Saturday, January 16, 2016

यदि ऐसा है, यदि... तो यह अच्छा है !

 कई बार खबर सच नहीं होती।  खबरसाज भी तो इसी दुनिया के लोग होते हैं।  बहुत सी वजहें होती हैं,ख़बरों की, मसलन -
कई बार ख़बर ख़बरों में बने रहने के लिए भी बनाई जाती है।
कई बार तिल होता है और कोई ख़बरों का चितेरा उसे ताड़ बना कर पेश कर देता है।
कई बार कोली लट्ठ भाँजते आ जाते हैं, पर सूत-कपास दूर तलक कहीं नहीं होता।
कई बार खबरों में खाद-पानी डलवा कर खोये हुओं को ख़बरदार किया जाता है।
वैसे अख़बार का काम तो जगे हुओं को सुबह की चाय के साथ दुनियाँ से ख़बरदार करने का है, लेकिन फिर भी इस खबर को सच मानने का मन नहीं होता। खबर झूठी होने के कई कारण मौजूद हैं। नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता।
क्योंकि एक तो अब रहीम का ज़माना नहीं है कि प्रेम का धागा टूटे से फिर न जुड़े,और जुड़े तो गाँठ पड़ जाये।अब तो धागे भी "रोज़-तोड़ो-रोज़-जोड़ो,गाँठ पड़े तो पैसे वापिस" मार्का ब्रांड में आ रहे हैं। दूसरे,प्रेम कौ पंथ भयौ मेला सौ, याही में खोवै याही में पावै। अब ऐसा भी नहीं कि एक म्यान में एक ही तलवार अटे।
लेकिन यदि फिर भी ये खबर सच्ची है,तो अच्छा ही है।
क्योंकि रणबीर कपूर कैटरीना कैफ और दीपिका पादुकोण तीनों ही बेहतरीन अदाकार हैं और तीनों को ही अपने-अपने फ़िल्मी सफर में अभी और भी ऊंची उड़ान भरनी है।
" पानियों में बह रहे हैं, कई किनारे टूटे हुए, साहिलों पे रह गए हैं, कई सहारे छूटे हुए "  
              

Friday, January 15, 2016

जीत का अंतर

यदि कोई आपसे पूछे कि प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण में से कौन ज़्यादा प्रतिभाशाली है, तो क्या जवाब आसान है?
लेकिन यदि कोई पूछे कि बॉलीवुड में इस समय "नंबर एक हीरोइन" कौन है,तो शायद थोड़ी जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति कह देगा-दीपिका !
आइये देखें, क्या अंतर होता है, बॉलीवुड में एक सबसे प्रतिभाशाली और सबसे सफल स्टार में ?
अपने उस दौर को याद कीजिये, जब आप खूब रुचि से बहुत सारी फिल्में देखते थे। इनमें से कोई न कोई जोड़ी आपके उस दौर में रही होगी?
मधुबाला- मीना कुमारी
नर्गिस- नूतन
वैजयंतीमाला- वहीदा रहमान
साधना- आशा पारेख
हेमा मालिनी- मुमताज़
रेखा- ज़ीनत अमान
श्रीदेवी-जयाप्रदा
माधुरी दीक्षित-जूही चावला
काजोल-करिश्मा कपूर
रानी मुखर्जी-करीना कपूर
ऐश्वर्या राय-प्रियंका चोपड़ा
कैटरीना कैफ-विद्या बालन
दीपिका पादुकोण- कंगना रनोट [.... जारी ]
     

Thursday, January 14, 2016

आँधियाँ

अपने ज़माने की लोकप्रिय अभिनेत्री मुमताज़ अपने कैरियर के शिखर पर ही थीं, कि मयूर माधवानी से शादी करके परदेस जा बसीं।
कुछ साल बाद, एक बार वापसी का मन बनाया, तो फिल्म "आँधियाँ" साइन कर ली। कहते हैं कि फिल्म के लिए मुमताज़ ने बजट में नायिका के लिए निर्धारित धन से बहुत ज़्यादा की मांग की।  निर्माता को बड़ी नायिका की बड़ी वापसी की उम्मीद थी, अतः उसने पैसे तो दिए, किन्तु नतीजा ये हुआ कि हीरोइन को दिए गए पैसे फिल्म के बजट में प्रचार के लिए रखे गए पैसों में से निकाले गए।  लिहाज़ा फिल्म का प्रचार न के बराबर हुआ, केवल इतना कि ये मुमताज़ की 'कमबैक' फिल्म है। फिल्म नहीं चली, और मुमताज़ भी घरेलू दुनियां में लौट गयीं।
आज की पीढ़ी राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की जोड़ी को सेल्युलॉइड की बेस्ट जोड़ियों में से एक मानते हुए, विभिन्न टीवी चैनलों पर उनकी आराधना, सफर, दाग,अविष्कार, मालिक, अमर प्रेम जैसी फ़िल्में बार-बार देखती है, किन्तु राजेश खन्ना-मुमताज़ की फिल्मों की आँधियाँ इससे कहीं बढ़ कर हैं।
याद कीजिये- दो रास्ते,दुश्मन, सच्चा- झूठा, बंधन,अपना देश,रोटी, प्रेम कहानी, आपकी कसम....          

Thursday, January 7, 2016

पूंजीवाद में साम्यवाद का तड़का

इंदिराजी गरीबी हटाना चाहती थीं। उनके बीस सूत्री कार्यक्रम और संजय गांधी के समय बने चार सूत्री कार्यक्रम का यही भाव था।  इंदिराजी जब गरीबी के कारणों की पड़ताल करती थीं, तब वे गरीबी का एक कारण ये भी देखती थीं, कि कुछ लोगों के पास ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है, इसीलिये कुछ लोगों के पास ज़रूरत से बहुत कम। किन्तु इस बात को खुलकर केवल इस कारण नहीं कहा जा पाता था क्योंकि साम्यवादी इस सिद्धांत पर अपना एकाधिकार समझते थे।
कांग्रेस के घोर विरोध से सत्ता के गलियारों में पहुँची आमआदमी पार्टी बिना शोर-शराबे के इसी सिद्धांत पर काम करने की पहल कर चुकी है। उसने सबसे पहले लोगों की कारों के प्रति अदम्य लालसा को निशाना बनाया है।मौजूदा दौर का यह स्टेटस सिम्बल ज़रूरत से ज़्यादा दिखावे को पोसता है, इसीलिये कार कम्पनियों में भी आवागमन के इस साधन को चलते-फिरते "लक्ज़री होम" बना देने की होड़ है।
यह साधन अब साध्य बन गया है।  कहाँ जायेंगे, क्यों जायेंगे, वहां जाकर क्या करेंगे, इन सब सवालों से ज़्यादा अहम अब ये हो गया है,कि कार से जायेंगे। पब्लिक ट्रांसपोर्ट को इसी भावना के चलते हेय दृष्टि से देखा जाता है। किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाते विद्वान, संभ्रांत, संपन्न व्यक्ति की तुलना में किसी कार से गुज़रते शोफर, नौकर,या सहायक के चेहरे पर अब ज़्यादा तेज़ देखा जा सकता है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इंदिराजी की इस भावना को ही पकड़ा है। यदि ऑड-ईवन फ़ॉर्मूले का प्रयोग सफल सिद्ध होता भी है, तो ये सफलता कुछ यही सवाल उठाएगी।
१. यदि सप्ताह के तीन दिन अपने वाहन घर पर खड़े करके भी आपका काम आराम से चल रहा है तो इसका मतलब है कि आप ज़रूरत से बहुत ज़्यादा संसाधन दबाये बैठे थे। किसी की थाली से आधी रोटियां उठा लेने के बाद भी यदि उसे भरे पेट जैसी डकार आ रही है, तो इससे राजधानी के वाशिंदों की "देश की गरीबी की चिंता" को समझा जा सकता है।
२. क्या यह ज़्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता कि कार्य-कार्यालय-व्यवसाय पर जाने वालों को आराम से रोज जाने दिया जाता,और बाजार-घरेलू कार्य-शॉपिंग-तफ़रीह के लिए निकलने वालों के लिए सप्ताह में केवल एक या दो दिन मुक़र्रर किये जाते?
३. यदि सरकार के निर्देशानुसार नहीं चल रहे हैं तो सारे दिन का तनाव और ट्रैफ़िक पुलिस का भय आप पर वही कहर ढा रहा है जो दिल्ली का नैसर्गिक प्रदूषण।  
                    

जवानी शुरू

आखिर जन-आक्रोश के बाद हमारे कानून में ये बदलाव आ ही गया कि किशोर बालकों को केवल १६ साल तक की उम्र में ही नादान और मासूम समझा जाये। उसके बाद वे पूरे आदमी हैं और यदि वे कोई पुरुषों जैसा अपराध कर देते हैं तो उनकी मासूमियत अब उनकी ढाल नहीं बनेगी।
यह बदलाव संयोग से तब आया है जब नयी सदी भी सोलहवें साल में पड़ी है। तो अब सदी और लड़के,दोनों वयस्कों जैसा बर्ताव करना सीख लें। वयस्कों जैसे बर्ताव से आशय यही है कि समझदारी और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, और महिलाओं का यथोचित सम्मान।
आजकल तकनीक आधारित जीवन-शैली हो जाने से किशोर वैसे भी वयस्कों से आगे जा रहे हैं क्योंकि नई टेक्नोलॉजी सीखने में वे ज़्यादा सक्षम हैं। लेकिन जीवन को सम्मान सहित समझने और जीने की ज़िम्मेदारी केवल किशोरों की ही नहीं है। हमें भी पूर्ण-विश्वास में लेकर उन्हें ज़िंदगी के स्याह-सफ़ेद समझाने होंगे।
जीवन में यौन-बर्ताव का एक उचिततम स्तर [ऑप्टीमम पॉइंट] होता है, वहीँ तक बच्चों को स्वाभाविक क्रियाओं से रोका जाना चाहिए। उसके बाद अकारण उन्हें रोकने के लिए की गयी सख्ती उनके मन-मस्तिष्क पर विपरीत असर डाल कर उन्हें मानसिक-रुग्णता दे सकती है। जीवन में स्वस्थ शरीर पर ऐसा कोई स्टिग्मा भी अनायास नहीं लगने देना चाहिए, जो जीवनभर के लिए उन्हें स्वाभाविकता से विमुख कर दे। हमारे समाज और कानून को इस पर भी सोचना चाहिए।
कानून को एक बच्चा बन कर देखना होगा कि १५ से २१ साल का शरीर प्रकृति से क्या चाहता है, क्या वह घोषित "विवाह-योग्य" आयु होने तक केवल पत्थर-मिट्टी का बेजान पुतला बना रह सकता है?                  

Saturday, January 2, 2016

आधी सदी के बाद-नायकों की दुनिया

अपने सौ साल मना चुका बॉलीवुड आज जिन अभिनेताओं से जगमगा रहा है, वे आज से पचास साल पहले किन नायकों के रूप में चमक रहे थे, आइये देखें-
आज आप उस समय के अशोक कुमार को अमिताभ बच्चन के रूप में पाएंगे।
आज उस समय के दिलीप कुमार का जलवा कायम रखने का दायित्व शाहरुख़ खान के पास है।
आज उस समय के राज कपूर आपको आमिर खान में नज़र आएंगे।
आज उस समय के देवानंद जैसे सक्रिय आपको आज वरुण धवन मिलेंगे।
आज उस समय के धर्मेन्द्र को याद करते ही आपको अक्षय कुमार दिखेंगे।
आज उस समय के शम्मी कपूर की याद आपको ऋतिक रोशन दिला देंगे।
आज उस समय के राजेंद्र कुमार वाली सफलता सलमान ख़ान के साथ दौड़ रही है।
आज उस समय के राजकुमार वाली अदाओं के लिए इमरान हाशमी जाने जाते हैं।
आज उस समय के शशिकपूर की याद आपको रणबीर कपूर दिलाएंगे।
आज उस समय के सुनील दत्त को रणवीर सिंह के रूप में देख सकते हैं।
आज उस समय के जॉय मुख़र्जी के रूप में सिद्धार्थ मल्होत्रा आपके सामने हैं।
आज उस समय के मनोज कुमार को आप अजय देवगण में पाएंगे।
आज उस समय के विश्वजीत को आप शाहिद कपूर में पाएंगे।
आज उस समय के भारत भूषण को आप सैफ अली खान में देखिये।
आज उस समय के प्रदीप कुमार को आप जॉन अब्राहम में देख सकते हैं।
आज उस समय के बलराज साहनी को आप इरफ़ान खान में महसूस कीजिये।                  

आधी सदी के बाद

क्या आपको भी ऐसा लगता है कि भारतीय फिल्म जगत अर्थात बॉलीवुड पूरे पचास साल बाद भी ज़्यादा बदला नहीं है। आइये देखें कि वर्ष १९६५ की समाप्ति पर कौन से सितारे फ़िल्माकाश में जगमगा रहे थे, और आज २०१५ के बीतते-बीतते रौशनी का ये सनातन कॉन्ट्रेक्ट किस के पास है!
उस समय वैजयंतीमाला की जो छवि थी, वे आज की विद्या बालन से मेल खाती है।
उस समय की सायरा बानो को आप आज की आलिया भट्ट में देख सकते हैं।
उस समय की मीना कुमारी आपको आज करीना कपूर में मिलेंगी।
उस समय की आशा पारेख को तलाश रहे हैं तो श्रद्धा कपूर को देखिये।
उस समय की शर्मिला टैगोर आज प्रियंका चोपड़ा हैं।
उस समय की वहीदा रहमान आज की दीपिका पादुकोण में दिखाई देंगी।
उस समय की साधना आज कैटरीना कैफ हैं।
उस समय की नूतन आज की काजोल हैं।
उस समय की माला सिन्हा आज कंगना रनोट के रूप में हैं।
उस समय की नंदा आज रानी मुखर्जी हैं।
उस समय की नर्गिस आपको आज की ऐश्वर्या राय में दिखेंगी।
उस समय की तनुजा आप आज की अनुष्का शर्मा में तलाश कीजिये।
उस समय की राजश्री आज सोनाक्षी सिन्हा के रूप में हैं।
उस समय की पद्मिनी की भूमिका आज परिणिति चोपड़ा के पास है।
[नायक तब और अब- कल देखिये]              

व्याकरण कैसे बनता है?

एक सरोवर से कुछ दूरी पर एक नदी बहती थी।
एक दिन वहां बहती हवा को न जाने क्या सूझा,उन दोनों के बीच संपर्क-सेतु बन कर एक दूसरे के ख्याल आपस में वैसे ही पहुँचाने लगी, जैसे कभी गोपियों की बातें कृष्ण तक पहुँचाया करती थी।
नदी और सरोवर के बीच तार जुड़ गया और वे आपस में बातें करने लगे।
नदी ने कहा-"तेरे मज़े हैं, यहीं बना रहता है, अपने घर में, मुझे देख, मेरा कोई घर नहीं। पहाड़ से गिरती हूँ और सागर में मिल जाती हूँ।"
सरोवर बोला-"तेरा जल निर्मल है, बहता रहता है। मुझमें लोग कचरा डालते हैं तो सड़ता रहता है, तू उसे बहा कर साफ़ कर देती है।"
नदी बोली-"तेरे किनारे पर तेरे अपने रहते हैं, यहीं जन्मे, यहीं बस गए। तू कितना भाग्यशाली है?"
सरोवर ने उत्तर दिया-"भाग्यशाली तो तू है, तुझ पर बांध बनते हैं, इनके पानी से खेत तो हरे-भरे होते ही हैं, घर भी बिजली के उजास से भर जाते हैं।"
उनकी बातें किनारे पर खड़े दो बच्चे भी सुन रहे थे। एक बोला-"अच्छा, अब समझ में आया कि ग्रामर कैसे बनती है?"
दूसरे ने आश्चर्य से कहा-"क्या मतलब?"
पहला बोला-"मतलब सरोवर को पुल्लिंग और नदी को स्त्रीलिंग क्यों मानते हैं!"          

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...