कभी-कभी बच्चे जब अपने माँ-बाप से दूर होते हैं तो दूसरे के माँ-बाप में अपने माँ-बाप को देख लेते हैं। शायद नीलाम्बर की याद में भी धरा की माँ के लिए ये सब करते हुए अपनी माँ रही होगी।
नीलाम्बर ने अगर थोड़ा बहुत किया तो क्या अहसान किया किसी पर?
भक्तन-माँ की देह पर ताप चढ़ा,वैद्यजी ने बूटियां घोटीं,नीलाम्बर ने पैसे खर्चे, कसक उठी धरा के कलेजे में....ऐसे ही मिल-जल कर तो चलती है दुनिया।
तीसरे दिन भक्तन का बुखार बिलकुल उतर गया। चौथे दिन तो सुबह-सुबह मंदिर सँभालने खुद गयी।
उस दिन सवेरे के समय धरा रसोई में दाल चढ़ा कर लहसुन छीलने के लिए बैठी ही थी कि भक्तन ने आवाज़ देकर धरा को बुलाया।
-"क्या है माँ? अभी आती हूँ पांच मिनट में।"धरा ने ऊंची आवाज़ में कहा और हाथ ज़रा जल्दी-जल्दी चलाने लगी। दो-चार मिनट के बाद धरा कमरे में आई तो देखती ही रह गयी।
भक्तन पुराना वाला बड़ा सा बक्सा सामने खोले बैठी थी। चारों तरफ फैला-बिखरा सामान पड़ा था और बीच में माँ।
-"ये आज क्या सूझी तुम्हें? क्या निकालना है इसमें से?" धरा ने आश्चर्य से कहा।
भक्तन न जाने किस सोच में थी, कोई जवाब नहीं दिया। उसी तरह बैठी सामान को उलट-पलट करती रही।
धरा झल्ला गयी। काम छोड़ कर आई थी। रसोई में स्टोव को अलग धीमा करके आई थी।
ज़रा और ज़ोर से चिल्लाई-"क्या है माँ? क्यों आवाज़ लगा रही थीं ? खीज कर धरा ने माँ को याद दिलाया कि तुमने आवाज़ लगा कर मुझे बुलाया है, अपने आप नहीं आई मैं।
भक्तन ने धरा की ओर देखा। फिर इशारे से उसे पास बुलाया। इस रहस्यमयी रीति से धरा का विस्मय और बढ़ गया। वह किसी जिज्ञासा के वशीभूत धीरे-धीरे बढ़ती माँ के पास खिसक आई।
माँ के हाथ में पॉलीथिन की एक थैली में लिपटी हुई कोई चीज़ थी। धरा आश्चर्य से उसे देखने लगी।
भक्तन ने थैली खोली। उसमें से मुड़ा-तुड़ा एक कागज़ निकला। भक्तन कागज़ से निकाल कर देखने लगी। फिर धरा से बोली-"तू कह रही थी न कि ये चूड़ियाँ तेरे ढीली हैं,"
पतले कागज़ की गुलाबी सी पुड़िया खोल कर भक्तन ने दो कंगन अँगुलियों में डाल कर घुमाए।
-"पता नहीं, पहले तो ढीली ही थीं।" धरा ने कहा।
-" तो अब ? ले, ज़रा हाथों में डाल कर तो देख।" माँ बोली।
धरा एकदम से घुटनों के बल बैठ गयी और माँ के हाथों से लेकर सोने के कंगन अपनी कलाइयों में डाल कर देखने लगी।
-"हां, ज़्यादा ढीले तो नहीं हैं, पर ज़रा बड़े हैं। धरा ने माँ को आश्वस्त किया। [ जारी ]
नीलाम्बर ने अगर थोड़ा बहुत किया तो क्या अहसान किया किसी पर?
भक्तन-माँ की देह पर ताप चढ़ा,वैद्यजी ने बूटियां घोटीं,नीलाम्बर ने पैसे खर्चे, कसक उठी धरा के कलेजे में....ऐसे ही मिल-जल कर तो चलती है दुनिया।
तीसरे दिन भक्तन का बुखार बिलकुल उतर गया। चौथे दिन तो सुबह-सुबह मंदिर सँभालने खुद गयी।
उस दिन सवेरे के समय धरा रसोई में दाल चढ़ा कर लहसुन छीलने के लिए बैठी ही थी कि भक्तन ने आवाज़ देकर धरा को बुलाया।
-"क्या है माँ? अभी आती हूँ पांच मिनट में।"धरा ने ऊंची आवाज़ में कहा और हाथ ज़रा जल्दी-जल्दी चलाने लगी। दो-चार मिनट के बाद धरा कमरे में आई तो देखती ही रह गयी।
भक्तन पुराना वाला बड़ा सा बक्सा सामने खोले बैठी थी। चारों तरफ फैला-बिखरा सामान पड़ा था और बीच में माँ।
-"ये आज क्या सूझी तुम्हें? क्या निकालना है इसमें से?" धरा ने आश्चर्य से कहा।
भक्तन न जाने किस सोच में थी, कोई जवाब नहीं दिया। उसी तरह बैठी सामान को उलट-पलट करती रही।
धरा झल्ला गयी। काम छोड़ कर आई थी। रसोई में स्टोव को अलग धीमा करके आई थी।
ज़रा और ज़ोर से चिल्लाई-"क्या है माँ? क्यों आवाज़ लगा रही थीं ? खीज कर धरा ने माँ को याद दिलाया कि तुमने आवाज़ लगा कर मुझे बुलाया है, अपने आप नहीं आई मैं।
भक्तन ने धरा की ओर देखा। फिर इशारे से उसे पास बुलाया। इस रहस्यमयी रीति से धरा का विस्मय और बढ़ गया। वह किसी जिज्ञासा के वशीभूत धीरे-धीरे बढ़ती माँ के पास खिसक आई।
माँ के हाथ में पॉलीथिन की एक थैली में लिपटी हुई कोई चीज़ थी। धरा आश्चर्य से उसे देखने लगी।
भक्तन ने थैली खोली। उसमें से मुड़ा-तुड़ा एक कागज़ निकला। भक्तन कागज़ से निकाल कर देखने लगी। फिर धरा से बोली-"तू कह रही थी न कि ये चूड़ियाँ तेरे ढीली हैं,"
पतले कागज़ की गुलाबी सी पुड़िया खोल कर भक्तन ने दो कंगन अँगुलियों में डाल कर घुमाए।
-"पता नहीं, पहले तो ढीली ही थीं।" धरा ने कहा।
-" तो अब ? ले, ज़रा हाथों में डाल कर तो देख।" माँ बोली।
धरा एकदम से घुटनों के बल बैठ गयी और माँ के हाथों से लेकर सोने के कंगन अपनी कलाइयों में डाल कर देखने लगी।
-"हां, ज़्यादा ढीले तो नहीं हैं, पर ज़रा बड़े हैं। धरा ने माँ को आश्वस्त किया। [ जारी ]
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