इंदिराजी गरीबी हटाना चाहती थीं। उनके बीस सूत्री कार्यक्रम और संजय गांधी के समय बने चार सूत्री कार्यक्रम का यही भाव था। इंदिराजी जब गरीबी के कारणों की पड़ताल करती थीं, तब वे गरीबी का एक कारण ये भी देखती थीं, कि कुछ लोगों के पास ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है, इसीलिये कुछ लोगों के पास ज़रूरत से बहुत कम। किन्तु इस बात को खुलकर केवल इस कारण नहीं कहा जा पाता था क्योंकि साम्यवादी इस सिद्धांत पर अपना एकाधिकार समझते थे।
कांग्रेस के घोर विरोध से सत्ता के गलियारों में पहुँची आमआदमी पार्टी बिना शोर-शराबे के इसी सिद्धांत पर काम करने की पहल कर चुकी है। उसने सबसे पहले लोगों की कारों के प्रति अदम्य लालसा को निशाना बनाया है।मौजूदा दौर का यह स्टेटस सिम्बल ज़रूरत से ज़्यादा दिखावे को पोसता है, इसीलिये कार कम्पनियों में भी आवागमन के इस साधन को चलते-फिरते "लक्ज़री होम" बना देने की होड़ है।
यह साधन अब साध्य बन गया है। कहाँ जायेंगे, क्यों जायेंगे, वहां जाकर क्या करेंगे, इन सब सवालों से ज़्यादा अहम अब ये हो गया है,कि कार से जायेंगे। पब्लिक ट्रांसपोर्ट को इसी भावना के चलते हेय दृष्टि से देखा जाता है। किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाते विद्वान, संभ्रांत, संपन्न व्यक्ति की तुलना में किसी कार से गुज़रते शोफर, नौकर,या सहायक के चेहरे पर अब ज़्यादा तेज़ देखा जा सकता है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इंदिराजी की इस भावना को ही पकड़ा है। यदि ऑड-ईवन फ़ॉर्मूले का प्रयोग सफल सिद्ध होता भी है, तो ये सफलता कुछ यही सवाल उठाएगी।
१. यदि सप्ताह के तीन दिन अपने वाहन घर पर खड़े करके भी आपका काम आराम से चल रहा है तो इसका मतलब है कि आप ज़रूरत से बहुत ज़्यादा संसाधन दबाये बैठे थे। किसी की थाली से आधी रोटियां उठा लेने के बाद भी यदि उसे भरे पेट जैसी डकार आ रही है, तो इससे राजधानी के वाशिंदों की "देश की गरीबी की चिंता" को समझा जा सकता है।
२. क्या यह ज़्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता कि कार्य-कार्यालय-व्यवसाय पर जाने वालों को आराम से रोज जाने दिया जाता,और बाजार-घरेलू कार्य-शॉपिंग-तफ़रीह के लिए निकलने वालों के लिए सप्ताह में केवल एक या दो दिन मुक़र्रर किये जाते?
३. यदि सरकार के निर्देशानुसार नहीं चल रहे हैं तो सारे दिन का तनाव और ट्रैफ़िक पुलिस का भय आप पर वही कहर ढा रहा है जो दिल्ली का नैसर्गिक प्रदूषण।
कांग्रेस के घोर विरोध से सत्ता के गलियारों में पहुँची आमआदमी पार्टी बिना शोर-शराबे के इसी सिद्धांत पर काम करने की पहल कर चुकी है। उसने सबसे पहले लोगों की कारों के प्रति अदम्य लालसा को निशाना बनाया है।मौजूदा दौर का यह स्टेटस सिम्बल ज़रूरत से ज़्यादा दिखावे को पोसता है, इसीलिये कार कम्पनियों में भी आवागमन के इस साधन को चलते-फिरते "लक्ज़री होम" बना देने की होड़ है।
यह साधन अब साध्य बन गया है। कहाँ जायेंगे, क्यों जायेंगे, वहां जाकर क्या करेंगे, इन सब सवालों से ज़्यादा अहम अब ये हो गया है,कि कार से जायेंगे। पब्लिक ट्रांसपोर्ट को इसी भावना के चलते हेय दृष्टि से देखा जाता है। किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाते विद्वान, संभ्रांत, संपन्न व्यक्ति की तुलना में किसी कार से गुज़रते शोफर, नौकर,या सहायक के चेहरे पर अब ज़्यादा तेज़ देखा जा सकता है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इंदिराजी की इस भावना को ही पकड़ा है। यदि ऑड-ईवन फ़ॉर्मूले का प्रयोग सफल सिद्ध होता भी है, तो ये सफलता कुछ यही सवाल उठाएगी।
१. यदि सप्ताह के तीन दिन अपने वाहन घर पर खड़े करके भी आपका काम आराम से चल रहा है तो इसका मतलब है कि आप ज़रूरत से बहुत ज़्यादा संसाधन दबाये बैठे थे। किसी की थाली से आधी रोटियां उठा लेने के बाद भी यदि उसे भरे पेट जैसी डकार आ रही है, तो इससे राजधानी के वाशिंदों की "देश की गरीबी की चिंता" को समझा जा सकता है।
२. क्या यह ज़्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता कि कार्य-कार्यालय-व्यवसाय पर जाने वालों को आराम से रोज जाने दिया जाता,और बाजार-घरेलू कार्य-शॉपिंग-तफ़रीह के लिए निकलने वालों के लिए सप्ताह में केवल एक या दो दिन मुक़र्रर किये जाते?
३. यदि सरकार के निर्देशानुसार नहीं चल रहे हैं तो सारे दिन का तनाव और ट्रैफ़िक पुलिस का भय आप पर वही कहर ढा रहा है जो दिल्ली का नैसर्गिक प्रदूषण।
इंदिरा से सोनिया गांधी के समयकाल तक का गरीबी का सफर मैंने देखा है। गरीबी हटाओ का नारा सिर्फ बेवकूफ बनाने का फंडा है। आज जिस व्यक्ति के पास रूपया 5 लाख जमा पूंजी के रूप में मौजूद है, वह गरीब है। और जो बेचारा साल में मुश्किल से 20 हजार रूपए कमा पा रहा है। गरीब से भी बदतर है। उसके जो जिंदा होने पर भी प्रश्न चिन्ह है। अब मोदी जी आए हैं। गरीबी हटाने के लिए। लेकिन वह भी हर हर मोदी से अर हर मोदी हो गए।
ReplyDeleteAapka krodh jayaz hai, lekin hamaare jaise desh me sthitiyan dheere-dheere hi badli ja pati hain, aapka aabhaar.
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