Tuesday, May 10, 2016

सेज गगन में चाँद की [24]

कुछ झिझकती सकुचाती धरा कोठरी में दबे पाँव घूम कर यहाँ-वहां रखे सामान को देखने लगी।
उसकी नज़र सोते हुए नीलाम्बर पर ठहर नहीं पा रही थी। उसके चौड़े कन्धों से निकली पुष्ट बाँहों ने न जाने कैसे-कैसे अहसास समेट रखे थे।
धरा ने आले पर रखी हुई छोटी सी वो तस्वीर हाथों में उठा ली, जिसके सामने नहाने के बाद नीलाम्बर अगरबत्ती जलाया करता था। कुछ सोच कर धरा ने एकाएक उसे रख दिया। उसे न जाने क्या सूझा, उसने सामने पड़ी दियासलाई हाथ में उठाई और उसमें से एक तीली लेकर रगड़ से उसे जलाने लगी।
ज्वाला की आवाज़ से धरा जैसे अपने आप में लौटी।
यदि अभी एकाएक नीलाम्बर की नींद खुल जाये और वह धरा को हाथों में माचिस की जलती हुई तीली लिए हुए देखे तो? एक पल तो धरा सहमी, किन्तु फिर आश्वस्त हो गयी।
नहीं,उसकी नींद कच्ची नहीं है। वह अभी जागेगा नहीं।
पलभर बाद धरा ने दूसरी तीली निकाल कर जला दी और फिर उसे हल्की सी फूँक से बुझा कर फेंक दिया। नीलाम्बर इस सब से बेखबर गहरी नींद में सोया हुआ था।
रह-रह कर उसकी नाक से हल्की सी सीटी की आवाज़ कभी-कभी निकलती थी। सीटी की आवाज़ के साथ ही मुंह से गर्म भाप भी निकलती थी,जिसका भभका व गंध उससे चार-पाँच फुट की दूरी पर खड़ी रहने के बावजूद धरा महसूस कर रही थी।
सहसा धरा की नज़र सबसे ऊपर के आले में पड़े अगरबत्ती के पतले से पैकेट पर पड़ी।  उसने धीरे से हाथ बढ़ा कर वहां से पैकेट उठा लिया और उसमें से दो अगरबत्तियाँ निकाल लीं।
माचिस फिर से उठा कर उसने दोनों अगरबत्तियां जला लीं,और उन्हें दीवार में कहीं लगाने के लिए कोई छेद या दरार ढूंढने लगी।एक पुराने से कैलेंडर की कील का छेद उसे दिख गया। उसी में कैलेंडर के धागे के साथ दोनों अगरबत्तियाँ भी धरा ने ठूँस दीं।
उनसे हल्का-हल्का धुआँ निकल कर वातावरण में मिलने लगा। अगरबत्ती की गंध और नीलाम्बर की गंध एकाकार होने लगी।
धरा ने कभी अपनी किसी सहेली से सुना था कि हर इंसान की अपनी एक अलग गंध होती है।धरा ने तब सहेली की बात पर विश्वास नहीं किया था।  पर वह ज़ोर देकर कहती रही थी कि हर आदमी की अपनी एक अलग गंध ज़रूर होती है।  चाहे वह अच्छी हो या बुरी, धीमी हो या मंद, लेकिन होती ज़रूर है।और कहते हैं कि कुँवारी लड़की या लड़के के बदन में तो ये गंध बेहद तीखी होती है, कभी-कभी मादक भी।
धरा की सहेली ने बताया था कि बाद में चाहे वह गंध तीखी न रहे.....पर
धरा उसे टोक बैठी थी - "बाद में मतलब?"
और धरा की वह शादी-शुदा सहेली भी झेंप कर रह गयी थी।
-"बाद में तीखी क्यों नहीं रहती?" धरा ने सवाल किया था।
-"बाद में उसमें और कई गंधें जो मिल जाती हैं।"कहते ही धरा ने अपनी उस सहेली को शरमा कर दुत्कार दिया था। धरा की उस सहेली की शादी कुछ  पहले ही हुई थी।
शादी के बाद उसने एक दिन धरा से कहा था-"इनकी गंध मैं आँखें बंद कर के भी पहचान सकती हूँ।"
-"कैसी है?"धरा बोली।
-"बताऊँ? जैसे किसी ने शुद्ध देसी घी में थोड़ा सा गुड़ मिला दिया हो और...."
-"अरे वाह, तेरे 'वो' तो लगता है अच्छे-ख़ासे इत्रदान ही हैं।"
सहेली शरमा कर रह गयी।
आज नीलाम्बर को यूँ सोता देख कर धरा के मन में भी एकबार ये ख़्याल आया कि नीलाम्बर के तन की गंध कैसी होगी? धत, ये क्या सोच बैठी, धरा ने अपने आप को ही दुत्कार दिया।
नीलाम्बर ने अब करवट ले ली थी। उसने पैर भी सीधे करके फैला लिए थे।उसकी बंद आँखें व पतली नुकीली नाक कमरे की छत की दिशा में उठी हुई थी।
एक हाथ नींद में ही उसने पेट पर रख लिया था, जिसकी कलाई में बंधा काला धागा होठों के ऊपर आये हलके पसीने की बूँदों की तरह ही चमक रहा था। सीधा हो जाने से.... 
[जारी]     
               
              

Monday, May 9, 2016

सेज गगन में चाँद की [23]

माँ के चले जाने के बाद धरा का ध्यान इस बात पर गया कि आज पहली बार शायद माँ उसे अकेला छोड़ कर गयी है। ताज्जुब तो इस बात का था कि धरा ने खुद माँ से उसके साथ चलने की पेशकश की थी। पर माँ उसे घर में अकेले छोड़ कर चली गयी।
इससे पहले तो कई बार ऐसा होता रहा था कि धरा कहती, मेरा जाने का मन नहीं है, मैं घर में ही रह जाउंगी, तब भी माँ उसे यह कह कर साथ ले लेती, कि अकेली घर में क्या करेगी, कैसे रहेगी ?
एक बार तो माँ को मज़बूरी में शारदा मामी के साथ जाना पड़ा तब भी धरा को अकेले छोड़ते समय भक्तन ने पिछली गली की सीता से कहा था, बहन ज़रा मेरे घर का ध्यान रखना, धरा वहां अकेली है।
और आज?
तो क्या धरा अब बड़ी हो गयी थी?
लेकिन माँ के शब्दकोष में तो कुंवारी जवान लड़की इतनी बड़ी कभी नहीं होती, कि घर में सरे शाम अकेली रह सके।
लेकिन जब धरा को इस गोरखधंधे का मतलब समझ में आया तो वह खुद से ही लजा गयी।
असल में नीचे वाली कोठरी में नीलाम्बर जो सोया हुआ था, धरा घर में अकेली कहाँ थी?
तो क्या माँ....?
चलो, जब माँ अकेला छोड़ ही गयी तो क्यों न नीचे चल कर ज़रा नीलाम्बर की खोज-खबर ली जाये।
वैसे भी जब से उसे रात की पाली का काम मिला था वह दिन रात बाहर ही तो रहता था। जब आता तो नहाने-धोने, और रोटी पकाने में रहता था। उसे फुर्सत ही कहाँ रहती थी कि चैन से दो-घड़ी बात कर सके।
भूले-भटके ऊपर आता भी तो चार सवाल माँ के झेलता तब कहीं जाकर रामा-श्यामा धरा से हो पाती। कई बार तो बस देख भर पाते दोनों एक-दूसरे को।
दबे पाँव सीढ़ियाँ उतर कर धरा जब नीचे आई तो कोठरी के किवाड़ भिड़े हुए थे।  धरा ने हलके से धक्के से उन्हें खोल दिया।
सामने गहरी नींद में नीलाम्बर सोया पड़ा था।  माथे पर बिखरे घने बाल, साँवले बदन पर हलके से पसीने से शरीर के चमकने का अहसास उसे और भी आकर्षक बना रहा था। एक पैर सीधा, एक घुटने से मोड़ कर हाथों के पंजों से तकिया दबाए उल्टा सोया पड़ा था।
जब से दोनों समय ड्यूटी करने लगा था, दिन के समय की उसकी नींद बहुत ही गहरी हो गयी थी। फिर इस समय दोपहर की गर्मी के बाद  शाम की थोड़ी ठंडक फ़ैल चुकी थी। हलकी सी ठंडी हवा उसकी नींद को और भी गहरी बनाए हुए थी।
धरा की समझ में न आया कि  क्या करे।  इस तरह चोरी-चोरी उसके कमरे में चले आने के बाद उसे वहां ठहरने में थोड़ा संकोच भी हो रहा था। फिर नीलाम्बर कपड़े उतार कर सो रहा था, एक छोटी सी चड्डी ही सिर्फ उसके कसरती तन पर थी। ऐसे में उसके करीब पहुँचने में भी धरा को झिझक हो रही थी।
[ जारी ]
                        

Sunday, May 8, 2016

सेज गगन में चाँद की [22]

भक्तन ने धरा के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए और कंगन उसकी कलाई में फ़िरा कर देखने लगी।
धरा ने धीरे से कंगन उतार कर माँ की गोद में रख दिए। फिर उसी तरह बैठी-बैठी आहिस्ता से बोली-
-"ये तुम्हें आज इनकी याद कैसे आ गयी?"
-"इनकी याद नहीं आ गयी, मैं तो ऐसे ही देख रही थी,घर में इतने चूहे हो गए हैं, सब ख़राब कर डालेंगे। तू ऐसा कर, ये मेरा ज़री वाला लाल-जोड़ा है न इसे अपने हिसाब से ठीक-ठाक करवा ले। पड़ा-पड़ा क्या दूध दे रहा है, कुछ काम तो आये।"
धरा शर्मा गयी। धत, शादी का लाल-जोड़ा क्या ऐसे रोजाना में काम आता है? माँ भी अजीब है, उसने मन ही मन सोचा, और उठ कर भीतर जाने लगी।
तभी माँ को न जाने कैसे ज़ोर की खाँसी उठी और धरा माँ के लिए पानी लाने को रसोई की ओर दौड़ पड़ी।
माँ भी जैसे बिखरे असबाब में उलझे पुराने दिनों की यादें बीन रही थी, कोई लम्हा अटक गया गले में!
पानी का गिलास माँ को पकड़ाते ही धरा की नज़र माँ की जवानी के दिनों की उस तस्वीर पर पड़ी जो शायद किसी कपड़े की तह से फिसल कर ज़मीन पर आ गिरी थी।
तस्वीर में आँखें झुकाए शरमाती सी माँ बापू के साथ बैठी थी।
माँ ने झोली के कंगन परे सरका कर झपट कर तस्वीर को सहेजा।
धरा बिना कुछ बोले वापस बाहर चली गयी।  भक्तन ने पानी पीकर गिलास वहीं रख दिया।
शाम को धरा खाना खाने के बाद छत पर मुंडेर का सहारा लेकर यूँ ही खड़ी हवा खा रही थी कि भक्तन माँ कमरे से बाहर निकल कर छत पर आई।
माँ ने इस समय नई सी पीली किनारी की धोती पहन रखी थी। धरा ने माँ के पैरों कीओर निगाह डाली, माँ चप्पल भी नई वाली पहने खड़ी थी। अवश्य ही कहीं जाने की तैयारी थी।
-"कहाँ जा रही हो माँ,"धरा ने बड़ी सी लाल बिंदी की ओर  देखते हुए कहा जो माँ शायद अभी-अभी लगा कर ही आई थी।
-"आज ज़रा शंकर से मिलने जाउंगी।" माँ बोली।
शंकर माँ का दूर के रिश्ते का या शायद मुंहबोला भाई था जिसे धरा भी मामा कहा करती थी। शहर में ही कुछ दूरी पर रहा करता था।
-"आज अचानक?"धरा ने चौंकते हुए से कहा।
-"अचानक नहीं बेटी, सोच तो बहुत दिनों से रही थी, पर मौका ही नहीं मिला। बीच में तबियत बिगड़ी तब मैंने सोचा शायद वही आ जाये।"
-"वो कैसे आ जाते? उन्हें क्या पता था तुम्हारी तबियत का?"
-"पता तो नहीं था, पर फिर भी।"
-"वो आते कहाँ हैं? कितने महीने तो हो गए।"धरा ने जैसे कुछ मायूसी से कहा।
-"तभी तो, इसीलिये तो मैंने सोचा, मैं होआऊं। शारदा भी बहुत दिनों से मिली नहीं है, मुझे लगता है उसकी बहू  अभी पीहर से वापस न आई होगी। वरना तो आती वह भी।"माँ ने पूरे परिवार की कैफियत दी।
-"मैं भी चलूँ ?"धरा ने हुलस कर कहा।
-"तू चलेगी?"रहने दे, तू क्या करेगी।" माँ ने जैसे कुछ सोच कर कहा।
माँ धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर गयी।
[ जारी ]                    
          

   

सेज गगन में चाँद की [21]

 कभी-कभी बच्चे जब अपने माँ-बाप से दूर होते हैं तो दूसरे के माँ-बाप में अपने माँ-बाप को देख लेते हैं। शायद नीलाम्बर की याद में भी धरा की माँ के लिए ये सब करते हुए अपनी माँ रही होगी।
नीलाम्बर ने अगर थोड़ा बहुत किया तो क्या अहसान किया किसी पर?
भक्तन-माँ की देह पर ताप चढ़ा,वैद्यजी ने बूटियां घोटीं,नीलाम्बर ने पैसे खर्चे, कसक उठी धरा के कलेजे में....ऐसे ही मिल-जल कर तो चलती है दुनिया।
तीसरे दिन भक्तन का बुखार बिलकुल उतर गया।  चौथे दिन तो सुबह-सुबह मंदिर सँभालने खुद गयी।
उस दिन सवेरे के समय धरा रसोई में दाल चढ़ा कर लहसुन छीलने के लिए बैठी ही थी कि भक्तन ने आवाज़ देकर धरा को बुलाया।
-"क्या है माँ? अभी आती हूँ पांच मिनट में।"धरा ने ऊंची आवाज़ में कहा और हाथ ज़रा जल्दी-जल्दी चलाने लगी।  दो-चार मिनट के बाद धरा कमरे में आई तो देखती ही रह गयी।
भक्तन पुराना वाला बड़ा सा बक्सा सामने खोले बैठी थी। चारों तरफ फैला-बिखरा सामान पड़ा था और बीच में माँ।
-"ये आज क्या सूझी तुम्हें? क्या निकालना है इसमें से?" धरा ने आश्चर्य से कहा।
भक्तन न जाने किस सोच में थी, कोई जवाब नहीं दिया। उसी तरह बैठी सामान को उलट-पलट करती रही।
धरा झल्ला गयी। काम छोड़ कर आई थी। रसोई में स्टोव को अलग धीमा करके आई थी।
ज़रा और ज़ोर से चिल्लाई-"क्या है माँ? क्यों आवाज़ लगा रही थीं ? खीज कर धरा ने माँ को याद दिलाया कि तुमने आवाज़ लगा कर मुझे बुलाया है, अपने आप नहीं आई मैं।
भक्तन ने धरा की ओर  देखा।  फिर इशारे से उसे पास बुलाया।  इस रहस्यमयी रीति से धरा का विस्मय और बढ़ गया।  वह किसी जिज्ञासा के वशीभूत धीरे-धीरे बढ़ती माँ के पास खिसक आई।
माँ के हाथ में पॉलीथिन की एक थैली में लिपटी हुई कोई चीज़ थी। धरा आश्चर्य से उसे देखने लगी।
भक्तन ने थैली खोली। उसमें से मुड़ा-तुड़ा एक कागज़ निकला। भक्तन कागज़ से निकाल कर देखने लगी। फिर धरा से बोली-"तू कह रही थी न कि ये चूड़ियाँ तेरे ढीली हैं,"
पतले कागज़ की गुलाबी सी पुड़िया खोल कर भक्तन ने दो कंगन अँगुलियों में डाल कर घुमाए।
-"पता नहीं, पहले तो ढीली ही थीं।" धरा ने कहा।
-" तो अब ? ले, ज़रा हाथों में डाल कर तो देख।" माँ बोली।
धरा एकदम से घुटनों के बल बैठ गयी और माँ के हाथों से लेकर सोने के कंगन अपनी कलाइयों में डाल  कर देखने लगी।
-"हां, ज़्यादा ढीले तो नहीं हैं, पर ज़रा बड़े हैं। धरा ने माँ को आश्वस्त किया।  [ जारी ]              

सेज गगन में चाँद की [20]

धरा को लगा जैसे उस से अनजाने में ही कोई भूल हो गयी।  यद्यपि उसे इस बात का अभी तक कोई सुराग नहीं मिला था कि आखिर इसमें गलत क्या है? बापू का नाम कार्ड में तो होगा ही।
किसने कटवाया? कैसे कटवाया? कब कटवाया? क्यों कटवाया?
नहीं कटवाया तो होगा ही।
घर के राशन कार्ड में जिसका नाम होता है वो तो लौट कर घर आता ही है।
नीलाम्बर के घर वालों ने भी तो उस के गाँव छोड़ कर चले आने के बावजूद उसका नाम कार्ड से इसी आस-उम्मीद में तो नहीं कटवाया कि एक न एक दिन लड़का वापस लौट कर घर आएगा ही।
धरा के बापू का नाम भी कार्ड में अभी तक था।
इतना तो धरा भी समझती थी कि आदमी के पैदा होने से कुछ नहीं होता।  उसके सर्टिफिकेट से होता है कि  वो है। आदमी के मरने से कुछ नहीं होता, मरने के सर्टिफिकेट से होता है कि आदमी मर गया।
सर्टिफिकेट पर सरकार के दस्तख़त होते हैं।  सरकार के दस्तख़त के बिना आदमी कैसे जी-मर सकता है?
धरा के बापू का सर्टिफिकेट किसके पास था? जब किसी ने उसे मरते हुए नहीं देखा तो मौत का परवाना कैसे बने?
यही कारण था कि इस घर का बिजली का बिल और म्युनिसिपलिटी की रसीदें सब धरा के बापू के नाम पर ही आते थे। इसीलिये राशनकार्ड पर बापू का नाम था.... और इसीलिये ये उम्मीद भी, कि एक दिन बापू वापस आ जायेगा।
दो-तीन दिन भक्तन माँ की तबियत ख़राब रही। मंदिर में भी धरा को ही जाना पड़ा। और वैद्यजी से माँ की दवाई लेने भी।
नीलाम्बर भी सुबह-शाम देखने-पूछने ऊपर आया। नीलाम्बर ने बाजार से राशन-सौदा भी दो-एक बार लाकर दिया। नीलाम्बर ने माँ की दवा भी लाकर दी।
अकेली कुँवारी लड़की की माँ की बीमारी भी कीमती होती है। बीमारी तो सभी की कीमती होती है। कीमत चुकानी ही पड़ती है।
दो-तीन बार धरा को नीलाम्बर से दस-बीस रूपये की मदद भी लेनी पड़ी।
धरा तो न भी लेती।  इतने बरस से यहाँ रहने पर आसपास के दुकानदार तो सब जानकर हो ही गए थे। दो-चार दिन उधारी चलाने में क्या बात थी?
पर साथ में नीलाम्बर जो था।  जब पैसे जेब में हों तो भला उधार क्यों? नीलाम्बर के लिए धरा की माँ क्या कुछ नहीं थी? नीलाम्बर ने ही खुद आगे बढ़ कर खर्चा भी किया और दवा के पैसे भी दिए।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आदमी एक ऐसे आदमी के लिए कुछ करता है जो वहां होता ही नहीं।
ऐसे ही, जैसे श्राद्धों में थाल-भर भोजन घर की छत पर हम उन पितरों के लिए रख देते हैं जो घर की छत पर होते ही नहीं, आसमान की छत पर होते हैं।   [ जारी ] 
               

Friday, May 6, 2016

सेज गगन में चाँद की [19]

नीलाम्बर के गाँव के उसके घर से उस चिट्ठी का जवाब आ गया था जो उसने राशन कार्ड के बाबत अपने पिता को लिखी थी। पिता ने लिखा था कि  यहाँ तो सभी का कार्ड है।  लिखावट से ज़ाहिर था कि पिता ने चिट्ठी उसकी छोटी बहिन से लिखवाई थी। लिखा था कि  यहाँ तो ग्यारह लोगों का कार्ड है।नीलाम्बर का भी।
घर में कुल सात प्राणी और ग्यारह आदमियों का कार्ड में नाम।  चाचा के दो लड़कों का भी यहीं नाम लिखा है। ये भी लिखा था कि नीलाम्बर का नाम अभी तक काटा नहीं गया है। यहाँ  सभी ज़्यादा लोगों का नाम लिखवाते हैं तभी जाकर राशन पूरा पड़ता है।
बहन से लिखवाई गयी उस चिट्ठी में ये भी लिखा था कि नीलाम्बर जब यहाँ कार्ड बनवाए तब भी सभी भाइयों के नाम भी उसमें लिखवा ले, तभी राशन-पानी पूरा पड़ेगा।
नीलाम्बर को चिट्ठी पढ़ कर हंसी आई। धरा तो ये पढ़ कर हँसते-हँसते लोटपोट ही हो गयी कि यहाँ किसी को पता नहीं है कि नीलाम्बर का नाम कार्ड में से कट कर शहर में कैसे जायेगा इसलिए वहां दूसरा बनवा लो।
-"क्या सचमुच तुम्हारे गाँव में कार्ड मुफ्त में बन जाता है? वो भी आँखें बंद करके?" धरा को हैरत हुई।
-"क्या पता? वहां थे, तब तक तो हमें पता ही नहीं थे ये सब झमेले। पिताजी ही सब देखते थे।" नीलाम्बर जैसे अपने-आप से बोला।
-"तुम एक बार अपने घर वालों को यहाँ लाना।"
नीलाम्बर धरा की इस बात से न जाने कहाँ खोकर रह गया।  उसकी कल्पना में एक ऐसा उड़नखटोला तैरने लगा जो आसमान को चीरता हुआ, सफ़ेद-सफ़ेद बादलों को काटता, हिचकोले खाता हुआ चला आ रहा था और उसमें सवार थे उसकी अम्मा, बाबा,धन्नू,पीता,छोटा, मालू ...सब।
इन सब को न जाने कब से नहीं देखा था उसने।  धनाम्बर,पीताम्बर,और सदाम्बर उसके छोटे भाई थे जो वहीँ गाँव में ही पढ़ते थे, माला उसकी बहन थी और एक चचेरी बहन भी वहीं गाँव में ही रहती थी।
धरा को अपने सवाल का जवाब काफी देर तक नहीं मिला, पर नीलाम्बर की आँखों में झाँक कर उसने जान लिया था कि नीलाम्बर धरा के सवाल का जवाब ही खुद अपने-आप को दे रहा है।
कैसा खो गया वह अपने घर को याद करके।
नीलाम्बर का दिल हुआ कि वह भी ठीक उसी तरह धरा से कहे कि कभी तुम भी मेरे साथ मेरे गाँव चलना।
पर ऐसा विचार आते ही नीलाम्बर मन ही मन झेंप गया।  भला ऐसी बात वह धरा से कैसे कह सकता था।
धरा ने नीलाम्बर के घर से आई चिट्ठी के बारे में भक्तन माँ को भी बताया था।
-"माँ, अपने राशन कार्ड में बापू का नाम है क्या ?" धरा सहसा पूछ बैठी।
यह धरा को आज बैठे-बैठे अचानक क्या सूझा !
माँ स्तब्ध रह गयी।  बेटी की ओर एकटक देखती रही।
[ जारी ]                       

सेज गगन में चाँद की [18]

धरा आकर यहाँ लेट ज़रूर गयी पर उसे नींद तो क्या, चैन तक न आया। उसे अच्छी तरह मालूम था कि रसोई में उसकी खटर-पटर बंद हो जाने से माँ को ज़रूर मायूसी हुई होगी।
माँ का ये चाय का समय था और धरा से तमाम नाराज़गी के बावजूद माँ बैठी यही सोच रही थी कि कपड़े बदल कर धरा चाय का पानी चढ़ाएगी।
आँखों पर मोड़ कर रखी हुई कोहनी की कोर से धरा ने ज़रा तिरछी आँखों से माँ की ओर देखा।  उसे अकारण ही हंसी आ गयी।  हंसी को होठों में ही घोटकर ज़ब्त करते हुए धरा ने पूछा-" चाय बनाऊँ माँ?"
इस से पहले कि  माँ कुछ बोलें, उनकी आँखों में वही खास किस्म की चमक आ गयी, जिसे देखते ही धरा को अपनी बात का जवाब मिल गया।
पर प्रकटतः माँ बोलीं-"सो रही है तो सो जा, बाद में बना देना।"
धरा उठ कर रसोई में चली गयी और स्टोव जलाने लगी।
ऊपर तक भरे हुए गरम गिलास को अपनी धोती के पल्ले से पकड़ कर उठाते हुए माँ ने कहा-
-" और है क्या चाय? उसे भी दे देती ज़रा सी।"
-"अब बना लेगा अपने आप,उसे पीनी होगी तो।"
धरा ने जानबूझ कर लापरवाही से कहा और रसोई से एक हरी मिर्च के साथ दो रोटियाँ रख कर ले आई।  चाय के साथ ही धरा रोटी खाने बैठ गयी, उसे अब तक भूख भी ज़ोरों की लग आई थी।  माँ कुछ न बोली, चुपचाप चाय पीती रही।
-"क्यों री, कार्ड बन गया क्या उसका?" माँ ने हलक चाय से तृप्त होने के बाद जिज्ञासा उगली।
-"कार्ड क्या एक दिन में बन जाता है? आज तो फार्म भर कर दिया है।  पंद्रह-बीस दिन लगेंगे, राशन कार्ड के दफ्तर से एक आदमी यहाँ देखने आएगा, तब जाकर बनेगा।" धरा बोली।
-"आदमी क्यों आएगा? आदमी को ही आना था तो इसे वहां क्यों बुलाया?" माँ ने जायज़ सी बात कही।
-"अरे कार्ड बनाने से पहले ठौर-ठिकाना देखने आते हैं, जिसने अर्ज़ी दी है वो यहाँ रहता भी है या नहीं, और कौन-कौन है साथ में? किस-किस का नाम जुड़ेगा कार्ड में, ये सब यहाँ तहकीकात करके ही तो कार्ड बनाएंगे।" धरा ने अब तक का अपना ज्ञान मानो सारा उलीच दिया।
उसे ज़रा झल्लाहट सी भी हुई कि कहाँ तो वापस लौटते ही माँ ने ये भी सीधे मुंह नहीं पूछा था कि जिस काम से वे लोग गए थे वह हो गया या नहीं, और अब माँ उसके कार्ड को लेकर इतनी चिंतित है कि उसका बस चले तो आज, अभी ही बनवा कर दिलवा दे कार्ड सरकार से।
नीलाम्बर का कार्ड बनने, न बनने की जो फ़िक्र दो दिन से माँ को थी वह उस समय तो उपेक्षा के किसी खोल में गुम हो गयी थी, जब उन्हें लौटने में ज़रा देर क्या हुई।
माँ का बेबात का गुस्सा धरा को फिर से याद आ गया। उसे लगा कि वह अकारण ही अपने को तनाव में जला  रही थी। [ जारी ] 
          
    

Thursday, May 5, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 17 ]

माँ भी अजीब है।
हर समय यही सोचती रहती है कि धरा कोई बच्ची है। अरे, अकेली तो गयी नहीं थी, साथ में छः हाथ का ये लड़का था।  और कोई बिना पूछे नहीं गयी थी।  यदि ऐसा ही था तो माँ पहले ही मना कर सकती थी। न जाती वह। भला उसे कौनसा घर काटने को दौड़ रहा था कि भरी दोपहरी में भटकने को घर से निकलती।
नीलाम्बर ने ही कहा था कि  वह साथ चलेगी तो काम ज़रा जल्दी हो जायेगा।  क्योंकि उस बेचारे का बहुत सा समय तो पूछने-ढूँढ़ने में ही निकल जायेगा।
और माँ से पूछने के बाद ही धरा ने नीलाम्बर को हामी भरी थी।
पर अब माँ ऐसे मुंह लटका कर बैठी है जैसे धरा कहीं से गुलछर्रे उड़ा कर लौटी हो। अब शाम तक ऐसे ही रहेगी।  मुंह से कुछ न कहेगी पर बात-बात पर हाव-भाव से अपनी नापसंदगी ज़ाहिर करती रहेगी।
धरा चाय की पूछेगी, तो दो बार तो पहले कोई जवाब ही न देगी, तीसरी बार ज़ोर देकर पूछने पर बेमन से कहेगी-"इच्छा नहीं है।"
धरा को समझ में नहीं आता कि आखिर माँ को आपत्ति क्या थी? बाहर की दुनिया में कोई खतरा था, तो ये लड़का साथ में था। यदि इसी से कोई खतरा था तो ये भी तो सोचे माँ,कि ये यहीं रहता है। हमारे घर में। इसे कुछ करना होता तो ये भरी दोपहर शहर की भीड़-भाड़ में धक्के खाने क्यों ले जाता? रात को माँ के सोने के बाद धरा ही सीढ़ियां उतर कर इसकी कोठरी में घुसती और इस से लिपट कर सो जाती तो माँ क्या कर लेती? उसे तो नींद की बेहोशी में कुछ खबर भी नहीं होती।
छिः छिः ये क्या सोच गयी धरा, खुद अपनी ही सोच पर लजा कर सुर्ख हो गयी।
उसे अब माँ पर नहीं, खुद पर गुस्सा आने लगा।
बेचारी माँ भी क्या करे? दूध की जली है, इसी से छाछ भी फूँक-फूँक कर पीती है। उसे न धरा की चढ़ती जवानी से डर लगता है, न नीलाम्बर की नई-नई मर्दानगी से। वो तो डरती है, ज़माने की करमजली काली जुबान से। निगोड़ा कब क्या कह बैठे, खबर नहीं।  इसी नामुराद ज़माने ने ही तो कुबोल बोल कर उसका खसम उस से छीन लिया। मोहल्ले में ही अपनी ज़िंदगी झुलसा कर कई बूढ़े बदन पड़े हैं, कोई भी कुछ बक दे....तो गयी न भक्तन के दूसरे जनम की आबरू भी?
माँ ने जब चाय के लिए अनिच्छा जताई तो धरा भी गुस्से से तमतमा कर स्टोव बुझा कर, पानी फेंक पैर पटकती हुई कमरे में  बिला गयी।
धरा कपड़े बदल कर थोड़ी देर लेटने के इरादे से चटाई उठा कर कमरे से छत पर चली आई।  रसोई की साँकल उसने झटके से बंद करदी मानो माँ के गुस्से के चलते अब दो-तीन दिन रोटी-पानी बंद ही रहेंगे। [ जारी ]                        

सेज गगन में चाँद की [ 16 ]

भक्तन का ये नया युवा किराएदार धीरे-धीरे भक्तन के मन में भी जगह बनाने लगा। अब उसके व्यवहार से भक्तन के सोच की डाल पर बैठी वो चिड़िया उड़ कर कहीं ओझल हो गयी जो अकेले में सोते-जागते भी भक्तन की शंका-कुशंका को ठकठकाती रहती थी।
और धरा ? उसके तो कहने ही क्या ?
एक दिन जब नीलाम्बर ने अम्मा जी से कहा-"मैं तो यहाँ बिलकुल नया हूँ,राशन कार्ड बनवाने की अर्जी कहाँ-कैसे देनी है, ये भी नहीं जानता" तो भक्तन की तमाम दरियादिली दाव पर लग गयी।
उसकी दुनियादार अनुभवी आँखें तुरंत ताड़ गईं कि लड़का धरा को साथ ले जाने की परवानगी चाहता है।
भक्तन ना कैसे कर दे? आज तो पूछ रहा है, कल गुपचुप धरा खुद बहानेबाज़ी से उसके साथ घूमने फिरने लगी तो बुढ़िया कैसे रोक लेगी?
भक्तन को इजाज़त देनी ही पड़ी।
और उसके "हाँ " कहते ही धरा जैसे फड़फड़ाकर तैयार होने भीतर घुसी, भक्तन समझ गयी कि बच्चे पहले से सब सोच-ठान कर बैठे थे, उसकी अनुमति तो बस एक औपचारिकता थी।
थोड़ी ही देर में दोनों निकल गए।
भक्तन भी मन को समझाने लगी कि जवान होती लड़की के साथ बूढ़े माँ-बाप का नहीं, बल्कि किसी भरोसेमंद जवान लड़के का होना ही निरापद होता है। बिना बाप-भाई के आखिर कोई तो हो जो घड़ी- दो- घड़ी लड़की को बाहर की रौनक दिखा लाये?
बार-बार उमड़ती चिंता को मक्खियों सा उड़ाती भक्तन भीतर आ लेटी।
उसे नींद तो क्या आती, हां उनींदी सी पड़ी-पड़ी ने पहाड़ जैसी दोपहरी काट दी।
लेकिन ये क्या ? घंटे भर की कह गए थे, पर अब पूरे पांच बजने को आये।
घर लौटने पर धरा ने देखा कि माँ ने कुछ कहा तो नहीं है, पर फिर भी उसके हाव-भाव से स्पष्ट था कि  उसे अच्छा नहीं लगा है।
अब भला राशन के दफ्तर में इतनी देर लग गयी तो इसमें धरा का भी क्या दोष? लेकिन ये बात माँ घर बैठे-बैठे कैसे जानती?
वह तो यही जानती थी कि धरा पराये लड़के के साथ बारह बजे से पहले की निकली-निकली अब साढ़े चार के भी बाद घर में घुसी है।
धरा भी अब क्या करे? पूछी गयी बात का जवाब दिया जा सकता है, शिकायत की सफाई दी जा सकती है, किन्तु न कही गयी बात की सफाई किस तरह दी जाये? धरा समझ न पाई। हाव -भाव की कैफियत कोई कैसे भला दे?
धरा मन ही मन ताड़ रही थी कि माँ देर से लौटने पर नाराज़ है, पर इसका उपाय भी क्या था? धरा खीजती रही।  [ जारी ]

Tuesday, May 3, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 15 ]

धरा फिर उलझ पड़ी -
-"कमाल करती हो माँ तुम भी ! अरे वो क्या कोई नवाब या राजा-महाराजा है जो सारी -सारी रात कहीं ऐश करने जाता होगा।  काम-धंधे वाला आदमी है, जब अपना घर-बार छोड़ कर यहाँ परदेस में अकेला पड़ा है,तो चार पैसे कमाने की फ़िक्र न करेगा? जहाँ काम मिलेगा, जब मिलेगा, जायेगा ही।  और सोचो उसे यदि कोई खुराफात ही करनी होगी तो यहाँ दिन क्या कम पड़ता है उसे?"
धरा कह तो गयी, पर अब अपनी ही बात पर झेंप कर रह गयी।
माँ-बेटी के ये तर्क-वितर्क दो दिन और चले।
माँ ने भी शक और शुबहे के कोई कोण बाकी नहीं छोड़े,और बेटी ने भी निपट अनजाने लड़के का आँख मूँद कर पक्ष लेने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। पर दो दिन बाद मामला खुद-ब-खुद साफ़ हो गया।
तीसरे दिन रात को कागज़ की पुड़िया में चार इमरती लेकर नीलाम्बर ऊपर ही चला आया।  संकोच से अपने हाथ की पुड़िया धीरे-धीरे खोलकर उसने भक्तन माँ को ही थमाई, फिर विनम्रता से बोला-
-" अम्माजी, मुझे एक जगह काम मिल गया है, वहां से आज पहली बार पगार मिली है।"
भक्तन ने इमरती की पुड़िया की ओर चमकती आँखों से देखते हुए कहा- " अच्छा-अच्छा बेटा ....अरे ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई।  मैं चार रोज़ से यही सोच रही थी कि रोज़ रात को तू कहाँ चला जाता है।
भक्तन माँ दोहरी प्रसन्न थी।
एक तो नीलाम्बर का अम्माजी कह कर बोलना उन्हें खूब भाया था, दूसरे उन्हें उनकी कई दिन पुरानी उस शंका का माकूल उत्तर मिल गया था जिसने चार दिन से उनके पेट में पानी किया हुआ था।
और इन दोनों बातों के अलावा एक तीसरी बात ये भी तो थी कि मंदिर का प्रसाद खाते-खाते मिठाई भक्तन माँ की पसंदीदा कमज़ोरी बन चुकी थी।
भक्तन देखते ही समझ गयी कि इमरती मथुरा मिष्ठान्न वाले की है, जिसकी इमरती दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। इमरती की मिठास में भक्तन ऐसी खोई कि उसे थोड़ी ही दूर पर फुसफुसा कर बात करते धरा और नीलाम्बर की भी सुधि नहीं रही।
शायद सीढ़ियों तक उसे छोड़ने चली गयी धरा को नीलाम्बर उस काम के बाबत बता रहा था जो हाल के दिनों में उसे मिल गया था।
ठीक भी तो है, जब आदमी घर से कोसों दूर हो तो पराये भी उसके अपने ही होते हैं। ऐसे में अपने मुंह की भाप आदमी उन के सामने न निकाले तो और कहाँ निकाले?
फिर धरा और नीलाम्बर?  जिनकी आँखों में चुम्बक, जिनकी बातों में चुम्बक, जिनकी उम्र में चुम्बक !
[ जारी ]  

                

सेज गगन में चाँद की [14]

सच, ऐसे ही तो होते हैं शहर।  जब तक आप ज़माने के साथ दौड़ो,सब कुछ ठीक है।  जहाँ कोई ज़रा सी ऊंच - नीच हुई कि आप समाज की कतार से बाहर।
सीमेंट, पत्थर,चूने और लोहे के अल्लम-गल्लम से घिरे कितने ही मकान तो ऐसे होते हैं कि जिन्हें घर बनाने या बनाये रखने की कोशिशों में समूचे जीवन खर्च हो जाते हैं।
कच्ची उम्र के उठते सपने लेकर गाँव-देहात अपनी कलाई इन बस्तियों के हाथ में दे देते हैं, और फिर तेज़ी से ऐसा विकास होता है कि शहर को बस्ती का गिरेबान पकड़ने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगता।
भक्तन ने अपने इस चढ़ती उम्र के सीधे-सादे से किराएदार में ऐसा कभी कुछ न पाया जो उसे किसी शक-शुबहा में डाले। बल्कि इसके उलट, उसके व्यवहार से  माँ-बेटी ऐसी अभिभूत रहतीं कि दिनों- दिन उसे अपने और करीब करती चली गयीं।
भक्तन की ये चिंता हवा में उड़ गयी कि अकेली जवान लड़की के घर में अजनबी पराया लड़का न जाने कब कोई गुल खिलादे।
भक्तन ने देखा कि कभी-कभी अगर हम खुद अपने को कुछ न कहें, तो ज़माना भी कुछ नहीं कहता।  निगोड़ा ज़माना भी उसी को सुनाने का आदी है जो उसकी सुने।
भक्तन को तो बुढ़ापे में ऐसा लगता मानो उसके एक नहीं, दो बच्चे हैं।
लेकिन कुछ दिन बाद भक्तन ने धरा से जब ये सुना कि नीलाम्बर अब अक्सर रात को घर नहीं आता , तो उसके माथे पे बल पड़ गए।
ये बात आम हो गयी कि नीलाम्बर रोज़ ही रात को घर से बाहर रहने लगा है।  वह शाम को घर पर दिखाई देता, खाना  बनाता, खाता , फिर नौ बजते-बजते कमरे को ताला  डाल कर बाहर निकल जाता।
भक्तन माँ को ये बड़ा अटपटा लगता।  उसे ये बेचैनी सताने लगी कि आखिर रोज़ रात को लड़का कहाँ चला जाता है? उसके मन में एक कुशंका सी आई कि कहीं पास-पड़ोस की किसी नसीब-जली औरत ने धरा के बापू की तरह उस पर भी कोई ताना तो नहीं तान मारा ? आखिर घर में जवान बेटी थी।
पहले दो-एक दिन तो वह मन ही मन सोचती रही कि मौका देख कर खुद नीलाम्बर से ही पूछेगी। पर बाद में एक दिन धरा से ही कह बैठी-
"बेटी, ज़रा पता तो लगा, रात को रोज़ कहाँ चला जाता है? कोई रिश्ते-नातेदार मिल गया है या ... "
-"या ...?" धरा ने बौखला कर माँ को टोका।
- " तुम भी माँ बस ज़रा सी बात का बतंगड़ सा बना कर बैठ जाती हो, अरे अकेला लड़का है, कहीं यार-दोस्तों में चला जाता होगा,या फिर हो सकता है उसे रात का कोई काम ही मिल गया हो। ऐसे रोज़-रोज़ रात को बिना काम के कोई  कहाँ जायेगा, और क्यों जायेगा?"
भक्तन धरा के इस तरह झुंझला कर बोलने से चुप तो हो गयी, पर उसे पूरी तसल्ली फिर भी नहीं हुई।  उसका मन ये मानने को कतई तैयार नहीं था कि जवान कुँवारा लड़का सारी-सारी रात घर से बाहर रह कर लौटे,और उस से कहीं कोई कुछ न पूछे।
अरे, हम उसके रिश्तेदार न सही, जब तक हमारे मकान में किराएदार बन कर रहता है, तब तक तो हमें उसके चाल-चलन पर निगाह रखनी ही होगी। बाद में चाहे जहाँ मुंह मारे, हमें क्या? [ जारी ]                    

सेज गगन में चाँद की [ 13 ]

नीलाम्बर का गाँव यहाँ से बहुत दूर था, और ये उन्नीस वर्षीय युवक कुछ समय पहले अपने घर-गाँव के कष्टों का कोई आर्थिक तोड़ ढूँढ़ने के लिए किसी कागज़ की कश्ती में सवार भुनगे की भांति यहाँ चला आया था।  उसके पिता किसी बेहद मामूली से काम से रिटायर होकर अब घर के एक उम्रदराज़, पर अनुपयोगी सदस्य की तरह घर में रह रहे थे।अशक्त भी थे।
गाँव में उनका कमाया जो कुछ थोड़ा-बहुत जमा-जोड़ था वह परिवार के लिए पूरा नहीं पड़ता था। इसी चिंता के चलते नीलाम्बर इस नई जगह चला आया था।
यहाँ नीलाम्बर एक दुकान में काम करता था और उसी दुकानदार के लिए घर-घर से पुराना सामान बटोरने और फिर बेचने का उसका फेरा था।  दोपहर तक उसे इसी तरह फेरी लगाने जाना पड़ता था।  बाद में दोपहर को रोटी खाने के बाद उसे दुकान पर बैठना पड़ता था।  उस समय दुकान का मालिक आराम करने घर चला जाता था और नीलाम्बर दुकान सम्भालता था।
धंधे में ज़्यादा कमाई न थी। बस किसी तरह गुज़र-बसर हो रही थी। नीलाम्बर सुबह-सुबह उठ कर रोटी अब अपने हाथ से बनाने लगा था। शाम को ज़्यादातर भात बना लेता।  उसका अपना काम अपनी कमाई में भले ही चल जाता हो, पर अपने सोच के मुताबिक घरवालों को भेजने के लिए वह कुछ बचा न पाता था।
अब उसने इसीलिये किराए पर ये छोटी सी कोठरी ले ली थी कि अपने छोटे दोनों भाइयों को अपने पास लाकर रख सके। अब तक तो वह वहीं दुकान पर सोता रहा था।
दुकान कबाड़ भंगार और पुराने टूटे-फूटे सामान की थी इसी से रात को उसे खुला रख कर सोने-बैठने के काम में लेना कोई मुश्किल न था। दुकान के एकाध लड़के कभी-कभी और वहां रहते थे।
यह बस्ती अपनी बसावट में अपेक्षाकृत नई ही थी। वहां जो भी लोग थे, अधिकतर नए-नए ही आकर बस रहे थे। खेतों से कट-कट कर ज़मीनें निकल रही थीं,ज़मीनों से दुकानें।
ऐसी बस्ती में भला पुराने-बेकार माल की ज़्यादा गुंजाइश कहाँ होती है।  बसे-बसाए पुराने घर तो वहां बहुत कम थे।  और जो थे, उनमें भी धरा भक्तन जैसे लोग जिनका बसना क्या, उजड़ना क्या?
शहर पर फफूंद की तरह उगते चले जाते हैं ऐसे इलाके। इनमें खानदानी लोग नहीं रहते। इनमें  तो ज़िंदगी बनने और ज़िंदगी बिखरने से गिरे धूल-मिट्टी और तिनके ज़्यादा होते हैं।
ये ऐसी बस्तियां हैं कि इनमें रहने वालों को न समाज-रिवाज़ का कोई सहारा मिलता है, न संस्कारों और परम्पराओं की कोई विरासत। यहाँ तो खेत जब बंजर होने लगे, दालान में बदल जाता है, और दालान जब सूखने लगे, चौबारा बन जाता है।
ऐसी बस्तियां उन लोगों को ही पालती हैं जिन्हें पूंजीवादी-सामंतवादी तरीकों से चलने वाली संस्कारी बस्तियां ज़रा-ज़रा सी बात पर दुत्कार कर फेंक देती हैं।  [ जारी ]                     

Monday, May 2, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 12 ]

घर मानो सीधा सा हो गया।
वो कहते हैं न, कि यदि किसी घर में औरत न हो, तो घर घर न होकर भूतों का सा डेरा लगता है। ठीक वैसे ही,अगर किसी घर में कोई मर्द-बच्चा न हो, तब भी घर घर न होकर बिना बांस का सा तम्बू लगता है, जिसे हवाएं कभी भी झिंझोड़ दें, कहीं भी उड़ा ले जाएँ। तिरछा सा ही रहता है डेरा।
और इस तरह भक्तन का घर भी सध गया।
अब जब सवेरा होता तो घर के सारे कोण खनखनाते। पूजा के आले में भक्तन की जलाई हुई अगरबत्तियों की सुवास महकती,छत पर साग-भाजी काटती धरा की कायनात पर चहकते हुए पखेरू मंडराते,तो नीचे दालान में बाल्टी भर पानी से नहाते नीलाम्बर के बदन से ठन्डे पानी के छींटे छलकते।
नीलाम्बर बहुत संकोची स्वभाव का था, किसी काम के लिए ऊपर न आता। नहा कर अपने कपड़े तक नीचे ही दीवार के एक टूटे से हिस्से पर सूखने के लिए फैला देता।
कोठरी में पहुँच कर तन पर कमीज और पैरों में पेंट डालता,घने गीले बालों को झटकारते हुए सहलाता और उल्टा-सीधा कुछ भी पेट में डाल कर काम पर निकल जाता।
भक्तन का ध्यान तो गया तब,जब एक दिन दीवार से उड़ कर नीलाम्बर की चड्डी दीवार के सहारे मिट्टी में जा गिरी। देखा धरा ने भी,पर वह हलके से बस मुस्करा कर रह गयी। ये वही जगह थी जहाँ कभी एक दिन धरा ने नीलाम्बर को ऊपर बुलाने की ग़रज़ से जानबूझ कर अपनी चोली नीचे गिरा दी थी।
जैसे नीलाम्बर उस दिन झिझकता सा चोली हाथ में पकड़े ऊपर आया था, काश, आज धरा भी उसकी चड्डी हाथ में लेकर कोठरी की देहरी पर जा पाती !
पर वो था ही नहीं घर में।
शाम को नीलाम्बर आया तो भक्तन ने आवाज़ देकर उसे ऊपर बुला लिया और बोली-
-"बेटा, छत पर कपड़े सुखाने की रस्सी बंधी है,तू नीचे दीवार पर क्यों उन्हें छोड़ जाता है? इधर-उधर उड़ते फिरते हैं, कोई गाय-वाय चबा जाएगी, यहाँ सुखा जाया कर।"
नीलाम्बर कृतज्ञता से सर झुकाए रसोई की ओर देखने लगा जहाँ से धरा तीनों के लिए चाय के प्याले लिए आ रही थी।
नीलाम्बर को लकड़ी की कुर्सी पर बैठना पड़ा।
तीनों चुपचाप बैठे चाय पीते रहे।
शाम का सूरज सिंदूरी होने लगा था, मानो विधाता-दर्ज़ी धरती के वाशिंदों का भविष्य सिल कर अब दुकान की ढिबरी बुझाने को हो।
[ जारी ]            
   

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...