Thursday, October 29, 2015

ये अच्छा है या बुरा?

जब किसी दर्द के इलाज के लिए आप डॉक्टर के पास जाते हैं, तो डॉक्टर इलाज से पहले आपके दर्द वाले स्थान को हिलाकर , सहलाकर , दबाकर , पकड़कर या  खरोंच कर और बढ़ा देता है।
इस समय रोगी की मनोदशा सतरंगी हो सकती है-
१. ये दर्द मिटा रहा है या और बढ़ा रहा है?
२. इसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा, क्या इलाज करेगा?
३. ध्यान से देख तो रहा है, निदान करेगा।
४. हिसाब लगा रहा है, कौन-कौन से टेस्ट कराये जा सकते हैं?
५. बढ़िया डॉक्टर है।
६. पड़ौसी ठीक कहता था, ज़रा समय लगाएगा पर दर्द छूमंतर कर देगा।
७. इसका तो हाथ लगते ही दर्द गायब हो गया?
रोगी कोई भी हो सकता है-इंसान, जानवर या देश !   

Sunday, October 25, 2015

"हरी-नीली-पीली-गुलाबी पतंगें"

कल मुझे एक छात्र ने पूछा-"सर, मकरसंक्रांति पर जयपुर में तो बहुत पतंगें उड़ती हैं, आप जयपुर में ही पढ़े, क्या आप भी पतंगें उड़ाते थे?"
उसे दिया गया जवाब आपके लिए भी-

हरी नीली पीली गुलाबी पतंगें
न जाने मगर कौन सी अब कहाँ है?

किसी-किसी के रंग, लगते सजीले
किसी-किसी के अंग,होते नशीले
किसी-किसी के तंग, थे ढीले-ढीले
तरसाती थीं दूर से भी पतंगें !

इन्हें देखते छत पे आते थे लड़के
गली में मिलीं, लूट लाते थे लड़के
पकड़ डोर जबभी, हिलाते थे लड़के
धरा से गगन पे, जातीं पतंगें !

कोई दोस्तों से मिलके उड़ाता
कोई लेके इनको,अकेले में जाता
सभी का मगर इनसे कोई तो नाता
होतीं सभी की मुरादें पतंगें !

पड़ता था घर के बड़ों को मनाना
कहते थे बाबा, थोड़ी उड़ाना
जैसा हो मौसम उसी से निभाना
देती हैं भटका,ज़्यादा पतंगें ! 





Wednesday, October 7, 2015

मासूम सादगी

कुछ लोग "साहित्य अकादमी" द्वारा दिए गए सम्मानों को वर्षों बाद वापस लौटा रहे हैं। आइये देखें, कि वे जाने-अनजाने अपनी मासूमियत में क्या कह रहे हैं? अर्थात इसके क्या निहितार्थ हैं?
-वे कह रहे हैं कि उन्हें पुरस्कार/सम्मान उनकी रचनाओं पर नहीं मिला, बल्कि इसलिए मिला है, क्योंकि उस समय की सरकार और नेता अच्छा काम कर रहे थे।
-साहित्य के पुरस्कार साहित्य के विशेषज्ञ, समालोचक तथा वरिष्ठ साहित्यकर्मी नहीं तय करते बल्कि सत्ता में बैठे हुए नेता तय करते हैं।
-अब वे अपमानित महसूस कर रहे हैं क्योंकि 'अब सत्ता में उनका कोई नहीं' है।

"लौटा रहे हैं 'मान' वे, सत्ता को कोस कर
लगता है उनके मान में, सत्ता का हाथ था"

तो अब वे सरकार के नयनों के तारे नहीं रहे।       

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...