Sunday, January 30, 2011

एक खामोश उदास दिन

आज तीस जनवरी है। सुबह एक सायरन बजा था जिसका अर्थ यह था कि अब पूरे देश को दो मिनट का मौन रखना है.विधाता ने सभी प्राणियों में से केवल मनुष्य को ही बहुआयामी वाचालता दी है। सब कुछ बोलने की अद्भुत शक्ति। फिर भी एक सायरन ने चिल्ला-चिल्ला कर यह एलान किया कि कोई न बोले।केवल एक मनुष्य की ही भूल के कारण। वह भूल जो आज से तरेसठ साल पहले हुई। हम कितने नैतिक और संवेदन शील हैं।
लेकिन क्या हमारी यह नैतिक संवेदन शीलता केवल कुछ मुद्दों पर ही है?क्या हमें और ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता जो थोड़ी देर के लिए हमारी ज़बान बंद करदे?चलिए, न रहें हम चुप ,पर क्या हमारे इर्द-गिर्द ऐसा कुछ नहीं दीखता जिस पर हमबार-बार बोलें।
बोलने न बोलने का यह विवाद हम सब की अपनी-अपनी मर्जी पर छोड़ते हैं। जो चाहे बोले जो चाहे चुप रहे। भारत में आज करोड़ों लोग ऐसे हैं,जिनके लिए गांधीजी अब केवल दफ्तरों में सजाने वाली एक तस्वीर हैं। सड़कों और पार्कों में लगाईं जाने वाली मूर्ती हैं। इस जमात को यह नहीं मालूम, कि इस इंसान ने ऐसा क्या किया था कि इस की मौत पर हम चुप रहें। गलती इन लोगों की भी कहाँ हैं। आज के भाग्य विधाता इनकी ज़िन्दगी पर भी तो चुप हैं।

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