घर मानो सीधा सा हो गया।
वो कहते हैं न, कि यदि किसी घर में औरत न हो, तो घर घर न होकर भूतों का सा डेरा लगता है। ठीक वैसे ही,अगर किसी घर में कोई मर्द-बच्चा न हो, तब भी घर घर न होकर बिना बांस का सा तम्बू लगता है, जिसे हवाएं कभी भी झिंझोड़ दें, कहीं भी उड़ा ले जाएँ। तिरछा सा ही रहता है डेरा।
और इस तरह भक्तन का घर भी सध गया।
अब जब सवेरा होता तो घर के सारे कोण खनखनाते। पूजा के आले में भक्तन की जलाई हुई अगरबत्तियों की सुवास महकती,छत पर साग-भाजी काटती धरा की कायनात पर चहकते हुए पखेरू मंडराते,तो नीचे दालान में बाल्टी भर पानी से नहाते नीलाम्बर के बदन से ठन्डे पानी के छींटे छलकते।
नीलाम्बर बहुत संकोची स्वभाव का था, किसी काम के लिए ऊपर न आता। नहा कर अपने कपड़े तक नीचे ही दीवार के एक टूटे से हिस्से पर सूखने के लिए फैला देता।
कोठरी में पहुँच कर तन पर कमीज और पैरों में पेंट डालता,घने गीले बालों को झटकारते हुए सहलाता और उल्टा-सीधा कुछ भी पेट में डाल कर काम पर निकल जाता।
भक्तन का ध्यान तो गया तब,जब एक दिन दीवार से उड़ कर नीलाम्बर की चड्डी दीवार के सहारे मिट्टी में जा गिरी। देखा धरा ने भी,पर वह हलके से बस मुस्करा कर रह गयी। ये वही जगह थी जहाँ कभी एक दिन धरा ने नीलाम्बर को ऊपर बुलाने की ग़रज़ से जानबूझ कर अपनी चोली नीचे गिरा दी थी।
जैसे नीलाम्बर उस दिन झिझकता सा चोली हाथ में पकड़े ऊपर आया था, काश, आज धरा भी उसकी चड्डी हाथ में लेकर कोठरी की देहरी पर जा पाती !
पर वो था ही नहीं घर में।
शाम को नीलाम्बर आया तो भक्तन ने आवाज़ देकर उसे ऊपर बुला लिया और बोली-
-"बेटा, छत पर कपड़े सुखाने की रस्सी बंधी है,तू नीचे दीवार पर क्यों उन्हें छोड़ जाता है? इधर-उधर उड़ते फिरते हैं, कोई गाय-वाय चबा जाएगी, यहाँ सुखा जाया कर।"
नीलाम्बर कृतज्ञता से सर झुकाए रसोई की ओर देखने लगा जहाँ से धरा तीनों के लिए चाय के प्याले लिए आ रही थी।
नीलाम्बर को लकड़ी की कुर्सी पर बैठना पड़ा।
तीनों चुपचाप बैठे चाय पीते रहे।
शाम का सूरज सिंदूरी होने लगा था, मानो विधाता-दर्ज़ी धरती के वाशिंदों का भविष्य सिल कर अब दुकान की ढिबरी बुझाने को हो।
[ जारी ]
वो कहते हैं न, कि यदि किसी घर में औरत न हो, तो घर घर न होकर भूतों का सा डेरा लगता है। ठीक वैसे ही,अगर किसी घर में कोई मर्द-बच्चा न हो, तब भी घर घर न होकर बिना बांस का सा तम्बू लगता है, जिसे हवाएं कभी भी झिंझोड़ दें, कहीं भी उड़ा ले जाएँ। तिरछा सा ही रहता है डेरा।
और इस तरह भक्तन का घर भी सध गया।
अब जब सवेरा होता तो घर के सारे कोण खनखनाते। पूजा के आले में भक्तन की जलाई हुई अगरबत्तियों की सुवास महकती,छत पर साग-भाजी काटती धरा की कायनात पर चहकते हुए पखेरू मंडराते,तो नीचे दालान में बाल्टी भर पानी से नहाते नीलाम्बर के बदन से ठन्डे पानी के छींटे छलकते।
नीलाम्बर बहुत संकोची स्वभाव का था, किसी काम के लिए ऊपर न आता। नहा कर अपने कपड़े तक नीचे ही दीवार के एक टूटे से हिस्से पर सूखने के लिए फैला देता।
कोठरी में पहुँच कर तन पर कमीज और पैरों में पेंट डालता,घने गीले बालों को झटकारते हुए सहलाता और उल्टा-सीधा कुछ भी पेट में डाल कर काम पर निकल जाता।
भक्तन का ध्यान तो गया तब,जब एक दिन दीवार से उड़ कर नीलाम्बर की चड्डी दीवार के सहारे मिट्टी में जा गिरी। देखा धरा ने भी,पर वह हलके से बस मुस्करा कर रह गयी। ये वही जगह थी जहाँ कभी एक दिन धरा ने नीलाम्बर को ऊपर बुलाने की ग़रज़ से जानबूझ कर अपनी चोली नीचे गिरा दी थी।
जैसे नीलाम्बर उस दिन झिझकता सा चोली हाथ में पकड़े ऊपर आया था, काश, आज धरा भी उसकी चड्डी हाथ में लेकर कोठरी की देहरी पर जा पाती !
पर वो था ही नहीं घर में।
शाम को नीलाम्बर आया तो भक्तन ने आवाज़ देकर उसे ऊपर बुला लिया और बोली-
-"बेटा, छत पर कपड़े सुखाने की रस्सी बंधी है,तू नीचे दीवार पर क्यों उन्हें छोड़ जाता है? इधर-उधर उड़ते फिरते हैं, कोई गाय-वाय चबा जाएगी, यहाँ सुखा जाया कर।"
नीलाम्बर कृतज्ञता से सर झुकाए रसोई की ओर देखने लगा जहाँ से धरा तीनों के लिए चाय के प्याले लिए आ रही थी।
नीलाम्बर को लकड़ी की कुर्सी पर बैठना पड़ा।
तीनों चुपचाप बैठे चाय पीते रहे।
शाम का सूरज सिंदूरी होने लगा था, मानो विधाता-दर्ज़ी धरती के वाशिंदों का भविष्य सिल कर अब दुकान की ढिबरी बुझाने को हो।
[ जारी ]
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