह के चौबारे में एकछत्र राज्य करता वह कत्थई-पीला,बेतहाशा नुकीला,कुदालनुमा अकेला दांत फरफरा उठा।  थूक के दो-चार छींटे उड़े।
लड़के ने कान के पास मक्खी उड़ाने की  तरह हाथ पंखे सा झला, फिर सामने देखने लगा।
बूढ़ा उस उन्नीस-बीस साल के लड़के का दादा था।
दूर के किसी गाँव का रहने वाला वह लड़का उस लम्बे-चौड़े महलनुमा बंगले में छह महीने पहले ही माली के काम पर लगा था।  और इसी बंगले में इसी काम पर लड़के का दादा उस से पहले लगभग पचास बरस से काम करता रहा था।  आधी सदी के इस सेवक की  हड्डी-पसलियों और नित बुझती आँखों ने जब उसे जिस्म से रिटायर करने की  धमकी दी, तभी मालिकों ने उसे बगीचे की  मालियत से भी रिटायर कर दिया।
पर आधी सदी की  चाकरी बेकार नहीं गई।  बूढ़ा मिन्नतें कर-कर के अपनी जगह अपने पोते को काम पर रखवा गया था।  इसीलिए आज जब किसी आते-जाते के साथ बूढ़ा अपने पोते की खोज-खबर लेने और अपने पुराने  मालिकों की देहरी पूजने यहाँ आया तो पोते का कन्धा पकड़ उस विराट बगीचे को निहारने भी चला आया, जहाँ अपना तन-मन लेकर वह एड़ी से चोटी तक खर्च हुआ था।
और बस, अपने पोते को अपनी उपलब्धियां दिखाते-बताते वह बुरी तरह उत्तेजित हो गया।  उसने कौन सी जमीन की  कैसे काया पलट की , कौन-कौन से बिरवे रोपे, कौन से फूल से कैसे मालिक-मालकिन का दिल जीता,और कहाँ की  मिट्टी में उसका कितना पसीना दफ़न है, सब वह अपने पोते को बताने में मशगूल हो गया।  पोते का मुंह वैसे का वैसा ही चिकना-सपाट बना रहा।  [जारी]      

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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