Saturday, August 31, 2013

फिर एक भूल

ये किसी फिल्म का शीर्षक नहीं है. मैं सचमुच एक भूल का ही ज़िक्र कर रहा हूँ. किसी और की नहीं, खुद अपनी भूल.
मैं पिछले काफी दिनों से कुछ नहीं लिख सका. जब भी अपनी नई पोस्ट के बारे में सोचता तो यही लगता था कि  कुछ है ही नहीं लिखने को, तो क्या लिखूं? लेकिन फिर बैठे-बैठे लगा कि  यह मेरी भूल है. राजेंद्र यादव ने तो न लिखने के कारण बताने के लिए सात सौ पेज की किताब लिख दी थी.ऐसा कभी हो ही  नहीं सकता कि लिखने का कोई कारण न हो.
पहला कारण तो यही है, मुझे इसलिए लिखना चाहिए था कि अब तक मैंने जो भी लिखा है, वह ज़रूरी नहीं कि किसी कारण से ही हो. मैंने अकारण भी बहुत सा लिख दिया है.तो अब मेरे पास कोई ऐसा कारण  नहीं है कि अब न लिखूं।
दूसरे, मुझे इसलिए भी लिखना चाहिए था कि  बहुत से कारण हैं लिखने के.गिनाऊँ?
१. मैं लिख कर ही तो बता सकता था कि  मैं क्यों नहीं लिख पा रहा?
२. यदि मैं नहीं लिखता तो मुझे पढ़ना पड़ता। क्योंकि लिखे-पढ़े बिना बुद्धिजीवी बने रहना बड़ा मुश्किल है. और बुद्धिजीवी न होना तो और भी मुश्किल है. क्योंकि बुद्धिजीवी न होने पर तो हर बात पर टिप्पणी करनी पड़ती है. पढ़ने का मतलब है बुद्धिजीविता को और भी मुश्किल करना, क्योंकि आदमी दूसरों की सुनने में फ़िज़ूल वक्त गवाने से तो अपनी ही कुछ कहने का आनंद क्यों न ले?
अब मुझे लग रहा है कि कहीं मैं लिख कर तो कोई भूल नहीं कर रहा!        

Sunday, August 11, 2013

यकीन कीजिये इस बात पर

वैसे तिथि के अनुसार श्रावण शुक्ल सप्तमी को आने के कारण इस वर्ष तुलसी जयंती १३ अगस्त को है, पर तुलसी मानस संस्थान, जयपुर ने इसे ९ अगस्त को ही मनाया था. उन्होंने इस कार्यक्रम में मुझे भी निमंत्रित किया था. संयोग से निमंत्रण के साथ एक पत्र भी भेजा कि वे इस अवसर पर मुझे सम्मानित भी करेंगे।
मेरा कई बार का यह सिद्ध अनुभव है, कि यदि अपनी प्रशंसा में कोई भी बात अपने मित्रों को पहले बतादूँ तो वह किसी न किसी वज़ह से पूरी नहीं हो पाती है. शायद इसे ही दुनियादारी में लोग "नज़र" लग जाना कहते हैं. मैं किसी अंधविश्वास में यकीन नहीं करता पर मन ही मन सोचता रहा कि मैं यह बात किसी को नहीं बताउंगा कि  मेरा सम्मान हो रहा है.
संस्थान से आये पत्र में लिखा था कि  अपने इष्ट-मित्रों को भी अपने साथ कार्यक्रम में लेकर आयें। मैं दुविधा में था कि  बिना बताये मित्रों को कैसे साथ ले चलूँ। आखिर देर रात जब मुझे पूरा यकीन हो गया कि  अब कोई बाधा नहीं आएगी, और कार्यक्रम हो ही जायेगा, मैंने अपने कुछ मित्रों को मोबाइल के ज़रिये एस एम एस करके कार्यक्रम की सूचना देदी और साथ में चलने का अनुरोध भी कर दिया।
कार्यक्रम में कुछ ही समय था कि  मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. एक-एक करके मित्रों के फ़ोन आने लगे, कि  वे नहीं आ सकेंगे। कुछ-एक ने तो आशंका भी ज़ाहिर कर दी कि  अब कार्यक्रम भी शायद ही हो. मैंने मन ही मन सोचा कि  आज यदि मैं न जा सका तो मेरे मन में हमेशा के लिए अन्धविश्वास बनने से कोई नहीं रोक सकेगा कि  यदि अपना कोई राज मित्रों पर पहले ज़ाहिर करदो तो सफलता संदिग्ध हो जाती है. मैंने घनघोर बारिश में भी अकेले ही जाने का पक्का इरादा कर लिया।
भोजन किया और निकलने के लिए तैयार होने लगा. जिनकी मानसिकता सकारात्मक और वैज्ञानिक हो वे कृपया सोच लें कि  भोजन में ही ऐसा कुछ रहा होगा जिसने "रिएक्शन"किया और मेरा ऊपरी होंठ इस तरह सूज गया कि  आईने में अपनी शक्ल देख कर खुद मुझे भी  हंसी आने लगी. मैंने तो बहरहाल यही सोचा कि  कोई काम जब तक पूरा हो न जाए, मित्रों को सूचना नहीं दूंगा। 

Saturday, August 10, 2013

क्या उसने आपको भी सुनाया था ये किस्सा?

आज मुझे किसी ने एक किस्सा सुनाया। उनके घर की छत पर एक छोटा कमरा बना हुआ था. वे उस कमरे की भी छत पर टहल रहे थे.सहसा उन्होंने देखा कि  घर की दीवार के करीब से एक छोटी सी रौशनी [टॉर्च की भांति] गुजरती हुई ऊपर आकाश में चली गई. इसी के साथ ही हलकी सी ऐसी आवाज़ भी हुई जैसे किसी बच्चे ने कोई पटाखा चलाया हो. उन्होंने नीचे की ओर झांक कर देखने की कोशिश की. तभी नीचे से उनके भाई की आवाज़ आई- भैया, जल्दी नीचे आओ, दादीजी गुजर गईं.
उनकी दादी कई दिन से बीमार थीं और नीचे भीतर कमरे में लेटी हुईं थीं.
हो सकता है कि  सचमुच किसी बच्चे ने पटाखा ही चलाया हो और उसकी आवाज़ से दादी के प्राण निकल गए हों, साथ ही किसी ने सचमुच टॉर्च डाल कर छत पर देखा हो कि  भैया कहाँ हैं.
पर क्या ऐसा भी हो सकता है कि  न किसी ने पटाखा चलाया हो, और न किसी ने टॉर्च ही डाली हो?  

Monday, August 5, 2013

पेड़,पहाड़,आसमान,इन्द्रधनुष, पानी और अमेरिका

पानी के किनारे बादलों में छाये इन्द्रधनुष की एक फोटो आज अख़बारों में देखने को मिली। बेहद खूबसूरत पेड़ों के बीच पानी में इन्द्रधनुष का अक्स कुछ इस तरह पड़ा कि  सतरंगी गोला ही मानो धरती के गले का हार बन गया.
मेरी एक जिज्ञासा है. पेड़, पहाड़,आसमान,इन्द्रधनुष और पानी, ये सब तो नैसर्गिक हैं. इन्हें प्रकृति बनाती है. कभी भौतिक क्रियाओं से तो कभी रासायनिक क्रियाओं से.
तो फिर अमेरिका में खींचा गया वह फोटो इतना नयनाभिराम क्यों लग रहा था?उसे तो किसी भी जगह खींचे जाने पर उतना ही आकर्षक दिखना चाहिए था. शायद इसका इनमें से कोई कारण हो-
अमेरिका में प्रदूषण कम हो.
वहां की मिट्टी ज्यादा उर्वरा और वायु ज्यादा निर्मल हो.
जिस कैमरे से वह तस्वीर खींची गई हो वह तकनीकी रूप से बहुत भव्य हो.
जिस व्यक्ति ने फोटो खींचा हो, वह छायांकन का विशेषज्ञ हो.
मेरी आँखों पर अमेरिका की पट्टी पड़ी हो. 

Sunday, August 4, 2013

शब्द भी सहला देते हैं अतीत

अच्छा लगता है अपने अतीत से कभी-कभी खेलना। आज ऐसा ही हुआ.
लगभग बाइस साल पहले की बात है, मुझे एक बार महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर "चिपलूण"जाने का अवसर मिला। मैं पहले से कोई बुकिंग करवाए बिना अचानक गया था इसलिए जब ठहरने के लिए मैं कोई अच्छा सा होटल ढूँढने लगा तो मुझे एक होटल थोड़ा दूरी पर एकांत में मिला। जब मैं रिसेप्शन से औपचारिकता पूरी करके अपने कमरे में गया तो मैंने नोट किया कि  होटल में पूरा सन्नाटा है और दूर-दूर तक कोई नहीं है.
थोड़ी ही देर में दरवाज़े पर दस्तक हुई और एक तेरह-चौदह साल का लड़का आकर खड़ा हो गया. मैंने उससे आने का प्रयोजन पूछा तो वह बोला- "मैं आपसे बात करने आ गया, वैसे मुझे जाना है क्योंकि मेरी ड्यूटी है" मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. मैं सोचने लगा कि  जब इसे ड्यूटी पर जाना है तो क्यों आया है,कोई काम होगा। मेरे पूछने पर वह बोला-"यहाँ सब लोग मराठी भाषा बोलते हैं, मैं मराठी नहीं जानता, इसलिए दिन भर चुपचाप रहता हूँ, आपको काउंटर पर हिंदी बोलते सुना इसलिए थोड़ी बात करने आ गया, वैसे मैं होटल में सफाई का काम करता हूँ."
मैंने दिन में कई बार उससे खूब बातें कीं.
आज मेरे ब्लॉग को चिपलूण में किसी ने खोला है.मैं जानता हूँ कि  बाइस साल पहले मिला वह अनपढ़ लड़का "ऑनलाइन" नहीं होगा पर वह मुझे याद आ गया,उसे शब्द शक्ति ने ही मुझसे जोड़ा था.        

Saturday, August 3, 2013

छोटे राज्य

भारत का एक और राज्य विभाजन के लिए तैयार है. "तैयार" कहने का अर्थ यह नहीं है कि  सब कुछ सबके मन-माफिक हो रहा है. वैसे इतिहास गवाह है कि  कोई राज्य किसी शासक की महत्वाकांक्षा के लिए ही बड़ा बनता है. प्रतापी राजा-महाराजा निरंतर युद्धरत रह कर अपने राज्य को बढ़ाते रहे हैं. यह कभी किसी ने नहीं सुना कि  दो राज्य आपस में प्रेम से गले मिल कर एक हो गए हों. अलबत्ता यह ज़रूर होता रहा कि  बाहर या भीतर से जोर आजमा कर किसी ने राज्य को तोड़ दिया.
कहा यह भी जाता है कि  छोटे राज्यों से विकास ज्यादा होता है.  बड़े राज्यों में केन्द्रीकरण हो जाता है, और सारी शक्ति सुदूर राजधानियों के चक्कर काटने में ही खर्च होती है.अब जनसँख्या का घनत्व भी तो इतना हो गया है कि  छोटे राज्य ही "मैनेजेबल" हैं. आज़ादी के बाद से अब तक जब जनसँख्या, महंगाई, बेकारी सब बढ़ी हो तो राज्यों की संख्या क्यों पीछे रहे?जब जनसँख्या चौगुनी हो गई हो तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री, राजधानियां भी तो इसी अनुपात में बढ़ें।  लेकिन ऐसे में एक चुटकुला भी याद आ रहा है.
"पति ने जब नई-नवेली पत्नी के हाथ का बना खाना खाया तो तेज़ मिर्च के कारण उसकी आँखों में आंसू आ गए. पत्नी के पूछने पर पति ने दुल्हन का मन रखने के लिए कहा, कि  ये तो ख़ुशी के आंसू हैं, खाना तो बहुत अच्छा है.उत्साहित होकर पत्नी ने कहा-और दूं? तब पति बोला - नहीं-नहीं इससे ज्यादा ख़ुशी बर्दाश्त नहीं कर पाउँगा।"
तो छोटे राज्यों में होने वाले तेज़ विकास का मज़ा लूटने कल बुंदेलखंड, हरितखंड,मरुप्रदेश, मिथिलांचल, बोडोलैंड आदि-आदि न आ खड़े हों.    
    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...