Wednesday, December 31, 2014

"2015"

प्रतीक्षा के बीच आखिर एक और नए वर्ष ने कदम रख ही दिया।  शुभकामनायें !
क्या आप जानते हैं कि ये वर्ष बेहद विशेष है, क्योंकि ये आपको कई सौगातें देने वाला है।  आप ही कहिये,इन सौगातों के बारे में आपको धीरे-धीरे समयानुसार बताया जाये या फिर आप सब कुछ अभी तत्काल जान लेना चाहते हैं। चलिए आपके उत्सुकता भरे इंतज़ार की कद्र करते हुए कुछ तो आपको अभी, इसी वक़्त बता दिया जाये।
 सबसे बड़ी खुशखबरी तो आपके लिए यह है कि आपको इस साल वे ढेर सारी पार्टियाँ फिर से मिलने वाली हैं जो आपके मित्रों, परिजनों,सहकर्मियों,पड़ोसियों आदि ने पिछले साल अपने-अपने जन्मदिन पर दी थीं।  विश्वस्त सूत्रों से खबर मिली है कि इस साल वे सभी अपना-अपना जन्मदिन फिर से मनाने वाले हैं।  है न ख़ुशी को चार-चाँद लगाने वाली बात? तो आप भी कंजूसी मत कीजियेगा, अपने जन्मदिन पर भी  सबको बढ़िया सी पार्टी दे डालियेगा।
पहले दिन ही इतनी ख़ुशी? रोज़ ऐसी ही ख़ुशी मिले आपको।  शुभकामनायें !       

Friday, December 26, 2014

कैसा लगता है आपको ये?

मुझे याद है, बचपन में यदि हम कभी अपने से थोड़े से बड़े लड़कों के साथ भी खेलने-घूमने का आग्रह करते थे तो वे टाल देते थे, कहते थे अपने साथ वालों के पास जाओ,वहीँ खेलो।कभी-कभी तो झिड़क भी दिया जाता था- बड़ों के बीच नहीं।
लड़कियों के बीच जाने का तो सवाल ही नहीं।  शर्म नहीं आती लड़कियों की बातें सुनते?
बड़े लोग सतर्क रहते थे, हम उनके बीच उन्हें चाय-पानी देने तो जा सकते थे, पर बैठने-बतियाने नहीं।  फ़ौरन सुनना पड़ता था-बेटा, बच्चों के बीच खेलो।
हमेशा मन में ये शंका सी होती रहती थी कि आखिर ये लोग ऐसी क्या बातें कर रहे हैं, जो हम नहीं सुन सकते। ऐसा लगता था कि सबका अपना-अपना एक छोटा सा गुट है और उसके बाहर जाना अशोभनीय।
अब???
अब तो मज़े हैं।  अस्सी साल की उम्र में कोई किस्सा कहिये और झटपट पंद्रह साल के किशोर से उस पर "लाइक"लीजिये। आप सत्रह साल के नवोदित कवि को किसी प्रवचनकार की मुद्रा में अपनी कविता किसी ऐसे बुजुर्ग को तन्मयता से सुनाते देख सकते हैं, जो पच्चीस किताबें लिख चुका है।
बड़े-छोटे-महिला-बुजुर्ग कोई विभाजन नहीं।
किसी महल में बैठे राजा भोज पर दूर-देहात के गंगू तेली को बेसाख़्ता हँसते देखिये। जंगल में किसी बाज़ के हाथों घायल परिंदे पर आँसू बहाते दूर-देश के बॉक्सिंग चैम्पियन को देखिये।
कैसा लगता है आपको ये? आपके ऑप्शंस हैं-अच्छा, बहुत अच्छा,बहुत ही अच्छा!         

Wednesday, December 24, 2014

सबा से ये कहदो कि कलियाँ बिछाए

वो आ रहा है।  हम खुश हों, कि वो आ रहा है, या हम उदासीन हो जाएँ, वो तो आ रहा है।  क्योंकि वो हमारी नहीं, अपनी चाल से आता है, इसलिए हरबार आता है। इस बार भी आ रहा है।
भारत ने उसका स्वागत अपने दो रत्नों से किया है।  प्रतिक्रिया मिलीजुली है।  वैसे भी रत्न सबको कहाँ खुश कर पाते हैं? पहनने वालों को ख़ुशी देते हैं, तो देखने वालों को जलन!
रत्नों का उजाला सतरंगी प्रतिक्रियाएं जगाता है-
-देर से दिया है, बहुत पहले मिल जाना चाहिए था!
-ये तो इन्होंने दिया है, वो होते तो कभी न देते!
लगता है कि सुनार-जौहरियों की भी जातियां होने लगीं।  ये सुनार होगा तो उसे सोना कहेगा, वो सुनार होगा तो इसे सोना बताएगा। झंडों में लिपट गए दिमाग भी।  अब विवाद से परे कुछ भी नहीं।
हाँ,लेकिन ये निर्विवाद है कि वो आ रहा है। ये जाने वाला चाहे चुरा ले गया हो आँखों की नींदें, पर ये तय है कि  वो फिर लेके दिल का करार आ रहा है। क्रिसमस की हज़ारों शुभकामनायें!"मैरी क्रिसमस"     

    

Tuesday, December 23, 2014

ऐसा क्यों?

कुछ लोग जानना चाहते हैं कि "पहले लेखकीय सपने"की तलाश से मुझे क्या मिलेगा? अर्थात इस बात से मुझे क्या फर्क पड़ेगा कि कोई सपने बदलते-बदलते लेखक बन गया है, या वह पैदा ही लेखक बनने के लिए हुआ था?
बताता हूँ-
जो लोग[लेखक]परिस्थिति, असफलताओं,संयोगों के चलते लेखक बन जाते हैं, उनके लेखन में ईर्ष्या,अवसाद,बदला,पलायन,आक्रामकता,समर्पण आदि के तत्व आ जाते हैं जो उनके पात्रों,विचारों और स्थितियों को ताउम्र प्रभावित करते हैं। जबकि शुद्ध लेखकीय जीवनारम्भ करने वाली कलम सिर्फ वही कहती है जो कहने के लिए जन्मती है।वह आसानी से वाद-विचार-वर्चस्व के शिकंजे में नहीं फँसती।
एक पाठक के रूप में किसी ऐसे रचनाकार की गंध पाना और उसका समग्र पढ़ना या फिर ऐसे मकसद के राही को समय रहते पहचानना और उसकी रचना-प्रक्रिया को बनते देखना,यही मकसद है!       

Sunday, December 21, 2014

कोई है?

अपने देश "भारत" के बारे में एक बात मुझे हमेशा बड़ी उदास करने वाली लगती रही है।यहाँ की शिक्षा प्रणाली में 'कैरियर'चुनने की कोई माकूल प्रविधि नहीं है।  हर बड़े होते बच्चे को अपने सपने और ज़मीनी हकीकत की दो पतवारें लेकर भविष्य बनाने की नाव खेनी पड़ती है। सपने पोसने का कहीं प्रावधान नहीं है।बच्चा थोड़ा सा बड़ा हुआ नहीं कि उसकी पीठ पर माता-पिता, अभिभावकों के सपने लदने लगते हैं।  पैरों में आर्थिक परिस्थिति की बेड़ियां पड़ने लगती हैं।राह में भ्रष्टाचार और पक्षपात के कंटीले झाड़ उगने लगते हैं।यहाँ, किसी भी बड़े से बड़े कलाकार,खिलाड़ी या लेखक की जीवनी में ये पढ़ने को मिल जाता है कि मेरे घरवाले मुझे डॉक्टर ,इंजीनियर, अफसर आदि बनाना चाहते थे किन्तु ऐसा न हो सका।
इस बार नए साल के अपने संकल्प के लिए मैं जो बातें सोच रहा हूँ, उनमें एक यह भी है कि मैं वर्षारम्भ से ही ऐसे लोगों की तलाश करूँगा जो अपने जीवन में "लेखक" बनना चाहते हैं। जाहिर है कि यह जानना सरल नहीं है। फिरभी, यदि आपकी निगाह में कोई ऐसा है, या फिर ऐसे लोगों की तलाश करने का कोई सुगम तरीका है, तो कृपया मुझे बता कर मेरी मदद कीजिये।
जिस तरह हम बाजार से बिना कीड़ा लगी सब्ज़ी छाँटने की कोशिश करते हैं, उसी तरह कोई ऐसा लेखक जिसके दिमाग में ज़िंदगी में कभी भी लेखक बनने के अलावा विकल्प के रूप में और कोई ख़्वाब न आया हो! कोई है?              

Saturday, December 20, 2014

काउंट डाउन शुरू-

साल २०१४ ने संकेत दे दिया है कि वो जा रहा है। कुछ ही दिनों में एक नया वर्ष आ जायेगा।अब ये कयास शुरू हो जायेंगे कि कैसा होगा वो नया साल? शुरू हो जाएगी वो नुक्ताचीनी भी, कि कैसा रहा ये गुज़रता साल?लोग एक-दूसरे को नया साल अच्छा होने की शुभकामनायें देंगे।  वैसे तो सब अच्छा ही होगा, पर जोखिम तो हर बात में होते ही हैं।
एक युवक को प्रेम हो गया। प्रेमिका ने फोन करके शाम को एक पार्क में मिलने बुलाया।युवक का प्रेम पहला था, लिहाज़ा थोड़ा नर्वस था। कैसे, और क्या तैयारी की जाये शाम की, दिन भर ये सोचता रहा।देखे-सुने अनुभवों से इतना तो पता था ही कि प्रेमी-प्रेमिका जब भी मिलते हैं तो कोई न कोई गाना गाते हैं। बस,पसंद का एक गाना डाउन लोड किया और उसके रियाज़ में जुट गया।  गीत था, "शाम रंगीन हुई है तेरे आँचल की तरह"
शाम आई।  प्रेमिका आई।  मिलन की घड़ी आई। तैयारी थी ही,आलाप लेकर गीत शुरू कर दिया।
लेकिन ये क्या???
प्रेमिका ने झट से उसका हाथ झटका, और उठ कर चल दी।  युवक की समझ में कुछ न आया, वह हतप्रभ रह गया।
दरअसल युवक ने ध्यान नहीं दिया था कि प्रेमिका ने आज सफ़ेद दुपट्टा ओढ़ रखा है।
तो नया साल आने में अभी पूरे दस दिन बाकी हैं। आपके पास समय है, यदि कोई तैयारी करनी है तो कर डालिये,ताकि कोई जोखिम न रहे और नए साल में सब अच्छा ही हो!            

Thursday, December 11, 2014

बड़ों की बात-२

दरअसल आज़ादी के बाद जब भारत में "भाषा"की बात आई तो हिंदी के सन्दर्भ में इस तरह सोचा गया कि भारत के हर हिस्से की अपनी कोई भाषा होते हुए भी हिंदी को अपनाने की तैयारी कहाँ, कैसी है?
कुछ हिस्से ऐसे थे जो अपनी भाषाओँ के हिंदी से साम्य के कारण हिंदी को अपनाने में समर्थ थे। यहाँ बात सामर्थ्य की थी, इच्छा की नहीं। इसी कारण उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि को "हिंदी"प्रदेश मान लिया गया, जबकि पंजाब, गुजरात,बंगाल या अन्य दक्षिणी राज्यों को अहिन्दी प्रदेशों के रूप में देखते हुए इनकी क्षेत्रीय भाषाओँ को भी सरकारी कामकाज की भाषा बना दिया गया।
अपेक्षा ये थी, कि "देश की एक भाषा"की महत्ता को स्वीकार करते हुए ये बाकी राज्य भी अब हिंदी अपनाने की ओर बढ़ें। इन्हें समय केवल सुविधा-सद्भाव के कारण दिया गया।
अब जब देश इस इंतज़ार में है कि धीरे-धीरे ये राज्य घोषणा करें कि अब वे पूरी तरह हिंदी अपनाने के लिए तैयार हैं, ऐसे में एक 'हिंदी-भाषी' राज्य से मांग आ रही है कि वहां क्षेत्रीय-भाषा को "सरकारी"मान्यता दी जाये। इस कारण लोग इस मांग को 'अतीत में प्रत्यावर्तन' की तरह देख रहे हैं।  इसे भाषिक केंद्रीकरण की कोशिश के विरुद्ध विकेंद्रीकरण की आवाज़ माना जा रहा है।
इसका फैसला समय और लोगों की इच्छाशक्ति मिलकर करेंगे।         

Wednesday, December 10, 2014

बड़ों की बात

क्या आप जानते हैं कि इस समय देश का सबसे बड़ा राज्य कौन सा है? ठीक पहचाना, राजस्थान !
एक समय था,जब हर जगह यूपी-बिहार की बात ही होती थी। नायिका का झुमका तो बरेली में गिरता ही था, नायक का दिल भी लखनऊ शहर की फ़िरदौस पर ही आता था, हेमाजी तो आगरा से घाघरा मंगवाते-मंगवाते मथुरा की सांसद ही हो गयीं। नायिका कहती थी कि मैं पटने से आई, नार मैं 'पटने' वाली हूँ। यहाँ तक कि कर्णाटक की शिल्पा भी यूपी-बिहार लूटने ही निकलती थीं।
लेकिन जबसे उत्तर प्रदेश ने 'उत्तराखंड' दिया,बिहार ने झारखण्ड दिया और मध्य प्रदेश ने छत्तीसगढ़, तब से नक्शानवीसों की तूलिका ने राजस्थान के नक़्शे पर आँखें टिका दीं।  यह देश का सबसे बड़ा राज्य बन गया। यही राजस्थान इस समय एक विशेष हलचल से गुज़र रहा है। ये हलचल राजस्थान में इन दिनों राजस्थानी भाषा को संविधान में मान्यता दिलाने को लेकर उठ रही है। अभी तो आलम ये है कि सरकारी रिकार्ड में कामकाज की भाषा से लेकर प्रदेश की राजभाषा के रूप में हिंदी ही दर्ज है। लेकिन देश के किसी भी हिस्से में आप राजस्थान के मूल निवासियों को राजस्थानी भाषा ही बोलते सुन सकते हैं चाहे उन्हें वहां रहते हुए कितने भी साल गुज़र गए हों। जो लोग राजस्थानी भाषा को मान्यता देने की मांग करते हैं उनका मुख्य तर्क ये है-
जब पंजाब में पंजाबी, बंगाल में बंगाली,गुजरात में गुजराती या तमिलनाडु में तमिल भाषा को मान्यता है तो राजस्थान में राजस्थानी को क्यों नहीं?
यहाँ इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश,हरियाणा,हिमाचल प्रदेश में भी वहां की भाषाओँ- ब्रज, अवधी,भोजपुरी,गढ़वाली,कुमायूँनी,कौरवी, मैथिली,बुंदेलखंडी आदि के होते हुए राजभाषा के रूप में हिंदी को ही मान्यता दी गयी है।[जारी]                       

Monday, December 8, 2014

"संतोष"

एक शक्तिशाली राजा के दरबार में एक युवक चला आया। युवक आकर्षक, बुद्धिमान और गंभीर था। राजा ने मन ही मन सोचा कि ऐसे प्रतिभाशाली युवकों को तो राजदरबार में ऊंचे ओहदे पर होना चाहिए। राजा ने युवक की परीक्षा लेने की ठानी , ताकि सफल होने पर उसे रुतबेदार आसन दिया जा सके।  राजा ने युवक को अपने राज्य के एक सूबे में भेजते हुए कहा-"नौजवान, अपनी शक्ति का प्रदर्शन करो, जाओ, जितने शेर-चीते-हाथी-ऊँट पकड़ कर ला सकते हो, लाओ।"
युवक राजा का मंतव्य भाँप कर अपने अभियान पर निकल पड़ा।  युवक ने मचान बाँधा, और शेरों को पकड़ने की कोशिश करने लगा। जी तोड़ पसीना बहाने के बाद भी युवक एक भी शेर नहीं पकड़ सका।
उसने हिम्मत न हारी, सोचा,शेर न सही, वह घोड़े-हाथियों का एक बड़ा झुण्ड ही पकड़ कर राजा की सेवा में पेश करे। किन्तु लाख कोशिशों के बाद भी वह ऐसा झुण्ड नहीं पकड़ सका।
अपने पुरुषार्थ को भाग्य भरोसे छोड़ना उसे गवारा न था, उसने सोचा, छोटे-छोटे मृग-हरिण ही हाथ में आ जाएँ तो उनका एक जत्था लेकर राजा के दरबार में पेश करूँ।लेकिन दिनों का फेर ऐसा कि मृग भी सम्मानजनक संख्या में जुटा पाना संभव न हो सका।
लेकिन कहते हैं कि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। आखिर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा ,और युवक को वन में अठखेलियाँ करते चंद खरगोश मिल गए। युवक ने एक पल भी गंवाए बिना उन्हें पिंजरे में किया और उन्हें साथ में लेकर राज-दरबार का रुख किया।
राजा ने युवक को देखते ही उसकी हौसला-अफ़ज़ाई की-"शाबाश, जब ये मिल गए हैं तो कभी इन्हें खाने वाले वनराज भी मिलेंगे।"           
      

Friday, December 5, 2014

जिसका काम उसी को साजे

ये बहुत पुरानी कहावत है।  इसका मतलब है कि जो जिस काम का अभ्यस्त होता है, वही उसे सलीके से कर पाता है।
हमारे देश में भोजन पकाने का काम महिलाओं का माना जाता "था"[है नहीं कह रहा] वे बरसों-बरस घर-घर खाना पकाती और आठ-दस लोगों की गृहस्थी को खिलाती रहीं, तो न किसी का ध्यान गया, और न ही किसी ने संजीदगी से उनका नोटिस ही लिया।  लोग मान बैठे कि ये तो उनका काम ही है, करेंगी।
इसी तरह गाली देना पुरुषों का काम रहा।  पुरुष चाहे पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, धड़ल्ले से गालियाँ देते रहे।  कभी किसी ने पलट कर किसी से ये नहीं पूछा कि  भाई, ये क्या कह रहे हो? लोग माने बैठे रहे कि जैसे नल से पानी निकले, चूल्हे से आग और साबुन से झाग, वैसे ही पुरुषों के मुंह से गालियाँ निकलती ही हैं।
लेकिन फिर ज़माना बदल गया।  जब महिलाओं की जगह पुरुषों को भी रोटी बनानी पड़ी, तो रसोइयां तीन स्टार,चार स्टार,पांच स्टार होने लगीं। आखिर मर्द धुँआते चौके में मिट्टी के चूल्हे पर थोड़े ही रोटी थोपते?
ठीक वैसे ही जब महिलाओं ने गाली देना [बकना कहने में ज़बान लड़खड़ाती है] शुरू किया, तो आसमान टूट पड़ा।  संसद रुक गयी।  प्रलय आ गयी, भला अब देश-दुनिया कैसे चले ? एक औरत ने गाली दे दी!और एक ने ही नहीं, दो-दो ने! एक देश की मंत्री तो दूसरी राज्य की मुख्यमंत्री!     

Thursday, December 4, 2014

उसने हमें इतना दिया है, इतना दिया है कि कभी-कभी

प्रायः जब हम बिना कोई नाम लिए बात शुरू करते हैं तो यह माना जाता है कि  हम ईश्वर की बात ही कर रहे हैं।  पर आपको बता दूँ कि फ़िलहाल मैं ईश्वर की नहीं, "तकनीक" की बात कर रहा हूँ। प्रौद्यौगिकी की।
जो न दौड़ सके,वह दौड़ ले।  जो न चल सके, वह चल ले। जो न देख सके,वह देख ले।जो गा न सके, वो गा ले।जो नाच न सके, वो नाच ले। जिसके पास दिल न हो, वह दिल ले ले, जिसके पास दिमाग न हो, वह दिमाग।
सच में, इस दौर में तो घाटे में वो है, जिसके पास सब हो! अर्थात यदि आप समझते हैं कि आप में कोई कमी नहीं, [वैसे तो ऐसा समझना अपने आप में एक कमी है] तो तकनीक के कमाल आपको असंतुष्ट और बेचैन रखेंगे।
ये बेचैनी और असंतुष्टि अब यदा-कदा दिखाई देने लगे हैं। लोग [सब नहीं, चंद लोग]चाहने लगे हैं कि बीते दिन, बीते मूल्य, बीती बातें कभी वापस भी आएं , जब आप नीम के न झूमने को हवा का न चलना कहें।  [अभी तो पंखे या एसी के बंद होने को कहते हैं, वह भी नहीं हो पाता क्योंकि बिजली की आपूर्ति न होने के विकल्प भी मौजूद हैं]
आपको याद होगा कुछ साल पहले जब क्रिकेट मैच हुआ करते थे, तो प्रायः एक दफ्तर में एक-दो ही 'ट्रांजिस्टर' हुआ करते थे, और नतीजा ये होता था कि  कुछ लोगों को दूसरों से स्कोर पूछने के लिए विवश होकर उनसे बोलना पड़ जाता था। अब तो भीड़-भरा ट्रेन का डिब्बा हो, या किसी मॉल में लगे सेल मेले का हुजूम, आपको ऊपर देखना ही नहीं पड़ता, क्योंकि हर हाथ में स्मार्ट फोन होता ही है।शायद इसीलिए कभी-कभी लोगों के मन [मस्तिष्क में नहीं] में ख्याल आता है.…                   

Tuesday, December 2, 2014

तोता,कुत्ता, छोटू ,पिताजी और वक़्त

पिछले दिनों जबलपुर जाना हुआ। इस शहर में लगभग बीस साल पहले मैं कुछ समय के लिए रह चुका हूँ।मुझे इस शहर की कुछ बातें, शुरू से बहुत अच्छी लगती रही हैं। नर्मदा के घाट और उनके किनारे की कच्ची हलचल भी। वर्षों पहले वहां जाते ही कुछ समय के लिए मैं एक प्रतिष्ठित परिवार के जिस मकान में रहा, वह मकान भी मेरे लिए एक अनजाने आकर्षण का केंद्र रहा। उस मकान में रह रहे संयुक्त परिवार और उस भवन ने मुझे अक्सर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास "टेढ़े मेढ़े रास्ते"की याद दिलाई। मुझे हमेशा लगता था कि मेरे अवचेतन में पैठा यह आवास भवन मेरी किसी रचना में चुपके से उतरेगा।
इक्कीस साल बाद जब मैं उस जगह गया, तो मैंने अहाते में एक बड़े शानदार कुत्ते के साथ टहलते हुए एक बच्चे को पाया। बच्चे ने मुझे देखते ही अभिवादन कर के कुत्ते को जंजीर से बाँधा और गेट खोला।मुख्य द्वार के पास एक बड़ा सा तोता पिंजरे में था, जिसने कुछ हलचल-भरी आवाज़ें निकालीं। बच्चे ने ड्रॉइंग रूम में मुझे बैठा कर अपने पिता को बुलाया, जिनके साथ मैंने चाय पी और नाश्ता किया।
इक्कीस साल पहले भी जब मैं उस घर में पहली बार गया था, तो लगभग यही नज़ारा मैंने देखा था। बस केवल इतना सा अंतर था कि 'तब' के पिता की तस्वीर अब माला सहित दीवार पर टंगी थी। तोता उसी पुराने तोते की नस्ल का, मगर नई उम्र का था। कुत्ता उसी रंग-रूप का,पर जवान था।बच्चा नया, और मेरे लिए अनजाना था और पिता में इक्कीस साल पहले के छोटू की हलकी झलक विद्यमान थी।
मेरे पास आइना नहीं था, इसलिए अपने चेहरे की उम्र मेरे सामने नहीं आ पायी, लेकिन गुज़रे "इक्कीस साल" पारदर्शी होकर मेरे सामने खड़े थे।                    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...