Monday, September 2, 2013

ढोल

कहते हैं दूर के ढोल सुहावने होते हैं. लेकिन कभी-कभी पास के ढोल भी सुहावने लगते हैं. वैसे "सुहावने" की कोई स्पष्ट परिभाषा भी नहीं है. किसी को कर्कश लगने वाले ढोल किसी दूसरे  को सुहाने भी लग सकते हैं. यह भी कहा जाता है कि  सुर में बजने वाले ढोल, चाहे दूर हों या पास, सुहाने लगते हैं.
एक बार एक राजा ने अपने महल के आँगन में एक ढोल रखवा दिया। कहा गया कि  इसे कभी भी, कोई भी आकर बजा सकता है. बस इतनी सी बात थी कि  यदि कभी ढोल की आवाज़ से राजा को गुस्सा आया तो ढोल बजाने वाले का सर काट दिया जायेगा, ऐसी शर्त रख दी गयी.
अब भला किसकी हिम्मत थी कि  ढोल को हाथ भी लगादे। ढोल ऐसे ही पड़ा रहा.
अब जनता भी कोई ऐसी-वैसी तो होती नहीं है, कोई न कोई जियाला तो निकल ही आता है जो हिम्मतवर हो. आखिर एक आदमी वहां भी ऐसा आ धमका। उसने आव देखा न ताव, एक डंडा हाथ में लेकर धमाधम ढोल बजाना शुरू कर दिया। वह खुद ही अपने ढोल की आवाज़ में इतना मगन हुआ कि  साथ में झूम-झूम कर नाचने भी लगा.
राजा ने अपने कक्ष की खिड़की से झांक कर देखा और हँसते-हँसते लोटपोट हो गया. अबतो आदमी रोज़ वहां चला आता और ढोल पीटने लगता। साथ में नाचता भी.
दरबारियों को ईर्ष्या हुई, सोचने लगे, राजा इसे कोई बड़ा ईनाम ज़रूर देगा। अगले दिन उन्होंने ढोल को राजा की खिड़की के एकदम नज़दीक रखवा दिया। उन्होंने सोचा-खिड़की के निकट होने से इसकी कानफोड़ू आवाज़ से राजा को ज़रूर गुस्सा आएगा और राजा इसकी छुट्टी कर देगा।
सचमुच ऐसा ही हुआ. राजा को गुस्सा आ गया. अब सारे नगर में चर्चा होने लगी कि  दूर के ढोल सुहावने। सब सोचने लगे राजा इसे सज़ा देगा। लेकिन राजा का गुस्सा आदमी पर नहीं, बल्कि दरबारियों पर उतरा, राजा ने सभी पर भारी जुर्माना लगाया। और आदमी को ईनाम दिया।   

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...