Thursday, December 11, 2014

बड़ों की बात-२

दरअसल आज़ादी के बाद जब भारत में "भाषा"की बात आई तो हिंदी के सन्दर्भ में इस तरह सोचा गया कि भारत के हर हिस्से की अपनी कोई भाषा होते हुए भी हिंदी को अपनाने की तैयारी कहाँ, कैसी है?
कुछ हिस्से ऐसे थे जो अपनी भाषाओँ के हिंदी से साम्य के कारण हिंदी को अपनाने में समर्थ थे। यहाँ बात सामर्थ्य की थी, इच्छा की नहीं। इसी कारण उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि को "हिंदी"प्रदेश मान लिया गया, जबकि पंजाब, गुजरात,बंगाल या अन्य दक्षिणी राज्यों को अहिन्दी प्रदेशों के रूप में देखते हुए इनकी क्षेत्रीय भाषाओँ को भी सरकारी कामकाज की भाषा बना दिया गया।
अपेक्षा ये थी, कि "देश की एक भाषा"की महत्ता को स्वीकार करते हुए ये बाकी राज्य भी अब हिंदी अपनाने की ओर बढ़ें। इन्हें समय केवल सुविधा-सद्भाव के कारण दिया गया।
अब जब देश इस इंतज़ार में है कि धीरे-धीरे ये राज्य घोषणा करें कि अब वे पूरी तरह हिंदी अपनाने के लिए तैयार हैं, ऐसे में एक 'हिंदी-भाषी' राज्य से मांग आ रही है कि वहां क्षेत्रीय-भाषा को "सरकारी"मान्यता दी जाये। इस कारण लोग इस मांग को 'अतीत में प्रत्यावर्तन' की तरह देख रहे हैं।  इसे भाषिक केंद्रीकरण की कोशिश के विरुद्ध विकेंद्रीकरण की आवाज़ माना जा रहा है।
इसका फैसला समय और लोगों की इच्छाशक्ति मिलकर करेंगे।         

3 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...