किसी देश और बच्चों में भी भला कोई समानता की बात हो सकती है?मुश्किल तो है, पर फिर भी मुझे ऐसा लग रहा है कि कुछ बातों में ज़रूर ये दोनों एक सा व्यवहार करते हैं.
क्या आपने किसी पतंग उड़ाते बच्चे को देखा है? अनंत आसमान में उसकी पतंग होती है, उसके हाथ में पतंग की डोर. और तन्मय होकर वह अपनी पतंग के साथ सारे आकाश में विचरण करता है.फिर कुछ ही देर में उसे आसपास कोई और पतंग दिखाई देने लगती है, और वह उससे पेच लड़ाने की तैयारी करने लगता है. वह नहीं जानता कि उस दूसरी पतंग को कौन, कहाँ से उड़ा रहा है, वह पतंगबाज़ी में कितना सिद्धहस्त है, बस वह तो जंग की तैयारी में लग जाता है.
यहाँ दो संभावनाएं हैं. या तो बच्चे की पतंग कट जायेगी या फिर वह दूसरे की पतंग काट देगा।यदि बच्चा पेच काटने में सफल हुआ तो बच्चे के उल्लास की कोई सीमा नहीं है, लेकिन यदि वह अपनी पतंग बचा नहीं सका, तो उसके भीतर तुरंत एक मंथन शुरू हो जाता है. वह मन ही मन इस बात पर विचार ज़रूर करता है कि उसकी शिकस्त का कारण क्या रहा?इतना ही नहीं, बल्कि मन ही मन वह इस उधेड़बुन में भी उलझ जाता है, कि शायद वह ऐसा करता तो वैसा होता, वैसा करता तो यूं हो जाता।
ठीक ऐसा ही कोई देश भी करता है. अपनी पतंग नहीं, अपने "जीवन-मूल्यों" को लेकर।जब वह विकास को लेकर किसी दूसरे देश से स्पर्धा में अपने मूल्यों को दाँव पर लगाता है तो उसका व्यवहार बच्चे वाला ही होता है.यहाँ ध्यान देने की बात इतनी है कि पतंग उड़ाने के शौक़ीन बच्चे के पास अमूमन दूसरी पतंग भी होती है, लेकिन "जीवन-मूल्य"किसी देश के पास इतने नहीं होते, अमीर देशों के पास भी नहीं।
क्या आपने किसी पतंग उड़ाते बच्चे को देखा है? अनंत आसमान में उसकी पतंग होती है, उसके हाथ में पतंग की डोर. और तन्मय होकर वह अपनी पतंग के साथ सारे आकाश में विचरण करता है.फिर कुछ ही देर में उसे आसपास कोई और पतंग दिखाई देने लगती है, और वह उससे पेच लड़ाने की तैयारी करने लगता है. वह नहीं जानता कि उस दूसरी पतंग को कौन, कहाँ से उड़ा रहा है, वह पतंगबाज़ी में कितना सिद्धहस्त है, बस वह तो जंग की तैयारी में लग जाता है.
यहाँ दो संभावनाएं हैं. या तो बच्चे की पतंग कट जायेगी या फिर वह दूसरे की पतंग काट देगा।यदि बच्चा पेच काटने में सफल हुआ तो बच्चे के उल्लास की कोई सीमा नहीं है, लेकिन यदि वह अपनी पतंग बचा नहीं सका, तो उसके भीतर तुरंत एक मंथन शुरू हो जाता है. वह मन ही मन इस बात पर विचार ज़रूर करता है कि उसकी शिकस्त का कारण क्या रहा?इतना ही नहीं, बल्कि मन ही मन वह इस उधेड़बुन में भी उलझ जाता है, कि शायद वह ऐसा करता तो वैसा होता, वैसा करता तो यूं हो जाता।
ठीक ऐसा ही कोई देश भी करता है. अपनी पतंग नहीं, अपने "जीवन-मूल्यों" को लेकर।जब वह विकास को लेकर किसी दूसरे देश से स्पर्धा में अपने मूल्यों को दाँव पर लगाता है तो उसका व्यवहार बच्चे वाला ही होता है.यहाँ ध्यान देने की बात इतनी है कि पतंग उड़ाने के शौक़ीन बच्चे के पास अमूमन दूसरी पतंग भी होती है, लेकिन "जीवन-मूल्य"किसी देश के पास इतने नहीं होते, अमीर देशों के पास भी नहीं।