आखिर जन-आक्रोश के बाद हमारे कानून में ये बदलाव आ ही गया कि किशोर बालकों को केवल १६ साल तक की उम्र में ही नादान और मासूम समझा जाये। उसके बाद वे पूरे आदमी हैं और यदि वे कोई पुरुषों जैसा अपराध कर देते हैं तो उनकी मासूमियत अब उनकी ढाल नहीं बनेगी।
यह बदलाव संयोग से तब आया है जब नयी सदी भी सोलहवें साल में पड़ी है। तो अब सदी और लड़के,दोनों वयस्कों जैसा बर्ताव करना सीख लें। वयस्कों जैसे बर्ताव से आशय यही है कि समझदारी और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, और महिलाओं का यथोचित सम्मान।
आजकल तकनीक आधारित जीवन-शैली हो जाने से किशोर वैसे भी वयस्कों से आगे जा रहे हैं क्योंकि नई टेक्नोलॉजी सीखने में वे ज़्यादा सक्षम हैं। लेकिन जीवन को सम्मान सहित समझने और जीने की ज़िम्मेदारी केवल किशोरों की ही नहीं है। हमें भी पूर्ण-विश्वास में लेकर उन्हें ज़िंदगी के स्याह-सफ़ेद समझाने होंगे।
जीवन में यौन-बर्ताव का एक उचिततम स्तर [ऑप्टीमम पॉइंट] होता है, वहीँ तक बच्चों को स्वाभाविक क्रियाओं से रोका जाना चाहिए। उसके बाद अकारण उन्हें रोकने के लिए की गयी सख्ती उनके मन-मस्तिष्क पर विपरीत असर डाल कर उन्हें मानसिक-रुग्णता दे सकती है। जीवन में स्वस्थ शरीर पर ऐसा कोई स्टिग्मा भी अनायास नहीं लगने देना चाहिए, जो जीवनभर के लिए उन्हें स्वाभाविकता से विमुख कर दे। हमारे समाज और कानून को इस पर भी सोचना चाहिए।
कानून को एक बच्चा बन कर देखना होगा कि १५ से २१ साल का शरीर प्रकृति से क्या चाहता है, क्या वह घोषित "विवाह-योग्य" आयु होने तक केवल पत्थर-मिट्टी का बेजान पुतला बना रह सकता है?
यह बदलाव संयोग से तब आया है जब नयी सदी भी सोलहवें साल में पड़ी है। तो अब सदी और लड़के,दोनों वयस्कों जैसा बर्ताव करना सीख लें। वयस्कों जैसे बर्ताव से आशय यही है कि समझदारी और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, और महिलाओं का यथोचित सम्मान।
आजकल तकनीक आधारित जीवन-शैली हो जाने से किशोर वैसे भी वयस्कों से आगे जा रहे हैं क्योंकि नई टेक्नोलॉजी सीखने में वे ज़्यादा सक्षम हैं। लेकिन जीवन को सम्मान सहित समझने और जीने की ज़िम्मेदारी केवल किशोरों की ही नहीं है। हमें भी पूर्ण-विश्वास में लेकर उन्हें ज़िंदगी के स्याह-सफ़ेद समझाने होंगे।
जीवन में यौन-बर्ताव का एक उचिततम स्तर [ऑप्टीमम पॉइंट] होता है, वहीँ तक बच्चों को स्वाभाविक क्रियाओं से रोका जाना चाहिए। उसके बाद अकारण उन्हें रोकने के लिए की गयी सख्ती उनके मन-मस्तिष्क पर विपरीत असर डाल कर उन्हें मानसिक-रुग्णता दे सकती है। जीवन में स्वस्थ शरीर पर ऐसा कोई स्टिग्मा भी अनायास नहीं लगने देना चाहिए, जो जीवनभर के लिए उन्हें स्वाभाविकता से विमुख कर दे। हमारे समाज और कानून को इस पर भी सोचना चाहिए।
कानून को एक बच्चा बन कर देखना होगा कि १५ से २१ साल का शरीर प्रकृति से क्या चाहता है, क्या वह घोषित "विवाह-योग्य" आयु होने तक केवल पत्थर-मिट्टी का बेजान पुतला बना रह सकता है?
Aapka aabhaar !
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