भक्तन का ये नया युवा किराएदार धीरे-धीरे भक्तन के मन में भी जगह बनाने लगा। अब उसके व्यवहार से भक्तन के सोच की डाल पर बैठी वो चिड़िया उड़ कर कहीं ओझल हो गयी जो अकेले में सोते-जागते भी भक्तन की शंका-कुशंका को ठकठकाती रहती थी।
और धरा ? उसके तो कहने ही क्या ?
एक दिन जब नीलाम्बर ने अम्मा जी से कहा-"मैं तो यहाँ बिलकुल नया हूँ,राशन कार्ड बनवाने की अर्जी कहाँ-कैसे देनी है, ये भी नहीं जानता" तो भक्तन की तमाम दरियादिली दाव पर लग गयी।
उसकी दुनियादार अनुभवी आँखें तुरंत ताड़ गईं कि लड़का धरा को साथ ले जाने की परवानगी चाहता है।
भक्तन ना कैसे कर दे? आज तो पूछ रहा है, कल गुपचुप धरा खुद बहानेबाज़ी से उसके साथ घूमने फिरने लगी तो बुढ़िया कैसे रोक लेगी?
भक्तन को इजाज़त देनी ही पड़ी।
और उसके "हाँ " कहते ही धरा जैसे फड़फड़ाकर तैयार होने भीतर घुसी, भक्तन समझ गयी कि बच्चे पहले से सब सोच-ठान कर बैठे थे, उसकी अनुमति तो बस एक औपचारिकता थी।
थोड़ी ही देर में दोनों निकल गए।
भक्तन भी मन को समझाने लगी कि जवान होती लड़की के साथ बूढ़े माँ-बाप का नहीं, बल्कि किसी भरोसेमंद जवान लड़के का होना ही निरापद होता है। बिना बाप-भाई के आखिर कोई तो हो जो घड़ी- दो- घड़ी लड़की को बाहर की रौनक दिखा लाये?
बार-बार उमड़ती चिंता को मक्खियों सा उड़ाती भक्तन भीतर आ लेटी।
उसे नींद तो क्या आती, हां उनींदी सी पड़ी-पड़ी ने पहाड़ जैसी दोपहरी काट दी।
लेकिन ये क्या ? घंटे भर की कह गए थे, पर अब पूरे पांच बजने को आये।
घर लौटने पर धरा ने देखा कि माँ ने कुछ कहा तो नहीं है, पर फिर भी उसके हाव-भाव से स्पष्ट था कि उसे अच्छा नहीं लगा है।
अब भला राशन के दफ्तर में इतनी देर लग गयी तो इसमें धरा का भी क्या दोष? लेकिन ये बात माँ घर बैठे-बैठे कैसे जानती?
वह तो यही जानती थी कि धरा पराये लड़के के साथ बारह बजे से पहले की निकली-निकली अब साढ़े चार के भी बाद घर में घुसी है।
धरा भी अब क्या करे? पूछी गयी बात का जवाब दिया जा सकता है, शिकायत की सफाई दी जा सकती है, किन्तु न कही गयी बात की सफाई किस तरह दी जाये? धरा समझ न पाई। हाव -भाव की कैफियत कोई कैसे भला दे?
धरा मन ही मन ताड़ रही थी कि माँ देर से लौटने पर नाराज़ है, पर इसका उपाय भी क्या था? धरा खीजती रही। [ जारी ]
और धरा ? उसके तो कहने ही क्या ?
एक दिन जब नीलाम्बर ने अम्मा जी से कहा-"मैं तो यहाँ बिलकुल नया हूँ,राशन कार्ड बनवाने की अर्जी कहाँ-कैसे देनी है, ये भी नहीं जानता" तो भक्तन की तमाम दरियादिली दाव पर लग गयी।
उसकी दुनियादार अनुभवी आँखें तुरंत ताड़ गईं कि लड़का धरा को साथ ले जाने की परवानगी चाहता है।
भक्तन ना कैसे कर दे? आज तो पूछ रहा है, कल गुपचुप धरा खुद बहानेबाज़ी से उसके साथ घूमने फिरने लगी तो बुढ़िया कैसे रोक लेगी?
भक्तन को इजाज़त देनी ही पड़ी।
और उसके "हाँ " कहते ही धरा जैसे फड़फड़ाकर तैयार होने भीतर घुसी, भक्तन समझ गयी कि बच्चे पहले से सब सोच-ठान कर बैठे थे, उसकी अनुमति तो बस एक औपचारिकता थी।
थोड़ी ही देर में दोनों निकल गए।
भक्तन भी मन को समझाने लगी कि जवान होती लड़की के साथ बूढ़े माँ-बाप का नहीं, बल्कि किसी भरोसेमंद जवान लड़के का होना ही निरापद होता है। बिना बाप-भाई के आखिर कोई तो हो जो घड़ी- दो- घड़ी लड़की को बाहर की रौनक दिखा लाये?
बार-बार उमड़ती चिंता को मक्खियों सा उड़ाती भक्तन भीतर आ लेटी।
उसे नींद तो क्या आती, हां उनींदी सी पड़ी-पड़ी ने पहाड़ जैसी दोपहरी काट दी।
लेकिन ये क्या ? घंटे भर की कह गए थे, पर अब पूरे पांच बजने को आये।
घर लौटने पर धरा ने देखा कि माँ ने कुछ कहा तो नहीं है, पर फिर भी उसके हाव-भाव से स्पष्ट था कि उसे अच्छा नहीं लगा है।
अब भला राशन के दफ्तर में इतनी देर लग गयी तो इसमें धरा का भी क्या दोष? लेकिन ये बात माँ घर बैठे-बैठे कैसे जानती?
वह तो यही जानती थी कि धरा पराये लड़के के साथ बारह बजे से पहले की निकली-निकली अब साढ़े चार के भी बाद घर में घुसी है।
धरा भी अब क्या करे? पूछी गयी बात का जवाब दिया जा सकता है, शिकायत की सफाई दी जा सकती है, किन्तु न कही गयी बात की सफाई किस तरह दी जाये? धरा समझ न पाई। हाव -भाव की कैफियत कोई कैसे भला दे?
धरा मन ही मन ताड़ रही थी कि माँ देर से लौटने पर नाराज़ है, पर इसका उपाय भी क्या था? धरा खीजती रही। [ जारी ]
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