Friday, September 6, 2013

थोड़ा समय लगेगा अनुराग शर्मा का निर्देश पूरा करने में

पिट्सबर्ग से अनुराग जी ने जब लिखा कि  उनकी तो कई बार टिप्पणी लिखने तक की इच्छा नहीं होती, तो बात की गंभीरता समझ में आई. मुझे लगा कि  आलस्य छोड़ देना चाहिए और सिरे से सोचना चाहिए कि  रूपये की तरह शब्दों का अवमूल्यन भी हो रहा है. कहीं हम सचमुच "ऑप्शंस" क्लिक करने के ही अभ्यस्त तो नहीं रह जायेंगे?
किसी मच्छर भगाने वाली डिवाइस की तरह ही हमें अपनी अन्यमनस्कता को उड़ाने के जतन भी करने होंगे।एक छोटा सा काम तो हम ये करें कि  कुछ देर के लिए अपने को चीर लें. अपनी सुविधा से एक टुकड़े को हम अपने लिए मान लें, और बचे हुए दूसरे को हम अपने समय की सार्वभौमिक सत्ता का सार्वजनिक हिमायती स्वीकार करें। बस हमारा काम हो गया. अब हम खामोश रह ही नहीं सकते। हमारी तटस्थता खुद हमें ही चुभने लगेगी। हम बोलने लगेंगे। हमारी आवाज़ किसी गर्भवती कबूतरी की गुटरगूं के मानिंद शुरू होगी और हम जल्दी ही आम के बगीचे का कोई पपीहा हो जायेंगे। हम अपने कानों में ही बजने लगेंगे। हमारी यही गमक हमारी बिगड़ी बनाएगी। हम अपनी खोट के हाथों बिकने से बच जायेंगे। हमारा मोल भी चढ़ेगा।
इंशा अल्लाह हम लिखने लगेंगे!   

3 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

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