निस्सीम और असीम प्रकृति की भी अपनी सीमायें हैं। जब यह निःशब्द नीरवता में मौन-गीत गा रही होती है,तो दूर किसी कोने में कलियाँ चटकने लगती हैं। उगते अंकुरों की थाप बहती हवा पर पड़ती है।नमी के बुलबुले ओस पर जलतरंग बजाने लगते हैं। गुलाबी धूप आँखें मलती हुई पर्वतों से झाँकती है, और कुदरत चटकती हुई "जीव" बख्श देती है। सब बजने लगता है,सब झूमने लगता है, सब गाने लगता है।
प्रकृति आकाश है, प्रकृति धरती है, प्रकृति हवा है, यही आग भी है और यही पानी भी। और यही जीव की सीमायें भी।
जीव जब तक जीता है, यही पानी और आग उसके खिलौने हैं। इन्हीं से जीता है, इन्हीं से मरता है।
जीव की आँखें पानी की झीलें हैं, जीव का कलेजा आग का दरिया।
जीव में आस की नमी भी है, इसी में हताशा का धुंआ भी।
प्रकृति आकाश है, प्रकृति धरती है, प्रकृति हवा है, यही आग भी है और यही पानी भी। और यही जीव की सीमायें भी।
जीव जब तक जीता है, यही पानी और आग उसके खिलौने हैं। इन्हीं से जीता है, इन्हीं से मरता है।
जीव की आँखें पानी की झीलें हैं, जीव का कलेजा आग का दरिया।
जीव में आस की नमी भी है, इसी में हताशा का धुंआ भी।
जीव की आंखें पानी
ReplyDeleteजीव का कलेजा अग्नि
जीव में आस-नमी
जीव हताश धूम्र भी........बहुत गहरा।
कविता पढ़ने का मज़ा आया इस रचना को पढकर
ReplyDeleteAapki tippani shandaar.
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